पर्यावरण के प्रति जागरूकता और हमारा भविष्य

3 Apr 2014
0 mins read
पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं। जैसे खुले में कचरा नहीं जलाने एवं प्रेशर हॉर्न नहीं बजाने का नियम है, परंतु इनका सम्मान नहीं किया जाता। पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं बल्कि दिल से सम्मान करना होगा। सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढ़कर आज कोई पूजा नहीं है। प्रकृति का सम्मान ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी कहा भी जाता है की प्रकृति भी ईश्वर है। अगर आप सच्चे ईश्वर भक्त हैं तो भगवान की बनाई इस दुनिया कि हवा, पानी जंगल और जमीन को प्रदूषित होने से बचाएं वर्तमान संदर्भों में इससे बढ़कर कोई पूजा नहीं है। पर्यावरण एवं प्रकृति एक ही सीक्के के दो पहलू हैं। जनसामान्य के लिए जो प्रकृति है, उसे विज्ञान में पर्यावरण कहा जाता है। ‘परी+आवरण’ यानी हमारे चारों ओर जो भी वस्तुएं हैं, शक्तियां, जो हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं, वे सभी पर्यावरण बनाती हैं। मोटे तौर पर जल, हवा, जंगल, जमीन, सूर्य का प्रकाश, रात का अंधकार और अन्य जीव जंतु सभी हमारे पर्यावरण के भिन्न तथा अभिन्न अंग है। जीवित और मृत को जोड़ने का काम सूर्य की शक्ति करती है।

प्रकृति जो हमें जीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद-मूल-फल उपलब्ध कराती रही है, वही अब संकट में है। आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है। यह धरती माता आज तरह-तरह के खतरों से जूझ रही है।

लगभग 100-150 साल पहले धरती पर घने जंगल थे, कल-कल बहती स्वच्छ सरिताएं थीं। निर्मल झील व पावन झरने थे। हमारे जंगल तरह-तरह के जीव जंतुओं से आबाद थे और तो और जंगल का राजा शेर भी तब इनमें निवास करता था। आज ये सब ढूंढे नहीं मिलते, नदियां प्रदूषित कर दी गई हैं।

राष्ट्रीय नदी का दर्जा प्राप्त गंगा भी इससे अछूती नहीं है। झील झरने सूख रहे हैं। जंगलों से पेड़ और वन्य जीव गायब होते जा रहे हैं। चीता तथा शेर हमारे देश से देखते-ही-देखते विलुप्त हो चुके हैं। अभी वर्तमान में उनकी संख्या अत्यंत ही कम है। सिंह भी गिर के जंगलों में हीं बचे हैं। इसी तरह राष्ट्रीय पक्षी मोर, हंस कौए और घरेलू चिड़ीयों पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। यही हाल हवा का है। शहरों की हवा तो बहुत ही प्रदूषित कर दी गई है, जिसमें हम सभी का योगदान है।

महानगरों की बात तो दूर हम छत्तीसगढ़ में हीं देखें तो रायगढ़, कोरबा, रायपुर जैसे मध्यम आकार के शहरों की हवा भी अब सांस लेने लायक नहीं हैं। आंकड़े बताते हैं की वायु में कणीय पदार्थ की मात्रा जिसे आर.एस.पी.एम. (R.S.P.M.) कहते हैं, में रायगढ़ का पूरे एशिया में तीसरा स्थान पर आना चिंता की बात है। इस सूची में कोरबा और रायपुर भी शामिल हैं।

शहरी हवा में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें घुली रहती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा हाइड्रो कार्बन के साथ बढ़ रही है। वहीं खतरनाक ओजोन के भी वायुमंडल में बढ़ने के संकेत हैं। विकास की आंधी में मिट्टी की भी मीट्टी-पलीद हो चुकी है। जिस मिट्टी में हम सब खेले हैं, जो मीट्टी खेत और खलीहान में है, खेल का मैदान है, वह तरह-तरह के कीटनाशकों को एवं अन्य रसायनों के अनियंत्रित प्रयोग से प्रदूषित हो चुकी हैं।

खेतों से ज्यादा-से-ज्यादा उपज लेने की चाह में किए गए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण वर्तमान में पंजाब एवं हरियाणा की हजारों हेक्टेयर जमीन बंजर हो चुकी है। हमारे कई सांस्कृतिक त्योहार एवं रिती-रिवाज भी पर्यावरण हितैषी नहीं हैं। दीपावली और विवाह के मौके पर की जाने वाली आतीशबाजी हवा को बहुत ज्यादा प्रदूषित करती है। होली भी हर गली-मोहल्ले की अलग-अलग न जलाकर एक कॉलोनी या कुछ कॉलोनियां मिलकर एक सामूहिक होली जलाएं तो इससे ईंधन भी बचेगा और पर्यावरण भी कम प्रदूषित होगा।

जब हम स्वचालित वाहन चलाते हैं, तब हम यह नहीं सोचते की इससे निकलने वाला धुआं हमारे स्वास्थ्य को भी खराब करता है। इससे निकली गैसें अम्लीय वर्षा के रूप में हम पर ही बरसेगी व हमारी मिट्टी तथा फसलों को खराब करेगी। यूरोपीय देशों की अधिकांश झीलें अम्लीय वर्षा के कारण मर चूकी हैं। उनमें न तो मछली जिंदा बचती हैं, न पेड़-पौधे।

सवाल यह है कि इन पर्यावरणीय समस्याओं क्या कोई हल है? क्या हमारी सोच में बदलाव की जरूरत है? दरसअल प्रकृति को लेकर हमारी सोच में ही खोट है। तमाम प्राकृतिक संसाधनों को हम धन के स्रोत के रूप में देखते हैं और अपने स्वार्थ के खातिर उसका अंधाधुंध दोहन करते हैं। हम यह नहीं सोचते हैं कि हमारे बच्चों को स्वच्छ व शांत पर्यावरण मिलेगा या नहीं।

वर्तमान स्थितियों के लिए मुख्य रूप से हमारी कथनी और करनी का कर्म ही जिम्मेदार है। एक ओर हम पेड़ों की पूजा करते हैं तो वहीं उन्हें काटने से जरा भी नहीं हिचकते। हमारी संस्कृति में नदियों को मां कहा गया है, परंतु उन्हीं मां स्वरूपा गंगा-जमुना, महानदी की हालत किसी से छिपी नहीं है। इनमें हम शहर का सारा जल-मल, कूड़ा-कचरा, हार फूल यहां तक कि शवों को भी बहा देते हैं। नतीजतन अब देश की सारी प्रमुख नदियां गंदे नालों में बदल चुकी हैं। पेड़ों को पूजने के साथ उनकी रक्षा का संकल्प भी हमें उठाना होगा।

पर्यावरण रक्षा के लिए कई नियम भी बनाए गए हैं। जैसे खुले में कचरा नहीं जलाने एवं प्रेशर हॉर्न नहीं बजाने का नियम है, परंतु इनका सम्मान नहीं किया जाता। हमें यह सोच भी बदलनी होगी कि नियम तो बनाए ही तोड़ने के लिए जाते हैं। पर्यावरणीय नियम का न्यायालय या पुलिस के डंडे के डर से नहीं बल्कि दिल से सम्मान करना होगा। सच पूछिए तो पर्यावरण की सुरक्षा से बढ़कर आज कोई पूजा नहीं है।

प्रकृति का सम्मान ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी कहा भी जाता है की प्रकृति भी ईश्वर है। अगर आप सच्चे ईश्वर भक्त हैं तो भगवान की बनाई इस दुनिया कि हवा, पानी जंगल और जमीन को प्रदूषित होने से बचाएं वर्तमान संदर्भों में इससे बढ़कर कोई पूजा नहीं है। जरूरत हमें स्वयं सुधरने की है, साथ ही हमें अपनी आदतों में पर्यावरण की ख़ातिर बदलाव लाना होगा। याद रहे हम प्रकृति से हैं प्रकृति हम से नहीं।

तमाम सख्ती व कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्य में अनेक फैक्ट्रियां अवैध रूप से चलाई जा रही हैं। इनमें से हर रोज निकलने वाली खतरनाक रसायन व धुआं हवा में जहर घोल रहा है। “तालाब, पोखर, गढ़ही, नदी, नहर, पर्वत, जंगल और पहाड़ियां आदि सभी जलस्रोत परिस्थितिकी में संतुलन बनाए रखते हैं। इसलिए पारिस्थितिकीय संकटों से उबरने और स्वस्थ पर्यावरण के लिए इन प्राकृतिक देनों की सुरक्षा करना आवश्यक है, ताकी सभी संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए अधिकारों का आनंद ले सकें।”

पर्यावरण बदलने से भुखमरी का खतरा मंडराने लगा है। दुनिया की जानी मानी संस्था ऑक्सफैम का कहना है कि पर्यावरण में हो रहे बदलावों के कारण ऐसी भुखमरी फैल सकती है, जो इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी साबित होगी। इस अंतरराष्ट्रीय चैरिटी संस्था की नई रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण में बदलाव गरीबी और विकास से जुड़े हर मुद्दे पर प्रभाव डाल रहा है।

बदलती जलवायु के प्रमुख कारण कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान के रूप में अब स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लगा है। तापमान का बदलता स्वरूप मानव द्वारा प्रकृति के साथ किए गए निर्मम तथा निर्दयी व्यवहार का सूचक है। अपने ही स्वार्थ में अंधे मानव ने अपने ही जीवन प्राण वनों का सफाया कर प्रकृति के प्रमुख घटकों – जल, वायु तथा मृदा से स्वयं को वंचित कर दिया है।

बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड ने वायुमंडल में ऑक्सीजन को कम कर दिया है। वायुमंडलीय परिवर्तन को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का नाम दिया गया है। इसने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं का तोहफा देना प्रारंभ कर दिया है। भारत और चीन सहित कई देशों में भूमि कंपन, बाढ़, तूफान, भुस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, भूमि की धड़कन के साथ ग्लेशियरों का पिघलना आदि प्राकृतिक आपदाओं के संकेत के रूप में भविष्यदर्शन है।

गरमाती धरती का प्रत्यक्ष प्रभाव समुद्री जल तथा नदियों के जल के तापमान में वृद्धि होना है, जिसके कारण जलचरों के अस्तित्व पर सीधा खतरा मंडरा रहा है। यह प्रत्यक्ष खतरा मानव पर अप्रत्यक्ष रूप से उसकी क्षुधापूर्ती से जुड़ा है। पानी के आभाव में जब कृषि व्यवस्था का जब दम टूटेगा तो शाकाहारियों को भोजन का आभाव झेलना एक विवशता होगी तो मरती मछलियों प्रास (झिंगा) तथा अन्य भोजन जलचरों के अभाव में मांसाहारियों को कष्ट उठाना होगा।

उक्त दोनों प्रक्रियाओं से आजिविका पर सीधा असर होगा तथा काम के अभाव में शीथिल होते मानव अंग अब बीमारी की जकड़ में आ जाएंगे। वैश्विक जलवायु मानव को गरीबी की ओर धकेलते हुए आपराधिक दुनिया की राह दिखाएगा, जिसमें पर्यावरण आतंकवाद को बढ़ावा मिलेगा तथा दुनिया में पर्यावरण शरणार्थियों को शरण देने वाला कोई नहीं होगा। बढ़ता तापक्रम विश्व के देशों की वर्तमान तापक्रम प्रक्रिया में जबरदस्त बदलाव लाएगा, जिसके कारण ठंडे देश गर्मी की मार झेलेंगे तो गर्म उस्म कटिबंधीय देश में बेतहशा गर्मी से जलसंकट गहरा जाएगा और वृक्षों के अभाव में मानव जीवन संकट में पड़ जाएगा।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम फलस्वरूप कृषि तंत्र प्रभावित होकर हमें कई सुलभ खाध पदार्थों की सहज उपलब्धि से वंचित कर सकता है। अंगूर, संतरा, स्ट्रॉबेरी, लीची, चैरी आदि फल ख्वाब में परिवर्तित हो सकते हैं। इसी प्रकार घोंघे, यूनियों, छोटी मछलियां, प्रास बाइल्ड पेसिफिक सेलमान, स्कोलियो डोने जैसे कई जलचर तथा समुद्री खाद्य शैवाल मांसाहारियों के भोजन मीनू से बाहर हो सकते हैं। तापक्रम में वृद्धि के कारण वर्षा वनों में रहने वाले प्राणी तथा वनस्पति विलुप्त हो सकते हैं।

हमारी सांस्कृतिक ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान पहुंच सकता है और हम पर्यटन के रूप में विकसित स्थलों से वंचित हो सकते हैं। वर्षों तक ठोस बर्फ के रूप में जमे पहाड़ों की ढलानों पर स्कीइंग खेल का आनंद बर्फ के अभाव में स्वप्न हो सकता है। हॉकी, बेसबॉल, क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, गोल्फ, आदि खेलों पर जंगलों में उपयुक्त लकड़ी का अभाव तथा खेल के मैदानों पर सुखे का दुष्प्रभाव देखने को मिल सकता है। विभिन्न खेलों में कार्यरत युवतियों की आजीविका छीनने से व्यभिचार और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।

तापक्रम परिवर्तन के कारण अलग-थलग पड़े समुद्री जलचर अपनी सीमा लांघ सकते हैं तथा समुद्री सीमाओं को लांघकर अन्य जलचरों को हानी पहुंचा सकते हैं। वैश्विक तापक्रम वृद्धि के फलस्वरूप जंगली जीवों की प्रवृत्ति तथा व्यवहार में परिवर्तन होकर उनकी नस्लों की समाप्ति हो सकती हैं। प्रवजन पक्षी (माइग्रेट्री बर्ड्स) अपना रास्ता बदलकर भूख और प्यास से बदहाल हो सकतें हैं। चिड़ियों की आवाजों से हम वंचित हो सकते हैं। सांप, मेंढक तथा सरीसर्प प्रजाती के जीवों को जमीन के अंदर से निकल कर बाहर आने को बाध्य होना पड़ सकता है।

पिघलते ध्रुवों पर रहने वाले स्लोथ बीयर जैसे बर्फीले प्रदेश के जीवों को नई परिस्थितियों और पारिस्थितिकी से अनुकूलनता न होने के कारण अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ सकता है। बढ़ते तापमान के कारण उत्पन्न लू के थपेड़ों से जन-जीवन असामान्य रूप से परिवर्तित हो कर हमारे पूर्वजों की दूरदर्शिता की याद के रूप में गहरे कुओं व बावड़ियों, कुइयों आदि के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

विश्व स्वास्थ संगठन ने हाल ही में जारी अपनी रिर्पोट में वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भावी परिदृश्य के रूप में बढ़ते तापमान के साथ बढ़ते प्रदूषण से बीमारियों विशेषतः हार्ट अटैक, मलेरिया, डेंगू, हैजा, एलर्जी तथा त्वचिय रोगों में वृद्धि के संकेत देकर विश्व की सरकारों को अपने स्वास्थ्य बजट में कम से कम 20 प्रतिशत वृद्धि करने की सलाह दी है।

विभिन्न देशों के विदेश मंत्रालयों तथा सैन्य मुख्यालयों दवारा जारी सूचनाओं में वैश्विक तापमान वृद्धि से विश्व के देशों की राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे के मंडराने का संकेत दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव (बान की मून) ने इसी वर्ष अपने प्रमुख भाषण में वैश्विक तापमान वृद्धि पर चिंता व्यक्त करते हुए इसे ‘युद्ध’ से भी अधिक खतरनाक बताया है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन के भविष्य दर्शन के क्रम में यह स्पष्ट है कि पर्यावरण के प्रमुख जीवी घटकों हेतु अजीवीय घटकों वायु, जल और मृदा हेतु प्रमुख जनक वनों को तुरंत प्रभाव से काटे जाने से संपूर्ण संवैधानिक शक्ति के साथ मानवीय हित के लिए रोका जाए, ताकि बदलती जलवायु पर थोड़ा ही सही अंकुश तो लगाया जा सके।

अन्यथा सूखते जल स्रोत, नमी मुक्ति सूखती धरती, घटती आक्सीजन के साथ घटते धरती के प्रमुख तत्व, बढ़ता प्रदूषण, बढ़ती व्याधियां, पिघलते ग्लेशियरों के कारण बिन बुलाए मेहमान की तरह प्रकट होती प्राकृतिक आपदाएं मानव सभ्यता को कब विलुप्त कर देंगी, पता नहीं चल पाएगा। आवश्यकता है वैश्विक स्तर पर पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रस्फुटित संतुलन का एकनिष्ठ भाव निहित हो।

राजेंद्र नगर, विलासपुर (छ.ग.)

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading