सूखे में भी उपयोगी है बारहनाजा

विजय जड़धारी जी खुद किसान हैं और वे अपने खेत में बारहनाजा पद्धति से फसलें उगाते हैं। बारहनाजा का शाब्दिक अर्थ बारह अनाज है, पर इसके अंतर्गत बारह अनाज ही नहीं बल्कि दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा शामिल हैं। इसमें 20-22 प्रकार के अनाज होते हैं।
एक जमाने में चिपको आंदोलन से जुड़े रहे जड़धारी जी बरसों से देशी बीज बचाने की मुहिम में जुटे रहते हैं। वे न केवल सिर्फ बीज बचा रहे हैं, उनसे जुड़ी खान-पान की संस्कृति व ग्रामीण संस्कृति को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिये गाँव-गाँव यात्रा निकाली जाती हैं। बैठकें की जाती हैं। महिलाओं को जोड़ा जाता है।
पिछले साल सितंबर में हम मुनिगुड़ा ( ओडिशा) में कल्पवृक्ष और स्थानीय संस्थाओं के आयोजन में मिले थे तब वे पूरी अनाज की प्रदर्शनी लेकर आए थे। उनकी प्रदर्शनी में कोदा ( मंडुवा), मारसा ( रामदाना), जोन्याला (ज्वार), मक्का, राजमा, जख्या, गहथ (कुलथ), भट्ट ( पारंपरिक सोयाबीन), रैंयास( नौरंगी), उड़द, तिल, जख्या, काखड़ी (जीरा), कौणी, मीठा करेला, चीणा इत्यादि अनाज व सब्जियाँ लेकर आए थे। यह सभी देखने में रंग-बिरंगे, चमकदार व सुंदर थे ही, साथ ही स्वादिष्ट में भी बेजोड़ हैं।
जड़धारी जी ने हम सबको यहाँ झंगोरा (पहाड़ी सांवा) की खीर बनाकर खिलाई थी। उन्होंने खुद इसे बनाया था। इसे बनाने की विधि भी बताई थी। और उन्होंने दोने में खीर दी थी तो कहा था “अगर खीर का आनंद लेना हो तो हाथ से खाइए।” वाकई कई लोगों ने दो-दो बार खीर खाई थी और उँगलियाँ चाटते रह गए थे।
वे बताते हैं कि पोषण की दृष्टि से चावल से ज्यादा झंगोरा पौष्टिक है। और आर्थिक दृष्टि से भी चावल से महँगा बिकता है। साबुत झंगोरा को कई दशकों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसमें प्रोटीन, खनिज और लौह तत्व चावल से अधिक होते हैं।

बारहनाजा जैसी मिश्रित पद्धतियों का फायदा यह है कि उसमें सूखा हो या कोई प्रतिकूल परिस्थिति किसान को कुछ न कुछ मिल ही जाता है। जबकि एकल फसलों में पूरी की पूरी फसल का नुकसान हो जाता है और किसान के हाथ कुछ नहीं लगता है।
वे कहते हैं अब हमारे भोजन से विविधता गायब है। चावल और गेहूँ में ही भोजन सिमट गया है। जबकि पहले बहुत अनाज होते थे। उन्होंने कहा भोजन पकाने के लिये चूल्हा कैसा होना चाहिए, पकाने के बर्तन कैसे होने चाहिए, यह भी गाँव वाले तय करते हैं। उन्होंने पूछा क्या किसी कांदा (कंद) को गैस में भूना जा सकता है।
यह खेती बिना लागत वाली है। बीज खुद किसानों का होता है, जिसे वे घर के बिजुड़े (पारंपरिक भंडार) से ले लेते हैं और पशुओं व फसलों के अवशेष से जैविक खाद मिल जाती है, जिसे वे अपने खेतों में डाल देते हैं। परिवार के सदस्यों की मेहनत से फसलों की बुआई, निंदाई-गुड़ाई, देखरेख व कटाई सब हो जाती हैं। इसके अलावा निंदाई-गुड़ाई के लिये कुदाल, दरांती, गैंती, फावड़ा आदि की लकड़ी भी पास के जंगल से मिल जाती है। गाँव के लोग ही खेती के औजार बनाते थे। जड़धारी जी कहते हैं कि हमारी खेती समावेशी खेती है। उससे मनुष्य का भोजन भी मिलता है और पशुओं का भी। वे पालतू पशुओं को पशुधन कहते हैं। यह किसानी की रीढ़ है। लम्बे डंठल वाली फसलों से जो भूसा तैयार होता था उसे पशुओं को खिलाया जाता था और जंगल में भी चारा बहुतायत में मिलता था। और पशुओं के गोबर व मूत्र से जैव खाद तैयार होती थी जिससे जमीन उपजाऊ बनी रहती थी। बारहनाजा की फसलों से पशुओं को भी पौष्टिक चारा निरंतर मिलते रहता था।
बारहनाजा के बीज सभी किसान रखते हैं। खाज खाणु अर बीज धरनु (खाने वाला अनाज खाओ किन्तु बीज जरूर रखो)। बिना बीज के अगली फसल नहीं होगी। बीजों को सुरक्षित रखने के लिये तोमड़ी (लौकी की तरह ही) का इस्तेमाल किया जाता था।
वे खेती की परंपरा को याद करते हुए एक पहाड़ी सुनाते हैं कि एक बार अकाल पड़ा था। सबने खेती करना छोड़ दिया, पर किसान हल चलाए जा रहा था। तो दूसरे लोगों ने पूछा कि आप सूखे खेत में हल क्यों चला रहे हो? किसान ने जवाब दिया- मैं आशावान हूँ, हल चला रहा हूँ क्योंकि हल चलाना न भूल जाऊँ। ऐसी कहानियाँ बारहनाजा जैसी परंपराओं से किसानों को जोड़े रखने की सीख देती हैं।

जड़धारी जी का गाँव जड़धार है। यहाँ का जंगल भी गाँव के लोगों ने खुद बचाया है और पाला पोसा है। एक जमाने में उजाड़ पड़ा जंगल आज बहुत ही विविधतायुक्त हरा-भरा जंगल है। जहाँ कई तरह की जड़ी-बूटियों, औषधीय पौधों से लेकर कई पशु-पक्षियों का डेरा है।
जड़धारी जी चूँकि चिपको आंदोलन से जुड़े रहे हैं, उनका पेड़ों व पर्यावरण के प्रति गहरा लगाव है। बारहनाजा के देशी बीज की मिश्रित खेती को उन्होंने फिर से प्रचलन में ला दिया है। इस काम में उनके कई साथी भी सहयोग कर रहे हैं।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बारहनाजा जैसी पद्धतियाँ सूखे में भी उपयोगी हैं और उसमें खाद्य सुरक्षा संभव है। इसलिये बारहनाजा जैसी कई और मिश्रित पद्धतियाँ हैं, जो अलग-अलग जगह अलग-अलग नाम से प्रचलित है। ये सभी स्थानीय हवा, पानी, मिट्टी और जलवायु के अनुकूल हैं। ऐसी स्वावलंबी पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं
Political science
नमस्कार माया राम जी। आपका यह लेख वास्तव में बहुत चिंतनमय हैं जो अपने आप मे हमें अपने से मिलाता नज़र आ रहा हैं। इस वैज्ञानिक दौड़ में प्रत्येक मनुष्य इस तरह दौड़ रहा है जिसमें वह अपने मूलअस्तित्व को याद नहीं रखना चाहता (चाहता तो है लेकिन समसामयिक परिस्थितियों ने उसे बहुत सीमित कर दिया है) हैं । आज का युवा अनाज को सिर्फ़ गेहूँ ओर चावल तक ही देखता है। इसमें उनका कोई दोष नही है बल्कि दोष तो उनका है जो इसे उन्हें बता पाने में व उन्हें उनका स्वाद दिला पाने में अक्षम रहा है या वह इन झमेलों में पड़ना नही चाहता। अर्थात वह अपने कर्तव्य से
विमुख हो गया हैं। राज्य की नीतियों ने इस तरह की परंपराओं की हत्याएं की है ।
इसके बहुत से और भी कारण रहें है। यह पंक्ति अपने आप में ही सब कुछ बयान करती नज़र आ रही है जिसमे " किसान ने जवाब दिया- मैं आशावान हूँ, हल चला रहा हूँ क्योंकि हल चलाना न भूल जाऊँ।" यह पंक्ति/कथन बहुत से प्रश्नों का उत्तर और बहुत से दूसरे क़िस्म के उत्तर का प्रश्न हैं। ज्ञान के क्षेत्र में मेरी समझ से तो यह आज का प्रश्न बन गया है ।
मैं स्वयं कुम्हार के पारंपरिक ज्ञान पर काम कर रहा हूँ और आज के समय मे उनकी खोती स्थिति को तथाकथित विकास के मॉडल में राजनीति के संदर्भ में विशेष समझ को बनाने का प्रयास है।
आपके लेख में वास्तव में मूल्यों(परंपरा/कौशल/ज्ञान)के संचयन का महत्व देखने को मिला।
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