अनन्तपुर : सूखा और आत्महत्या करते किसान
बंगलोर एयरपोर्ट से आंध्रप्रदेश की तरफ़ राष्ट्रीय राजमार्ग 7 पर बढ़ें, तो नग्न पहाड़ और कुछ झाड़ियां दिखाई दी। थोड़ा और आगे बढ़ने पर अनन्तपुर जिले में ग्रेनाईट की चट्टानों और कड़ी धूप के बीच इस इलाके के किसान दिखाई दिए, जो पत्थरों को हटाने या तोड़ने में लगे थे ताकि अपने लिये कुछ ज़मीन हासिल करके मूंगफली उगा सकें। यही एक ऐसी फसल है जिसमें कम पानी लगता है और इसलिए यहां 85% रकबे में यही बोया जाता है।
कम वर्षा वाले ज़ोन में स्थित अनन्तपुर जिला आंध्रप्रदेश के रायलसीमा इलाके में स्थित है। यह जिला भारत के सबसे अधिक सूखा प्रभावित जिलों में दूसरे स्थान पर है। पिछले दस साल अर्थात 1998 से 2008 तक के दौरान आठ वर्ष तक जिले के सभी 63 विकासखण्डों मंे लगातार सूखा पड़ा है। (स्रोत – आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा जारी सांख्यिकी आंकड़े 2007-08)
वर्षा के लगातार रूठने, अनियमित बने रहने और लाल भुरभुरी मिट्टी के कारण भूजल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। जिले के कई इलाकों में यह 300 फ़ुट तक पहुँच चुका है। चूंकि जिले का सिर्फ़ 12 प्रतिशत इलाका ही सिंचित भूमि सीमा में आ पाया है, अतः किसानों को अपनी फ़सल की सिंचाई के लिए कर्ज पर निर्भर रहना पड़ता है। सिंगनामाला ब्लॉक के चिन्नाजलालापुरम गाँव के किसान वीरा नारायणा और उनकी पत्नी ने रुआसे होकर कहा “एक ठीक-ठाक बोरिंग करवाने का खर्च लगभग 60,000 रुपये तक आता है… कहाँ से लायें इतना पैसा?”।
आत्माकुर गाँव की कन्दुला लक्ष्मीदेवी (64) दुखी होकर कहती हैं, “मेरे पति अनपढ़ थे, जिस समय मेरे पति कुल्लाया रेड्डी की मौत हुई, वे 65 वर्ष के थे। हमारे पास 10 एकड़ सिंचित तथा 20 एकड़ सूखी ज़मीन आत्माकुर गाँव में थी। सूखी भूमि की सिंचाई के लिये हमारे खेत में दो कुंए थे जो भले ही गर्मी में सूख जाते थे, लेकिन मानसून आते ही उनमें भरपूर पानी आ जाता था। सन् 2000 तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे पानी 40 फ़ुट से भी नीचे जाने लगा, 2004 के बाद दोनों कुंए पूरी तरह सूख गये। परेशान रेड्डी ने 2005 में अपने 20 एकड़ खेत में लगभग 17 कुंए खुदवाये लेकिन किसी में भी पानी नहीं निकला, अन्ततः 18वें कुंए में पानी निकला, लेकिन पानी की इस मरीचिका के पीछे भागते-भागते कुल्लाया के ऊपर दस लाख रुपये का कर्ज़ हो गया था, जिसमें से आधा पैसा बैंकों का ॠण था, और बाकी स्थानीय सूदखोर महाजनों का जो 2 प्रतिशत प्रति माह की दर से ब्याज़ वसूलते थे। जो किसान एक बार बैंक का कर्ज नहीं चुका पाते थे, उंहें दोबारा कर्ज भी नहीं मिलता, इसलिये मजबूरी में उन्हें निजी सूदखोरों से ही पैसा उधार लेना पड़ता था, जो बैंकों के मुकाबले तीन गुना ब्याज लेते हैं। रेड्डी का गुजर बसर अच्छी 10 एकड़ जमीन के भरोसे ही था, जिस पर पपीते, मूंगफ़ली और धान की फसल लगाई गई थी। 2006 में मानसून पूर्व की आंधी और तूफ़ान की वजह से खड़ी फ़सल बर्बाद हो गई और उसके बाद बारिश एकदम गायब हो गई। इस वर्ष अनन्तपुर जिले के आत्माकुर ब्लॉक में सिर्फ़ 316 मिमी वर्षा ही हुई।
इसके बाद सूदखोरों ने रोज़ाना घर के चक्कर लगाना शुरु कर दिया, कर्ज़ा न चुकाने की स्थिति में कुल्लाया के बैल, गाड़ी खोल ले जाने और मकान पर कब्जा करने की धमकियाँ देने लगे…”। लक्ष्मीबाई के बताया, “चूंकि कुल्लाया की गाँव में काफ़ी इज़्ज़त थी, इसलिये यह उसके लिये बेहद अपमानजनक था…। एक सुबह अचानक उन्होंने मोनोप्रोटोफ़ॉस पी लिया, यह कीटनाशक अमेरिका में प्रतिबंधित है लेकिन भारत सरकार ने इस उत्पाद पर सब्सिडी दे रखी है…”। हालांकि बाद में उनके दोनों बेटों ने महाजनों का कर्ज़ चुका दिया लेकिन लक्ष्मीबाई आज भी सोचती हैं कि काश उनके पति ने थोड़ी हिम्मत और हौसला दिखाया होता तो शायद आज वे जीवित होते।
आंध्रप्रदेश में अब किसान अपना आत्मविश्वास खो चुके हैं। “खेती अब एक जुआ बन गई है…” बी कृष्णप्पा (55) कहते हैं। वे खुद भी खेती-किसानी छोड़कर पर्यावरण के लिये काम करने वाले एक NGO अनंत पर्यावरणा परिरक्षणा समिति (APPS) के सामाजिक कार्यकर्ता बन चुके हैं।
कुल्लाया का मामला भारत में भूमि के बढ़ते रेगिस्तानीकरण का एक उदाहरण है। इस रेगिस्तानीकरण के बारे में यूनाइटेड नेशन्स कन्वेन्शन टू कम्बैट डिज़र्टिफ़िकेशन (UNCCD) में एक बार चेताया जा चुका है। इसकी परिभाषा के अनुसार “मानव की पर्यावरण विरोधी गतिविधियों तथा मौसम के लगातार बदलते मिजाज़ के कारण धीरे-धीरे भूमि का क्षरण होता जाता है और ज़मीन रेतीली और भुरभुरी हो जाती है”। अनन्तपुर के संभागीय वन अधिकारी बी. चन्द्रशेखर कहते हैं कि भूमि का रेगिस्तान में परिवर्तित होना लगातार जारी है, क्योंकि कनेकल और बोम्मनहाल ब्लॉक्स की तरफ़ के 602 एकड़ में फ़ैले रेतीले टीले गर्मी के मौसम में हवा के साथ खिसकते-खिसकते आगे बढ़ते जा रहे हैं, और अच्छी-खासी सिंचित भूमि को भी बरबाद कर रहे हैं।
दुर्भाग्य से अनन्तपुर जिले ने इसके पूर्व शासकों द्वारा इलाके को दी गई सौगात को भी खो दिया है। सन् 900 से 1500 के बीच यहाँ के शासकों ने लगभग 300 सिंचाई लायक छोटे-छोटे तालाब बनाये थे, इन तालाबों से किसी भी मौसम परिवर्तन के दौरान कैसे भी सूखे से निपटा जा सकता था। इस इलाके में इन 300 तालाबों के अलावा 2000 अन्य छोटे तालाबनुमा पोखर भी थे जिसे स्थानीय भाषा में “कुण्टा” कहा जाता है। प्रत्येक मानसून में ये लबालब भर जाते थे और 1000 एकड़ कम से कम एक या दो फ़सल लायक पानी दे जाते थे। यह उत्तम सिंचाई प्रणाली स्थानीय स्तर पर उगाई जाने वाली चावल और बाजरा के लिये लाभकारी सिद्ध होती थी, लेकिन जंगलों की बेतहाशा कटाई और तालाबों में गाद-मिट्टी जमा होते जाने से धीरे-धीरे ये तालाब सूखते चले गये और अब तो लगभग समाप्त हो गये हैं। इस वजह से भूमि का क्षरण तेज हो गया तथा भूजल का स्तर तेजी से नीचे चला गया।
जिले में सिंचाई क्षेत्र सिर्फ़ डेढ़ लाख हेक्टेयर में है। इसमें से सिर्फ़ 3.5 प्रतिशत क्षेत्र ही तालाब से सिंचित है, जबकि 68.7 प्रतिशत इलाका पूरी तरह से बोरवेल पर निर्भर है, किसान धरती से ऐसे पानी खींच रहे हैं, मानो भविष्य में इसकी ज़रूरत ही न हो। ऊपर से आंध्रप्रदेश सरकार की किसानों को मुफ़्त बिजली तथा “टपक सिंचाई” (Drip Irrigation) के लिये 90 प्रतिशत सबसिडी ने इस मामले को और भी मुश्किल बना दिया है। किसान को प्रति हेक्टेयर का खर्च 12,500 रुपये बैठता है, जो कि बोरवेल जितना ही महंगा है, लेकिन इस योजना की वजह से गरीब, सीमांत और मध्यम किसान खेती से लगभग बाहर ही धकेल दिये गये हैं।
सेट्टीपल्ली गाँव की नदिमामिदम्मा (55) इसका साक्षात उदाहरण हैं। उनका 33 वर्षीय पुत्र हनुमन्थु (जो कि 6 बेटों में सबसे बड़ा था) उसने कर्ज़ न चुका पाने की वजह से इस वर्ष अगस्त में आत्महत्या कर ली। हनुमन्तु की विधवा चन्द्रम्मा उसकी तीन माह की बच्ची के साथ काम पर जा नहीं सकती, इसलिये नदिमामिदम्मा को कड़ी मेहनत करना पड़ती है और इस उम्र में पास के एक धनी किसान के यहाँ 50 किलो मूंगफ़ली बीनने-तोड़ने के एवज़ में उसे दिन भर के सिर्फ़ 15 रुपये मजदूरी मिलती है। हालांकि उसे बेटे की मौत के मुआवज़े के रूप में “आपात बन्धु योजना” के तहत 50,000 रुपये मिल सकते हैं लेकिन इसके लिये उसे तहसील के दफ़्तर में लगातार चक्कर काटने पड़ेंगे, और जब यह 50,000 रुपये उसे मिलेंगे तब भी उसका आधा कर्ज़ ही चुकता हो पायेगा, बाकी के कर्ज़ और ब्याज़ के लिये तो उसे आजीवन काम करना ही पड़ेगा।
ग्रामीण पर्यावरण विकास सोसायटी की मुख्य पदाधिकारी सी. भानुजा (46), जो कि मुख्य रूप से तस्करी की जा रही लड़कियों को बचाने का काम करती हैं, बताती हैं कि हाल के वर्षों में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और पणजी के “रेडलाईट” इलाकों में आंध्रप्रदेश की लड़कियों में अचानक वृद्धि हुई है। सबसे चिन्ताजनक बात तो यह है कि पहले ये लड़कियाँ आंध्र के तटीय इलाकों से आती थीं, लेकिन अब अनन्तपुर के कादिरी ब्लॉक से लम्बाडा जनजाति और मुस्लिम समुदाय की लड़कियाँ भी इस “मानव तस्करी” मे शामिल हो रही हैं।
अनन्तपुर जिले के बढ़ते रेगिस्तानीकरण और सूखे की भयावहता का यह एक अमानवीय चेहरा है, जिससे सरकार, संस्थाओं और जनता को मिलजुलकर संघर्ष करने की आवश्यकता है।