जल संचयन (संग्रहण) के तरीके
12 Oct 2018
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rainwater harvesting
जल ‘जीवन का अमृत’ है। हमें वर्तमान व भावी पीढ़ियों के लिये जल संरक्षण की आवश्यकता है। इस पाठ के माध्यम से आप जल संरक्षण की आवश्यकता तथा जल संग्रहण की विभिन्न विधियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।

उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः

i. जल संरक्षण की आवश्यकता व महत्ता का वर्णन कर पाएँगे;
ii. जल संचयन (संग्रहण) की आवश्यकता का वर्णन कर पाएँगे;
iii. पारंपरिक जल संचयन (संग्रहण) की विभिन्न विधियों का विवरण दे पाएँगे तथा उनका वर्गीकरण कर सकेंगे;
iv. आधुनिक जल संचयन के विभिन्न तरीकों का विवरण व वर्गीकरण कर पाएँगे।

30.1 जल संरक्षण की आवश्यकता

जल, जीवन के लिये सबसे अहम प्राकृतिक संसाधन है। आगामी दशकों में यह विश्व के कई क्षेत्रों में एक गंभीर अभाव की स्थिति में चला जायेगा। यद्यपि जल पृथ्वी में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला पदार्थ है, फिर भी यह समान रूप से वितरित नहीं है। अक्षांश में परिवर्तन, वर्षा के तरीके (पैटर्न), स्थलाकृति इत्यादि इसकी उपलब्धता को प्रभावित करते हैं।

जल एक ऐसी संपदा है जिसका किसी तकनीकी प्रक्रिया के माध्यम से, जब जी चाहे, तब उत्पादन या संचयन नहीं हो सकता। मूल रूप से, पृथ्वी पर कुल मिलाकर, अलवण जल और समुद्री जल की मात्रा स्थायी रूप से तय है।

जो अलवण जल हमारे जीवन के लिये इतना जरूरी है, उसकी मात्रा पृथ्वी पर पाए जाने वाले पानी की कुल मात्रा की केवल 2.7% है। इस दो प्रतिशत का लगभग सारा भाग बर्फ की टोपियों, हिमनदियों (ग्लेशियरों) और बादलों के रूप में पाया जाता है। अलवण जल का शेष बचा हुआ थोड़ा सा भाग झीलों और भूमिगत स्रोतों में सदियों से एकत्रित है। आश्चर्य की बात तो यह है कि समुद्रों में पाया जाने वाला खारा पानी, जो कि इस पृथ्वी पर अलवण जल का परम स्रोत है। वर्षा का लगभग 85% जल प्रत्यक्ष रूप से समुद्र में गिरता है और भूमि में कभी नहीं पहुँच पाता है। वर्षा का जो शेष भाग भूमि पर गिरता है, वह झीलों और कुओं को भर देता है और नदियों के प्रवाह को बढ़ाता रहता है। समुद्री जल के प्रत्येक 50,000 ग्राम के सामने सिर्फ एक ग्राम अलवण जल मानव जाति को उपलब्ध है। इस कारण जल एक दुर्लभ और अनमोल संसाधन के रूप में सामने आता है।

भारत में स्थिति अभी भी अत्यंत खराब है। यद्यपि भारत विश्व के सबसे आर्द्र देशों में से एक है, इसमें जल का वितरण समय और स्थान के आधार पर बहुत असमान है। हमारे देश में औसतन 1150 मिमी वार्षिक वर्षा होती है, जो यह संसार में किसी भी समान आकार के देश के मुकाबले में सबसे अधिक है। परन्तु इस बड़ी मात्रा की वर्षा का वितरण असमान है। उदाहरण के लिये एक वर्ष में औसतन वर्षा के दिनों की संख्या केवल 40 है। अतः वर्ष का शेष लम्बा भाग सूखा रहता है। इसके अलावा, जहाँ उत्तर-पूर्व के कुछ क्षेत्रों में वर्षा तेरह मीटर तक होती है, वहीं राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में 20 से.मी. से अधिक वर्षा नहीं होती। वर्षा के इस असमान वितरण के कारण, देश के कई भागों में पानी का भीषण अभाव है।

बढ़ती हुई घरेलू, औद्योगिक और कृषि से संबंधित कार्यों की मांग की पूर्ति के कारण, पानी की उपलब्ध मात्रा में कमी हो रही है और यह स्थिति भविष्य में और गंभीर हो सकती है। ऊपर से, पिछले कुछ दशकों में देश में सिंचाई का विस्तार करने का प्रयास किया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि हमारी जल संपदा का अत्यधिक दोहन हुआ है। हमारे बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण ने पानी की मांग को बढ़ा दिया है। उपरोक्त दिये गये इन कारणों की वजह से देश के कई भागों में जल का भारी अभाव हो गया है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि हम जल को संरक्षित रखें और उसका दुरुपयोग होने से बचायें। हमारी बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये हमें अधिक खाद्य सामग्री की आवश्यकता है। खाद्य-उत्पादन को बढ़ाने के लिये, हमें सिंचाई के लिये, और अधिक जल की आवश्यकता है। अतः पानी के संरक्षण की तत्काल जरूरत है।

प्राचीन काल में, जल को एक अनमोल संपदा के रूप में देखा और समझा जाता था। वास्तव में हर प्राचीन संस्कृति पानी को पवित्र संसाधन के रूप में देखती थी। परन्तु बीसवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के उदय और उसके फलस्वरूप पश्चिमी भौतिकवाद के आगमन ने प्राकृतिक साधनों को देखने का दृष्टिकोण ही गैर पारंपरिक बना दिया है।

ठीक उसी प्रकार जैसे बीसवीं सदी तेल के चारों ओर घूमती थी, वैसी ही इक्कीसवीं सदी स्वच्छ और पेयजल के मुद्दों के ऊपर फोकस करेगी। पानी और पर्यावरणीय संरक्षण से संबंधित मुद्दों का हल ढूंढने की दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण कदम लोगों के दृष्टिकोण और आदतों में परिवर्तन लाना होगा। यदि दुनिया भर के लोग ही पानी को एक ऐसे सस्ते साधन के रूप में देखेंगे, जिसको जितना ज्यादा बर्बाद किया जा सकता हो तब उस स्थिति में, संसार की बेहतरीन नीतियाँ और तकनीकें भी पानी के अभाव को कम नहीं कर सकतीं।

भारत की बढ़ती जनसंख्या की वर्तमान दर को देखते हुए, और उपलब्ध जल संपदा की बढ़ती मांग की पूर्ति के प्रयास में भारत, आगामी पच्चीस वर्षों में सबसे अधिक प्यासे लोगों की जनसंख्या के रूप में एक नकारात्मक छवि बनाने में सफल हो जाएगा। ऐसी स्थिति को रोका नहीं जा सकता। यदि उपलब्ध संसाधनों का ध्यानपूर्वक, बुद्धिमत्ता के साथ प्रयोग नहीं होता है। शहरीकरण, तेज गति से होता औद्योगीकरण और एक लगातार बढ़ती जनसंख्या ने अधिकतर सतही जलाशयों को प्रदूषित करके, उनको मानवीय प्रयोग के लिये अनुपयुक्त बना दिया है। बढ़ती हुई जरूरतों के साथ-साथ, इनकी भूमिगत जल पर निर्भरता बढ़ गयी है। असंख्य बोर-छिद्रों द्वारा भूमिगत जल के अत्यधिक दोहन, जल तालिका में गिरावट कर दी है। ऐसा अनुमान है कि सन 2050 तक भारत की आधी जनसंख्या शहरी होगी और यह पानी के गंभीर अभाव की समस्या को झेलेगी। इसके अतिरिक्त, जल के वितरण में गंभीर असमानताएँ हैं।

दुनियाभर में पानी की कमी निम्नलिखित कारणों से बढ़ रही हैः-

i. सूखे
ii. सिंचाई की बढ़ती मांग
iii. औद्योगिक मांग
iv. प्रदूषण, जल संसाधनों के प्रयोग में कमी, और
v. जल की व्यर्थ बर्बादी और गैर जिम्मेदाराना रवैया।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, हमारे देश में सूखे का मौसम का काल काफी लंबा होता है। सूखे मौसम के दौरान हमारी पानी की मांगों को झीलों, भूमिगत जल व जलाशयों में संग्रहित पानी द्वारा पूरी होती है। पानी की लगातार बढ़ती मांग के साथ-साथ, पानी के ये स्रोत अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं, अतः उन प्रयासों पर जोर देने की आवश्यकता है जो कि सूखे के मौसम में, अधिक से अधिक वर्षाजल को संग्रहित कर सके। स्थानीय स्तर पर वर्षा के पानी का संचयन या संग्रहण को या तो जलाशयों, टैंकों या झीलों में जल को संग्रहित करके रखने के माध्यम से हो सकता है अथवा भूमिगत जल के पुनर्भरण द्वारा किया जा सकता है। ये पानी की आपूर्ति बढ़ाने के सरल उपाय हैं। आगामी भागों में वर्षा के पानी के संग्रहण की कुछ मुख्य विधियाें का वर्णन किया गया है।

पाठगत प्रश्न 30.1

1. यद्यपि भारत संसार का सबसे आर्द्र देश है, फिर भी उसके कुछ भागों में पानी की भीषण कमी है। इस पानी की कमी का क्या कारण है? (एक कारण)
2. भारत में औसतन सालाना वर्षा के दिनों की कितनी संख्या है?
3. ‘‘जल संचयन जल संरक्षण की दिशा में एक बुद्धिमत्ता से भरा कदम है।’’ कारणों सहित इसकी पुष्टि कीजिए।
4. विश्व में पानी के अभाव के पीछे कोई तीन कारण बताइये।

30.2 जल संग्रहण की पारंपरिक विधियाँ

यद्यपि जल संग्रहण (Water harvesting) आजकल विश्व भर में एक प्रकार का पुनर्जागरण कर रहा है। उसका इतिहास बाइबिल के समय तक जाता है। जल संचयन के उपकरण आज से चार हजार वर्ष पूर्व फिलिस्तीन और ग्रीस में मौजूद थे। प्राचीन रोम में प्रत्येक घरों में पानी संग्रहित करने के लिये हौज निर्मित होते थे और शहर की पानी की नालियों को घरों के आंगनों को जोड़ने की व्यवस्था थी। 3000 ई.पू. वर्ष के आस-पास, बलूचिस्तान और कच्छ के कृषक समाज पानी को संग्रहित करके उसका उपयोग सिंचाई के लिये करते थे।

हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथ और काव्य रचनाएँ उस समय में प्रचलित जल संग्रहण और संरक्षण प्रणालियों का अच्छा दृश्य प्रकट कर देती है। बढ़ती हुई जनसंख्या, बढ़ता औद्योगीकरण और विस्तार करती कृषि ने अब पानी की मांग को और भी बढ़ा दिया है। जल-संग्रहण के प्रयास बांधों, जलाशयों और कुओं के खोदने और निर्माण आदि के द्वारा किया जा रहा है। कुछ देशों ने जल का पुनरावर्तन और उसमें से नमक दूर करने की क्रिया (Desalinate) पर जोर दिया है। जल संरक्षण अब दैनिक दिनचर्या का एक आवश्यक अंग बन गया है। जल संग्रहण के माध्यम से भूमिगत जल के पुनर्भरण का विचार लगभग अब हर समाज में महत्ता हासिल कर रहा है।

वनों में पानी धीरे-धीरे जमीन में रिस जाता है क्योंकि वन के पेड़-पौधे वर्षा को तितर-बितर कर देते हैं। तब यह भूमिगत जल कुओं, झीलों और नदियों में जाता है। वनों के संरक्षण का दूसरा अर्थ है जल का संग्रहण के क्षेत्रों में जल का संरक्षण करना। प्राचीन भारत में लोगों का मत था कि वन ‘‘नदियों की माताएँ’’ हैं एवं इसीलिये वे इन जलस्रोतों की आराधना करते थे।

30.2.1 प्राचीन भारत में जल संग्रहण की विधियाँ

पानी का संग्रहण भारत में बहुत प्राचीन काल से होता आ रहा है, हमारे पूर्वजों ने इस जल प्रबंधन की कला में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। विभिन्न संस्कृतियों की आवश्यकताओं के हिसाब से कई प्रकार की उपयुक्त जल-संचयन प्रणालियों का निर्माण किया गया था। लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व, सिंधु नदी के किनारे पनपती सिंधु घाटी सभ्यता एवं अन्य भागों जैसे भारत के पश्चिमी एवं उत्तरी भागों ने पानी की आपूर्ति की अत्यन्त सुलभ व्यवस्था एवं वाहित मल प्रणाली दुनिया को दी थी। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा नगरों की सड़कों के नीचे जिस विधि से नालियों को ढका गया था, उससे यह स्पष्ट होता है कि इस संस्कृति के लोग साफ-सफाई और स्वच्छता से कितने परिचित थे।

इसका एक और बहुत अच्छा उदाहरण ढोलावीरास नामक एक सुनियोजित नगर है जो गुजरात के रण क्षेत्र में खादीर बेट नामक एक उथले पठार पर स्थित है। सबसे प्राचीन जल-संचयन व्यवस्थाओं में से एक पश्चिमी घाट के निकट नानेघाट के निकट पाया जाता है, जो कि पुणे से 130 कि.मी. की दूरी पर है। इन पहाड़ों के पत्थरों में कई जलाशय खोदे गये थे, जो कि इस प्राचीन व्यापार के मार्ग पर यात्रा करते समय व्यापारियों को पेयजल प्रदान करने के काम आते थे। हर क्षेत्र में प्रत्येक किले की अपनी जल संग्रहण व संचयन की व्यवस्था होती थी, जिनको हौजों, तालाबों और कुओं के रूप मे पत्थर तोड़ कर बनाये जाते थे। ये अभी तक उपयोग में हैं। रायगढ़ जैसे कई किलों में पानी की आपूर्ति करने के जलाशय थे।

1. प्राचीन समय में, पश्चिमी राजस्थान के कुछ भागों में कई घर ऐसे बनाये जाते थे जिनमें प्रत्येक घर की छत पर जल-संग्रहण व्यवस्था होती थी। इन छतों से वर्षाजल को भूमिगत टैंकों में भेजा जाता था। यह व्यवस्था अभी भी सब किलों में, महलों और इस क्षेत्र के घरों में देखी जा सकती है।

2. भूमिगत पकी (सेंकी) हुई मिट्टी की पाइपें और नहरों का प्रयोग पानी के प्रवाह को नियमित रखने और दूर के स्थानों तक पहुँचाने के लिये होता था। ऐसी पाइपें अभी भी मध्य प्रदेश के बुरहानपुर, कर्नाटक के गोलकुंडा और बीजापुर एवं महाराष्ट्र के औरंगाबाद में प्रयोग में लायी जाती हैं।

3. वे वर्षाजल का सीधे रूप से संग्रहण करते थे। घर की छतों से, पानी को संग्रहित करके, अपने-अपने आँगनों में बने जलाशयों में बचा कर रखते थे। इसके अतिरिक्त वे वर्षा के पानी को खुले मैदानों से एकत्रित करके कृत्रिम कुओं में संग्रहित करके रखते थे।

4. बाढ़ की स्थिति में आई नदियों व झरनों के जल को एकत्रित करके, वे मानसून के व्यर्थ जाते पानी का संचयन करते थे और उसे गैर मानसूनी मौसम के कई प्रकार के जलाशयों में संग्रहित करते थे।

पाठगत प्रश्न 30.2

1. किन्हीं दो उदाहरणों को देकर यह सिद्ध कीजिए कि प्राचीन भारत में जल संचयन की प्रणाली मौजूद थी।
2. भूमिगत पानी को पुनर्भरण करने में वन किस प्रकार सहायक थे?
3. इस बात को बताइये कि प्राचीन समय में पश्चिमी राजस्थान के घरों में किस प्रकार जल संरक्षण होता था।

30.3 जल संग्रहण की आधुनिक विधियां
वर्षाजल के संचयन की तकनीकें :
वर्षाजल के संचयन की दो मुख्य तकनीकें हैं:
1. भूमि की सतह पर भविष्य में प्रयोग के उद्देश्य से किया गया वर्षा जल का संग्रहण।
2. भूमिगत जल का ही पुनःभरण करना।

वर्षा के पानी को सतह पर ही संग्रहित कर लेना एक पारंपरिक तकनीक है और इसके लिये टैंकों, तालाबों, चैक-बांध, बैयरो जैसे जल कोषों का प्रयोग किया जाता था। भूमिगत जल का पुनःभरण वर्षा के पानी के संचयन की एक नयी संकल्पना है और प्रायः इसके लिये निम्नलिखित प्रकार के संरचनाओं (ढांचों) का प्रयोग किया जाता हैः

1. गड्ढेः पुनःभरणगड्ढे या पिट्स को उथले जलभृत के पुनर्भरण के लिये बनाया जाता है।
2. जलभृत (Aqifer) : यह रेत, पथरीली या चट्टानों की बनी मिट्टी की छिद्रनीय परतें हैं जिनसे प्रचुर मात्रा में जल को उपयोग करने के लिये निकाला जा सकता है। इनका निर्माण एक से दो मीटर की चौड़ाई में और एक से 1.5 मीटर की गहराई में किया जाता है और जिनको रेत, मिट्टी, कंकड़ों से भी भर दिया जाता है।
3. खाइयाँ (Trenches) : इनका तब निर्माण होता है, जब पारगम्य (भेद्य) चट्टानें उथली गहराई पर उपलब्ध होती है। खाई 0.5 से 1 मीटर चौड़ी, 1 से 1.5 मीटर गहरी और, 10 से 20 मीटर की लम्बी हो सकती है। इसकी चौड़ाई, लंबाई और गहराई जल की उपलब्धता पर निर्भर है। इनको पाटने के लिये फिल्टर सामग्री का प्रयोग होता है।
4. खुदे हुए कुएँ : मौजूदा कुओं का पुनःभरण ढाँचे के रूप में उपयोग किया जा सकता है। यह आवश्यक है कि पानी को कुएँ में डालने से पहले उसको फिल्टर मीडिया (छानने वाले यंत्रों) से गुजारना चाहिये।
5. हाथ से संचलित पंप (हैंडपंप) : यदि जल की उपलब्धता सीमित हो, तो मौजूदा हैंडपंपों को उथले/गहरे जलभृतों को पुनर्भरित करने के लिये प्रयोग में लाया जा सकता है। जल को छानने के यंत्रों द्वारा प्रवाहित करना जरूरी है। इससे पुनःभरण के काम आने वाले कुओं में अवरोधन नहीं होगा।
6. पुनःभरण कुएँ : अधिक गहरे जलकोषों के पुनःभरण के लिये 100 से 300 मि. मी. व्यास के पुनःभरण कुओं का प्रायः निर्माण होता है। इनमें जल को फिल्टर उपकरणों से अवरोधन को रोकने की दृष्टि से पारित किया जाता है।
7. पुनःभरण शाफ्टः उथले जलकोषों के पुनःभरण के लिये इनका निर्माण होता है। (ये मिट्टी की गीली सतह से नीचे स्थित है)। इन पुनःभरण शाफ्टों का 0.5 से 3 मीटर का व्यास है और ये 10 से 25 मीटर गहराई के हैं। ये शाफ्ट पत्थरों और मोटी रेत से भरा होता है।
8. बोर कुओं के पार्श्व शाफ्टः उथले एवं गहरे जलभृतों के पुनःभरण के उद्देश्य से, पानी की उपलब्धता से संबंधित, 1.5 मीटर से 2 मीटर चौड़े और 10 से 30 मीटर लम्बे पार्श्व शाफ्टों का एक या दो बोर कुओं के संग निर्माण होता है। पार्श्व शाफ्ट के पीछे पत्थर और मोटी रेत बिछी होती है।

30.3.1 तत्काल प्रयोग न होने वाले जल का मौजूदा सतही जलाशयों में परिवर्तन और उसके लाभ

शहरों के अंदर और आस-पास होती निर्माण क्रियाओं के कारणवश जलाशय लगभग सूख गये हैं तथा इनका घरों के प्लाटों के रूप में परिवर्तन हो रहा है। तत्काल प्रयोग में न आने वाले पानी को इन टैंकों व जलाशयों से मुक्त प्रवाह हो सकता है, जिसको जल-संचयन व्यवस्था के रूप में ढाला जा सकता है। इस पानी को निकटतम जलाशयों या टैंकों में परिवर्तित किया जा सकता है, जो कि अतिरिक्त पुनःभरण का निर्माण करता है।

शहरी क्षेत्रों में घरों, फुटपाथों और सड़कों के निर्माण ने खुली मिट्टी की मात्रा इतनी कम कर दी है कि पानी के रिस जाने की संभावना ही बहुत कम हो गई है। भारत के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में, बाढ़ का पानी शीघ्रता से नदियों में समा जाता है जो वर्षा रुकने के बाद बहुत जल्दी सूख जाती है। यदि इस पानी को संग्रहित करके भूमि को सींचने दिया जाये, तो वह भूमिगत आपूर्ति का पुनःभरण कर देगी।

यह शहरी क्षेत्रों में विशेषकर- जल संरक्षण की एक अत्यन्त लोकप्रिय विधि बन जाती है। वर्षाजल का संचयन मूल रूप से इमारत की छत पर वर्षा के पानी का संग्रहण और फिर आगामी प्रयोग के लिये उसका भूमिगत संग्रहण और संरक्षण है। ऐसा करना न केवल भूमिगत जल की कमी को रोक देता है, बल्कि वह घटती जल तालिका के स्तर को बढ़ा देता है। इस तरह पानी की आपूर्ति में सहायक सिद्ध होता है। वर्षा के जल का संचयन और उसका कृत्रिम पुनःभरणअत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दों के रूप में सामने आ रहे हैं। यह आवश्यक है कि वर्षा के मौसम में सतही पानी का संरक्षण किया जाये व भूमिगत जल के स्तर में कमी होने पर रोक लगाई जाये। समुद्री पानी के तटीय क्षेत्रों में प्रवेश को भी रोकना चाहिये अर्थात एक सीमा से अधिक जब समुद्री जल तटों की ओर आ जाता है, तब यह तटीय भूमिगत जल की संपदा को खारा बनाकर खराब कर देता है।

आप सभी को एक जल संचयन व्यवस्था के लिये पानी की आवश्यकता है और उसके संग्रहण के लिये एक स्थल की। प्रायः वर्षाजल को इमारतों की छतों पर संग्रहित किया जाता है, जहाँ या तो उसका संग्रहण हो सके या उसका तत्काल प्रयोग हो सके। इस सतह से आप व्यर्थ जाते जल को पौधों, पेड़ों, बागों या जलभृतों तक पहुँचाकर कर सकते हैं।

भूमिगत जल के पुनःभरण की महत्ता को पहचान कर, भारत सरकार, कई राज्य सरकारें, गैर-सरकारी संगठन व अन्य संस्थान देश में वर्षा के जल का संचयन करने को प्रोत्साहन दे रहे हैं। कई सरकारी कार्यालयों को यह निर्देश है कि दिल्ली में और भारत के कुछ अन्य शहरों में जल संचयन करें।

नगर योजनाकर्ता और शहरी अधिकारीगण ऐसे अधिनियमों को पारित कर रहे हैं, जो सब नई इमारतों में जल संचयन को अनिवार्य कर देंगे। यदि एक नयी इमारत में वर्षा के पानी के संचयन की व्यवस्था नहीं है, तो उसे कोई पानी या सीवेज का कनेक्शन नहीं दिया जायेगा। भूमिगत जल के स्तर की बढ़ोतरी के लिये सब अन्य शहरों में ऐसे नियमों के लागूकरण की आवश्यकता है।

वर्षाजल के संचयन के लाभ कुछ इस प्रकार हैं :

i. जल की उपलब्धता में वृद्धि।
ii. घटती हुई जल तालिका पर नियंत्रण।
iii. यह पर्यावरण के पक्ष (मित्र) में हैं।
iv. फ्लोराइड, नाइट्रेट और खारेपन के तनुकरण के माध्यम से भूमिगत जल के स्तर में बढ़ोत्तरी।
v. विशेषकर शहरी क्षेत्रों में भूमि के कटाव और बाढ़ों से बचाव।

वर्षाजल का संचयन- एक सफलतम की कहानीः

राजस्थान के रूपारेल नदी के आस-पास का क्षेत्र जल संचयन का एक सटीक उदाहरण है। यद्यपि इस स्थान पर बहुत कम वर्षा होती है, फिर भी संतुलित संचालन और संरक्षण की प्रणालियों के कारण यहाँ बड़े पैमाने पर वनों के काटे जाने पर और कृषि-क्रियाओं के कारणवश नदी के जल स्तर में कमी होने लगी और 1980 के दशक के दौरान सूखे-जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी। स्थानीय जनता के निर्देशन में क्षेत्र की महिलाओं को जोहड़ (गोलाकार तालाब) और बांध बनाने के लिये प्रेरित किया गया। जिससे वर्षाजल का संग्रहण हो सके। धीरे-

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