कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन (भाग-2)

प्राकृतिक संसाधन किसी देश की अमूल्य निधि होते हैं, परंतु उन्हें गतिशील बनाने, जीवन देने और उपयोगी बनाने का दायित्व देश की मानव शक्ति पर ही होता है, इस दृष्टि से देश की जनसंख्या उसके आर्थिक विकास एवं समृद्धि का आधार स्तंभ होती है। जनसंख्या को मानवीय पूँजी कहना कदाचित अनुचित न होगा। विकसित देशों की वर्तमान प्रगति, समृद्धि व संपन्नता की पृष्ठभूमि में वहाँ की मानव शक्ति ही है जिसने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और शासन द्वारा उन्हें अपनी समृद्धि का अंग बना लिया है, परंतु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जनसंख्या देश की मानवीय पूँजी की श्रेणी में तभी आ सकती है जबकि वह शिक्षित हो, कुशल हो, दूरदर्शी हो और उसकी उत्पादकता उच्च कोटि की हो। कदाचित यदि ऐसा नहीं होता है तो मानवीय संसाधन के रूप में वह वरदान के स्थान पर एक अभिशाप से परिणित हो जायेगी क्योंकि उत्पादन कार्यों में उसका विनियोजन संभव नहीं हो पायेगा। स्पष्ट है कि मानवीय शक्ति किसी देश के निवासियों की संख्या पर नहीं वरन गुणों पर निर्भर करती है।

साधन सेवाओं के रूप में मानवीय संसाधन श्रम तथा उद्यमी को सेवाएँ प्रदान करते हैं, यदि मानवीय संसाधन उच्च कोटि के हैं, तो आर्थिक विकास की गति तेज हो जाती है। अत: आर्थिक विकास की दर के निर्धारण में मानवीय संसाधनों की गुणात्मक श्रेष्ठता का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। उपयोग की इकाई के रूप में मानवीय संसाधन राष्ट्रीय उत्पाद के लिये मांग का निर्माण करते हैं। यदि मनुष्यों की संख्या राष्ट्रीय उत्पादन की तुलना में अधिक है तो जनसंख्या संबंधी अनेक समस्यायें उठ खड़ी होती हैं, जैसे बढ़ती जनसंख्या के कारण देश में खाद्यान्न की मांग बढ़ जाती है। इससे खाद्यान्नों की स्वल्पता की समस्या उत्पन्न हो जाती है, इसके अतिरिक्त बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण राष्ट्रीय उत्पादन के एक बड़े भाग का उपयोग, उपभोग कार्यों में कर लिया जाता है और निवेश कार्यों के लिये बहुत कम उत्पादन शेष बच पाता है इससे पूँजी निर्माण की गति धीमी पड़ जाती है, साथ ही बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न करती है जिसके आर्थिक एवं सामाजिक परिणाम बहुत दुष्कर होते हैं। सर्वाधिक महत्त्व एवं चिंता की बात यह है कि हमारे देश की जनसंख्या निरंतर तेज गति से बढ़ रही है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण जीवन को गुणात्मक श्रेष्ठता और उन्नत बनाने के सभी प्रयास असफल सिद्ध हुए हैं। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ पूँजी का अभाव है और मानवीय संसाधन की अधिकता है वहाँ जनसंख्या परिसंपत्ति के बजाय दायित्व बन गई है।

आर्थिक विकास का ऐतिहासिक अनुभव और आर्थिक विकास की सैद्धांतिक व्याख्या यह स्पष्ट करती है कि आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में प्रत्येक अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं के विकास अनुभव इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के राष्ट्रीय उत्पाद, रोजगार और निर्यात की संरचना में कृषि क्षेत्र का योगदान उद्योग और सेवा क्षेत्र की तुलना में अधिक होता है। ऐसी स्थिति में कृषि का पिछड़ापन संपूर्ण अर्थव्यवस्था को पिछड़ा बनाये रखती है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कमजोर वर्ग के लोग जिसमें लघु एवं अति लघु कृषक और खेतिहर मजदूर सम्मिलित हैं और जिनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक होती है, अधिकांशत: गरीबी के दुश्चक्र में फँसे रहते हैं, इनकी गरीबी अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का मुख्य कारण होती है।

आज के विभिन्न विकसित देशों का आर्थिक इतिहास यह स्पष्ट करता है कि कृषि विकास ने ही उनके औद्योगिक क्षेत्र के विकास का मार्ग प्रसस्त किया है। कृषि क्षेत्र ने ही उनके परिवहन और गैर कृषि आर्थिक क्रियाओं के लिये अवसर उत्पन्न किये हैं। आज के विकसित पूँजीवादी और समाजवादी अर्थव्यवस्थाओं के विकास के आरंभिक चरण में कृषि क्षेत्र ने वहाँ के गैर कृषि क्षेत्र के विकास हेतु श्रम शक्ति, कच्चा पदार्थ, भोज्य सामग्री और पूँजी की आपूर्ति की है। यूएसएसआर ने 1927 में सामूहिक कृषि प्रणाली अपनाकर बड़े पैमाने पर यंत्रीकरण का प्रयोग करके अपनी कृषि का विकास किया। सामूहिक कृषि फार्मों पर भारी करारोपण एवं औद्योगिक उत्पादों की कीमतें बढ़ाकर कृषि अतिरेक को गैर कृषि क्षेत्र के विकास हेतु प्रयुक्त किया गया जिससे खाद्यान्न एवं व्यापारिक फसलों का उत्पादन तेजी से बढ़ा और कृषि श्रमिकों की उत्पादकता में 1926 से 1938 की अवधि में 25 से 30 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। जापान में भी आर्थिक विकास की प्राथमिक अवस्था में कृषि अतिरेक का गैर कृषि कार्यों में प्रयोग किया। विकसित एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के उपरोक्त अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास की पूर्वापेक्षा कृषि क्षेत्र का विकास है। कृषि क्षेत्र का विकास कृषि एवं संबंद्ध क्रियाओं में लगे लोगों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार करता ही है साथ-साथ यह गैर कृषि क्षेत्र के लिये खाद्यान्न कच्चा पदार्थ, बाजार और श्रम की आपूर्ति करता है।

अर्द्ध विकसित अर्थ व्यवस्थाओं में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की अपेक्षा खाद्यान्न उत्पादन में तीव्र वृद्धि आवश्यक है क्योंकि इन अर्थव्यवस्थाओं में जनसंख्या वृद्धि दर अत्यंत ऊँची 1.5 से 3.0 प्रतिशत तक होती है, दूसरी ओर व्यापक जनसमूह का उपभोग स्तर अत्यंत निम्न होता है। जनसंख्या वृद्धि नगरीकरण और आयवृद्धि के कारण कृषि उत्पादन की मांग बढ़ती है। जनसंख्या आयवृद्धि और आद्यान्य की मांग की लोच को ध्यान में रखकर खाद्यान्न की मांग में वार्षिक वृद्धि निम्न प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है।

D

= P

+ ng

यहाँ

D

=

खाद्यान्न मांग की वार्षिक वृद्धि

P

=

जनसंख्या वृद्धि दर

g

=

प्रति व्यक्ति आय वृद्धि दर

n

=

खाद्यान्न हेतु आय मांग की लोच

इस आधार पर यदि जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत प्रति व्यक्ति वार्षिक आय वृद्धि दर 2 प्रतिशत और खाद्यान्नों के लिये आय मांग की लोच 0.8 प्रतिशत हो तो कृषि उत्पादन में (2.5+2X0-8) = 4 प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी ताकि कृषि उत्पादन की कीमतों को स्थित रखा जा सके। यह अनुमान है कि विश्व की लगभग 2/3 जनसंख्या अल्पपोषिक है, इनके आहार स्तर में सुधार के लिये कृषि उत्पादन में वृद्धि की आवश्यकता है। विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं में प्रसार और पोषक तत्वों में वृद्धि होने के कारण मृत्यु दर घटी है परंतु जन्म दर में तदनुसार कमी न होने से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हो रही है। विकसित देशों की खाद्यान्न आय मांग की लोच 0.3 या इससे कम होती है, इसके विपरीत विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिये यह 0.6 या इससे कम होती है, इसके विपरीत विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिये यह 0.6 या इसे अधिक है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इन अर्थव्यवस्थाओं में लोग अपने कुल उपभोग व्यय का 50 से 70 प्रतिशत तक भाग खाद्यान्नों पर व्यय करते हैं और 60 से 85 प्रतिशत तक ऊष्मांक (ऊर्जा) खाद्यान्नों से प्राप्‍त करते हैं।

विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास के अनुभवों से स्पष्ट होता है कि उनके आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे आर्थिक विकास हेतु वित्त की प्रारंभिक अवस्था में कृषि क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है, जिससे आर्थिक विकास हेतु वित्त की आपूर्ति हुई है। कृषि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का प्रमुख व्यवसाय होता है क्योंकि कृषि को न केवल खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करनी होती है अपितु आर्थिक विकास हेतु अतिरेक भी सृजित करना होता है। कृषि क्षेत्र के अतिरेक से उत्पन्न बचत को विनियोग किया जा सकता है। कृषि क्षेत्र की बचत से ही जापान और इंग्लैंड को अपने आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में सहयोग प्राप्त हुआ है। यदि कृषि बचत से ही जापान और इंग्लैंड को अपने आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में सहयोग प्राप्त हुआ है। यदि कृषि बचत का सम्यक उपयोग न हुआ हो तो वांछित परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। जैसा कि भारत में एक बड़ी समयावधि तक कृषि अतिरेक का उपभोग बड़े भू-स्वामियों द्वारा सुविधा एवं विलासिता युक्त जीवनयापन में किया गया। एमएल डार्लिंग ने अपने अध्ययन में इस भारतीय पद्धति पर खेद व्यक्त किया था।

1. कृषि उत्पादकता मापन विधियाँ :-


कृषि अध्ययन में कृषि उत्पादकता को निर्धारित करने क लिये विधि संबंधी पर्याप्त साहित्य मिलता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने कृषि उत्पादकता को निर्धारित करने में अलग-अलग विधियों को अपनाया है। विधि संबंधी इन सभी उपागमों का सात वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

1. कृषि उत्पादन से प्राप्त आय पर आधारित विधि।
2. प्रति श्रम लागत इकाई उत्पादन पर आधारित विधि।
3. कृषि उत्पादन से प्रतिव्यक्ति उपलब्ध अन्न पर आधारित विधि।
4. कृषि लागत पर आधारित विधि।
5. प्रति एकड़ उपज तथा कोटि गुणांक पर आधारित विधि।
6. फसल क्षेत्र तथा प्रति क्षेत्र इकाई उत्पादन पर आधारित विधि।
7. भूमि के पोषक भार क्षमता पर आधारित विधि।

उपर्युक्त विधियों से एक, दो तथा चौथे उपागम के लिये संसार के अधिकांश देशों में उपयुक्त आंकड़े नहीं मिल पाते हैं। भारत के अधिकांश राज्यों में कृषि आंकड़े इस दृष्टिकोण से अधूरे हैं। तृतीय उपागम कृषि उत्पादन से प्रति व्यक्ति उपलब्ध अन्न पर आधारित विधि को सर्वप्रथम बक महोदय ने अपनाया। बक महोदय ने अनुभव किया कि चीन जैसे देश में जहाँ जीवन निर्वहन व्यवस्था प्रचलित है, कृषि उत्पादकता का मूल्यांकन मुद्रा के रूप में उचित नहीं होगा, जबकि अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोप की कृषि क्षमता का निर्धारण अन्न तुल्य विधि के आधार पर निर्धारित करना उचित नहीं होगा क्योंकि वहाँ पर अनेक मुद्रा दायिनी फसलों का उत्पादन होता है, इनको अन्न के बराबर या किसी भार इकाई के बराबर बदलना न्यायकर प्रतीत नहीं होता है।

क्लार्क तथा हैसवेल ने भी यही विधि अपनाई जो प्रतिव्यक्ति गेहूँ तुल्य पर आधारित है। इस मापक में संपूर्ण कृषि उत्पादन को प्रति व्यक्ति वार्षिक गेहूँ की मात्रा (किलोग्राम) के रूप में प्रदर्शित किया गया, इस आधार पर कृषि उन्नति का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।

प्रति एकड़ उपज तथा कोटि गुणांक पर आधारित विधि का संबंध फसलों के प्रति एकड़ उपज से है। कैंडल की कृषि क्षमता निर्धारण विधि प्रति क्षेत्र इकाई के उत्पादन पर आधारित है। इन्होंने इंग्लैंड के 48 काउंटीज की क्षमता निर्धारण में दस प्रमुख फसलों के प्रति एकड़ उपज को आधार माना तथा श्रेणी गुणांक विधि को अपनाया। भारत वर्ष में इस विधि का सर्व प्रथम प्रयोग मुहम्मद सफी ने किया। इन्होंने उत्तर प्रदेश के सभी जनपदों की कृषि क्षमता का निर्धारण आठ खाद्यान्न फसलों के प्रति एकड़ उपज के आधार पर किया। इस विधि की आलोचना इस आधार पर की गई कि फसलों के प्रति एकड़ उत्पादन के विश्लेषण के साथ उस फसल के क्षेत्र का ध्यान नहीं रखा जाता है। उदाहरण के लिये अ इकाई की श्रेणी गेहूँ के प्रति एकड़ उत्पादन के लिये प्रथम स्थान पर है लेकिन क्षेत्र केवल 1 प्रतिशत है, प्रति एकड़ उत्पादन अधिक होते हुए भी क्षेत्र के दृष्टिकोण से स्थान नगण्य हो सकता है फलस्वरूप ‘अ’ इकाई का महत्त्व कृषि उत्पादकता की दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण होगा जबकि श्रेणी गुणांक विधि के अनुसार कृषि क्षमता अधिक होगी।

श्रेणी गुणांक विधि की इस कमजोरी को सप्रे तथा देशपांडे ने दूर किया इन्होंने फसलों के अंतर्गत क्षेत्र को स्थान देकर श्रेणी गुणांक उपागम में सुधार किया। इस विधि की मूल कमी यह है कि इसमें प्रत्येक फसल की प्रतिशत की गणना कुल फसल क्षेत्र से किया गया है जबकि कृषि क्षमता निर्धारित करते समय कुल बोई गई भूमि ही उत्पादन तथा प्रति एकड़ उत्पादन को प्रभावित करती है। गांगुली ने फसल उपज सूची विधि को अपनाया। इन्होंने नौ मुख्य फसलों को चुना तथा प्रत्येक फसल की सूची की गणना की, इनका उपज सूची सूत्र निम्नलिखित है।

. उपज सूची ज्ञात करने के बाद उस फसल की प्रतिशत से गुणा करके कार्यक्षमता सूची की गणना की गई है। इस अध्ययन में भी कार्य क्षमता सूची की गणना कुल फसल क्षेत्र के स्थान पर कुल बोई गई भूमि के संदर्भ में किया गया होता तो परिणाम अधिक सही होता। माटिया ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों की कृषि क्षमता निर्धारित करने में एक विशेष सूत्र का प्रयोग किया, इनका अनुमान है कि (क) प्रति एकड़ उपजल भौतिक एवं मानवीय पर्यावरण का प्रतिफल है, (ख) अनेक फसलों के अंतर्गत क्षेत्र भूमि उपयोग से संबंधित अनेक कारकों के प्रभाव को प्रदर्शित करता है, फलस्वरूप कृषि क्षमता प्रति एकड़ उत्पादन तथा फसल क्षेत्र दोनों, तथ्यों की देन है। माटिया ने निम्नलिखित सूत्र के आधार पर उत्तर प्रदेश की कृषि क्षमता को निर्धारित किया -

Fig-2 सिन्हा 8 ने माटिया की विधि का समर्थन करते हुए जनपद स्तरीय अध्ययन के लिये दोषपूर्ण बताया, इन्होंने भारत वर्ष स्तर पर आंकड़ों की ओर ध्यान दिलाते हुए कृषि क्षमता निर्धारण में प्रति हे. उपज को ही लाभप्रद बताया। सिन्हा ने कृषि क्षमता का निर्धारण प्रति एकड़ भूमि भार क्षमता के आधार पर किया है। इनके मतानुसार कृषि क्षमता भूमि उत्पादन जितना अधिक होगा, भूमि पोषक क्षमता भी उतनी ही अधिक होगी, फलत: फार्मिंग क्षमता भी अधिक होगी। वास्तव में भूमि भार को क्षमता विधि की मुख्य विशेषता यह है कि संसार के किसी भी भाग में फसलों की विभिन्नताओं का तुलनात्मक अध्ययन आसानी से किया जा सकता है। इस विधि में उत्पादन को कैलोरीज में बदल लिया जाता है इन्होंने कृषि क्षमता की सूची को इस प्रकार निर्धारित किया।

.कृषि क्षमता के स्थान पर कृषि उत्पादकता शीर्षक के अंतर्गत अध्ययन करने वाले विद्वान ईनेदी 10 ने कृषि की मौलिक किस्मों का वर्णन करते समय कृषि उत्पादकता को निर्धारित करने के लिये निम्न सूत्र प्रतिपादित किया।

. सफी ने भारत वर्ष के वृहद मैदान की कृषि उत्पादकता को निर्धारित करते समय ईनेदी के सूत्र में संसोधन प्रस्तुत किया। ईनेदी के सूत्र में प्रमुख दोष यह था कि उत्पादकता सूची पर फसल क्षेत्र की मात्रा का अधिक प्रभाव पड़ता था। राष्ट्रीय या जिलास्तर पर प्रति हे. पैदावार समान या कम होने पर भी राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा जिला स्तर पर उत्पादकता सूची अधिक होती है। सफी ने ईनेदी के सूत्र में सुधार किया जो इस प्रकार है -

Fig-5इस सूत्र में जनपद में सभी फसलों से प्राप्त कुल उपज की सभी फसलों के कुल क्षेत्र से विभाजित किया गया है और प्रति हे. उपज मालुम की गयी है इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर सभी फसलों से प्राप्त कुल उपज को भी कुल क्षेत्र से विभाजित करके प्रति हे. उपज मालुम की गयी है। तत्पश्चात जनपद के प्रति हे. उपज में राष्ट्रीय स्तर के प्रति हे. उपज से विभाजित किया गया है। हुसैन ने सतलज गंगा मैदान की कृषि उत्पादकता प्रदेश निर्धारिण में एक नूतन विधि का सुझाव दिया है। इनका कहना है कि उत्पादकता अध्ययन में सभी उत्पादित फसलों की गणना की जानी चाहिए। ऐसा देखा जाता है कि किसी एक इकाई क्षेत्र में कुछ फसलें प्रमुख होती हैं तथा ऐसे अनेक फसलें होती हैं जो मुद्रा की दृष्टिकोण से प्रमुख होती हैं जबकि क्षेत्र न्यूनतम होता है अब तक अपनायी गयी विधियों में न्यून क्षेत्र वाली फसलों की गणना नहीं की गयी है इन्होंने सभी उत्पादित फसलों की उपज से प्राप्त मुद्रा की गणना की सूत्र इस प्रकार है –

Fig-6.

2. अध्ययन क्षेत्र में कृषि उत्पादकता का स्तर :-


किसी भी क्षेत्र में कृषि सक्रियता कृषि गहनता एवं कृषि कुशलता को प्रदर्शित करने में कृषि उत्पादकता का विशेष स्थान है। यदि उत्पादकता क्षीण होती है तो स्वत: कृषि कुशलता घट जाती है। कृषि उत्पादकता बढ़ाने में जिन कारकों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है उनमें भौतिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त सुधरे हुए बीजों, उर्वरकों सिंचन सुविधाओं कृषि यंत्रीकरण तथा कृषक प्रशिक्षण विशेष उल्लेखनीय है। कुछ विद्वानों ने उर्वरकों के आधार पर उत्पादकता बढ़ाने के प्रयासों का विश्लेषण किया है। उनके अनुसार रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग एक सीमा तक ही लाभदायक होता है उस सीमा के बाद उर्वरकों का अधिक प्रयोग हानिकारक होता है अत: उस उपयुक्त सीमा का निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है जिसपर उर्वरकों की सीमांत उत्पादकता अधिकतम हो साधारण कृषक ऐसे प्रायोगिक पक्षों से अनभिज्ञ होते हैं इसलिये कृषि प्रसार सेवाओं द्वारा कृषकों को इस संबंध में ज्ञान कराया जाना चाहिए।

कृषि उत्पादकता से कृषि उत्पादन का गहरा संबंध है क्योंकि कृषि उत्पादकता जहाँ सक्षमता का द्योतक है वहीं कृषि उत्पादन वास्तविकता का प्रतीक भी है। यदि कृषि उत्पादकता वृद्धि के सक्रिय प्रयास के बाद भी वास्तविक कृषि उत्पादन न बढ़ सके तो सारा प्रयास असफल दीखता है। अत: अध्ययन क्षेत्र में कृषि उत्पादकता तथा कृषि उत्पादन का निर्धारण भी आवश्यक हो जाता है जिससे कृषि उत्पादकता वृद्धि के प्रयासों के प्रतिफल को ज्ञात किया जा सके। कुछ विद्वानों ने इसके लिये सफल गहनता तथा फसल उपज समकक्षता संकेताकों का प्रयोग किया गया। फसल गहनता में फसलों की लागत को ध्यान में रखकर अतिरिक्त उपज का अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि फसल उपज समकक्षता द्वारा भिन्न फसलों के सापेक्ष महत्व का अनुमान लगाया जा सकता है।

अ. फसल गहनता :-
फसल गहनता से आशय उस फसल क्षेत्र से है जिस पर वर्ष में एक फसल के अतिरिक्त अन्य कई फसलें उगाई जाती हैं। शुद्ध कृषि क्षेत्र तथा दोहरी या अनेक फसल क्षेत्र को मिला कर कुल फसल क्षेत्र का संबोधन होता है। किसी भी क्षेत्र में शुद्ध बोये गये क्षेत्र की अपेक्षा कुल फसल क्षेत्र का अधिक होना फसल गहनता की मात्रा को प्रदर्शित करता है। फसल गहनता वह सामयिक बिन्दु है जहाँ भूमि श्रम, पूँजी तथा प्रबंध का समिश्रण सर्वाधिक लाभप्रद होता है। भारत वर्ष की वर्तमान कृषि अर्थव्यवस्था में फसल गहनता का निर्धारण अधिक लाभप्रद होता है। भारत वर्ष की वर्तमान कृषि अर्थव्यवस्था में फसल गहनता का निर्धारण इन चरों के अनुपात में नहीं किया जाता है क्योंकि भूमि एक स्थायी कारक है। मानवीय श्रम की अधिकता तथा बेरोजगारी भी अधिक है। कृषि जीवन निर्वाह का एक माध्यम मात्र है। फार्म का आकर छोटा है और कृषि उद्यम का रूप धारण नहीं कर पायी है। वास्तव में यहाँ फसल गहनता सिंचाई के साधन बीज, उर्वरक तथा कृषि यंत्रों की उपलब्धि पर आधारित रहती है। यही कारण है कि भारतीय कृषि अर्थ व्यवस्था में बड़े कृषि फार्मों की अपेक्षा छोटे आकार के फार्मों में फसल गहनता अधिक होती है। क्योंकि कृषक पारिवारिक श्रम तथा अध्ययन लागतों का भरपूर प्रयोग करता है जबकि बड़े आकर के कृषि फार्मों में पूँजी का वितरण असमान हो जाता है। इस प्रकार फसल गहनता की संकल्पना का प्रार्दुभाव एक ही खेत में एक ही वर्ष में एक से अनेक फसलों के उत्पादन से होता है। फसल गहनता की गणना निम्नलिखित सूत्र के आधार पर की जाती है।

Fig-8

तालिका क्रमांक 5.1

विकासखंड स्तर पर फसल गहनता सूची 1995-96

क्र.

विकासखंड

शुद्ध बोया गया क्षेत्र

सकल बोया गया क्षेत्र

फसल गहनता

1

कालाकांकर

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