सुनिश्चित हो आमजन की सहभागिता
12 Dec 2018
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जयराम रमेश

मेरे अनेक मंत्रीमंडलीय सहयोगियों ने बीटी-बैंगन के मामले में मेरे फैसले का यह कहते हुए विरोध किया कि यह भारतीय विज्ञान और उसके भविष्य को नुकसान पहुँचाएगा। प्रतिबन्ध लगाने के बाद मैंने भारत में खाद्य पदार्थों में जैव-तकनीक के उपयोग पर विचार करने और उसके लिये कार्ययोजना विकसित करने के लिये डॉ. कस्तुरीरंगन के साथ छह विज्ञान अकादमियों के प्रमुखों से मुलाकात की।

वर्षों से पर्यावरण मंत्रालय को ऐसी सरकारी एजेंसी के रूप में देखा जाता था जिसे उद्योगों द्वारा मैनेज किया जा सकता था। इसके फैसलों से जो सर्वाधिक प्रभावित होते थे, उनके लिये यह पहुँच से बाहर की चीज थी। पर्यावरण मंत्रालय की इस छवि को बदलने के लिये यह जरूरी था कि इसे ऐसी जगह बनाई जाये, जहाँ हर कोई आ सके, कुछ खास लोगों को संरक्षण नहीं मिले। यह तभी सम्भव था जब यहाँ सभी हितधारकों के लिये जगह होती।

मेरे लिये उन लोगों तक पहुँचना महत्त्वपूर्ण था जिनकी आवाज निर्णय प्रक्रिया के दौरान सबसे कम सुनी जाती थी। यह न केवल मंत्रालय के कार्यकलाप में पारदर्शिता और जवाबदेही को बल देता बल्कि निर्णय लेने की जिम्मेवारी को भी सुनिश्चित करता।

तीन प्रमुख मुद्दों:- बीटी-बैंगन की व्यावसायिक शुरुआत, तटीय नियामक क्षेत्र (Coastal Regulation Zone, CRZ) नियंत्रण की नई नियमावली और ग्रीन इण्डिया मिशन (Green India Mission) विषय को लेकर बड़े पैमाने पर सार्वजनिक परामर्श आयोजित हुए। इन परामर्शों ने सरोकारों को उभारने व स्पष्ट समाधान खोजने और उन मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करके नीति बनाने के लिये जरूरी सूचनाएँ उपलब्ध कराई, जिनको अतिरिक्त कार्रवाई और विचार-विमर्श की आवश्यकता थी। मेरा विश्वास था कि व्यापक सार्वजनिक बहस अस्त-व्यस्त होने के बावजूद भी बेहतर फैसला करने में सहायक होंगे। इन परामर्शों ने नीतियों से सम्बन्धित बड़े प्रश्नों पर मेरे रुख को आकार देने में भी सहायता किया। बीटी-बैंगन सम्बन्धी परामर्श ने प्रस्तावित जैव-तकनीक नियामक प्राधिकरण की रूपरेखा तैयार करने में बड़ी सहायता की। अफसोस है कि सरकार ने प्राधिकरण का गठन करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। सीआरजेड नियमावलियों के बारे में परामर्श ने मत्स्यजीवी आजीविका गारंटी विधेयक (Fishermen Livelihood Guarantee Bill) का मसौदा तैयार करने के लिये महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध कराईं लेकिन यह आगे नहीं बढ़ पाया।

अनेक शहरों में हुए सार्वजनिक परामर्शों के अतिरिक्त कई बार मैंने छोटे समूहों के साथ चर्चाएँ आयोजित कीं। खासकर जब स्थानीय मसले केन्द्र में थे। पूर्वोत्तर प्रदेशों की पनबिजली परियोजनाओं खासकर अरुणाचल प्रदेश को लेकर गुवाहाटी में आयोजित सार्वजनिक परामर्श इसका अच्छा उदाहरण है। इससे कुछ ऐसी जानकारी मिली जिन्हें हम दूर दिल्ली में बैठे अक्सर नजरअन्दाज कर देते थे। उदाहरण के तौर पर, पूर्वोत्तर क्षेत्र समरूप नहीं हैं इसलिये अरुणाचल प्रदेश में पनबिजली का विकास करने से असम पर काफी नुकसानदेह प्रभाव हो सकता था। इसी प्रकार छोटे समूह के बीच परामर्श, नीलगिरि के कोटागिरि में घाट बचाओ आन्दोलन के साथ फरवरी 2010 में आयोजित हुआ, जिसने पर्यावरणविद माधव गाडगिल की अध्यक्षता में पश्चिमी पारिस्थितिकीय विशेषज्ञ समिति के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।

परामर्श कई बार हितधारक समूहों को बातचीत की मेज पर लाने का माध्यम बना जिसमें मंत्रालय और मैं मध्यस्थ की भूमिका में रहे। जैतापुर परमाणु ऊर्जा पार्क के लिये पर्यावरण अनुमति देना वैसा ही एक अवसर था। परियोजना के विकासकर्ता भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम लिमिटेड (Nuclear Power Corporation of India Limited - NPCIL) और परियोजना क्षेत्र में कार्यरत नागरिक संगठनों के मंच ‘कोंकण बचाओ समिति’ (Konkan Bachao Samiti) के बीच बैठक मेरे कार्यालय में हुई। विचार था कि स्थानीय निवासियों के सरोकारों और प्रश्नों के निपटारे के लिये एक निरपेक्ष मंच प्रदान किया जाये और एनपीसीआईएल को एक-साथ सम्पूर्ण जानकारी प्रदान करने का अवसर मिल सके, जो विरोधों के दौर में अक्सर गुम हो जाते हैं। प्रभावी और जिम्मेवार नीतियों को बनाने और बेकार के गतिरोधों से बचने में व्यापक परामर्शों के योगदान को राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के भीतर ‘महत्त्वपूर्ण वन्यजीव आवास स्थल या क्षेत्र’ (Critical Wildlife Habitats or Area) जिसे मानवीय उपस्थिति से मुक्त होना चाहिए को चिन्हित करने की मार्गदर्शिका के मामले में साफ देखा गया। मंत्रालय ने फरवरी 2011 में मार्गदर्शिका तैयार कर लिया परन्तु इसके कुछ प्रावधान वनाधिकार कानून 2006 के विपरीत थे। यह अभूतपूर्व अधिनियम है जो वन क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के अधिकारों का अनुमोदन करता है। वन प्रशासन की मानसिकता में परिवर्तन की अपेक्षा करता है। मैंने वनाधिकार और वन्यजीव कार्यकर्ताओं, वैज्ञानिकों, समाज विज्ञानियों और जनजातीय कल्याण मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठकें की और उनके सुझावों पर सहमत होते हुए नई मार्गदर्शिका तैयार करने के लिये दो महीने की समयसीमा तय कर दी।

मेरे अनेक मंत्रीमंडलीय सहयोगियों ने बीटी-बैंगन (Bt-brinjal) के मामले में मेरे फैसले का यह कहते हुए विरोध किया कि यह भारतीय विज्ञान और उसके भविष्य को नुकसान पहुँचाएगा। प्रतिबन्ध लगाने के बाद मैंने भारत में खाद्य पदार्थों में जैव-तकनीक के उपयोग पर विचार करने और उसके लिये कार्ययोजना विकसित करने के लिये डॉ. कस्तुरीरंगन के साथ छह विज्ञान अकादमियों के प्रमुखों से मुलाकात की। इस सबके बीच मैं व्यक्तिगत बातचीत और पत्र दोनों माध्यमों से प्रधानमंत्री को पूरी जानकारी देता रहा।

पारिस्थितिकीय सुरक्षा और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिये विशेषज्ञों और हितधारकों जिसमें आमलोग भी शामिल हैं, के साथ जूझना और परामर्श करना बेहद महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि जब मुझे कई परियोजनाओं को पर्यावरण अनुमति देने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण कदम, सार्वजनिक सुनवाई की अवमानना किये जाने की जानकारी मिली, तब मुख्यमंत्रियों और राज्य सरकारों को पत्र लिखते समय मैंने इसे प्रमुख बिन्दु बनाया। मैंने ओड़िशा में दक्षिण कोरिया की विशाल कम्पनी ‘पोस्को’ की एकीकृत इस्पात परियोजना को लगाने के पहले स्थानीय लोगों से सलाह लेना और उनके अधिकारों का सम्मान करना सुनिश्चित कराने के लिये अतिरिक्त मेहनत किया। मैंने मेघालय के फेरो-एलॉय इकाइयों में चारकोल की जरूरत को पूरा करने के लिये वन विनाश की समस्या पर राज्य सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिये उसे पत्र के माध्यम से सूचित किया। पत्र में मैंने यह सुझाव दिया कि पर्यावरण, वन, औद्योगिक इंजीनियरिंग के साथ ही स्थानीय आदिवासी समुदाय के नेताओं को लेकर एक समिति गठित की जाये जो समस्या का अध्ययन करके अल्प, मध्यम और दीर्घकालीन उपायों की सिफारिश करें।

मेरे इस पहल पर कई आलोचकों को लगा कि यह सार्वजनिक प्रचार पाने के नुस्खा या उन मसलों पर मेरे अपने निजी विचारों को थोपने का एक तरीका मात्र था। मैंने पाया कि सार्वजनिक परामर्श, जिनमें आमतौर पर अनसुनी रहने वाली आवाजें शामिल हुईं, नीति-निर्माण के नीरस काम को भी वास्तविक जीवन का स्पर्श देने में कामयाब रहे। यह लोगों के पास पहुँचने और यह प्रदर्शित करने के लिये कि आर्थिक गतिविधियाँ और विकास हमेशा पर्यावरण विरोधी और जनविरोधी नहीं होते, यह सार्वजनिक पक्षधरता का नमूना भी था। मुझे विश्वास है कि मेरी बहुचर्चित परस्पर क्रियाओं ने लोगों को एक-साथ खड़े होने और उन्हें अपनी बातें सुनाने के लिये उत्साहित किया। साथ ही पर्यावरण से सम्बन्धित मसलों का सामना करने के बारे में उन्हें अपने विचारों को आगे बढ़ाने का अवसर दिया।

यह अध्याय पर्यावरण मंत्रालय में सार्वजनिक स्थान को विस्तार देने, विशेषज्ञों से लेकर कार्यकर्ताओं और व्यापक जनसमुदाय के विभिन्न प्रकार के विचारों और दृष्टिकोणों के लिये मंत्रालय के द्वार खोलने के बारे में है। मुझे उम्मीद है कि यह संकलन इस दलील को मजबूत करेगा कि जब हम लोगों के पास पहुँचते हैं और उन्हें नीति-निर्माण की प्रक्रिया में सम्मिलित करते हैं तभी जिम्मेवार नीति और कानून बना पाते हैं। मुझे गहरा विश्वास है कि जब हम एक-दूसरे से बात करेंगे केवल तभी हम तेज आर्थिक विकास और गम्भीर पर्यावरण संरक्षण के बीच अनिवार्य सन्तुलन हासिल कर सकते हैं, जो समान रूप से महत्त्वपूर्ण है।

वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के लिये नए भवन की आवश्यकता के बारे में 5 अक्टूबर 2009 को योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया को पत्र लिखा।

इससे पहले वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को अपने लिये नए भवन की आवश्यकता के बारे में मैंने 29 सितम्बर 2009 को पत्र द्वारा सूचित किया। अभी हम अर्द्धसैनिक बलों के परिसर के बीचों-बीच अवस्थित हैं, जो स्थान सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी और सीबीआई से घिरा है। यह हमारे मंत्रालय के लिये बहुत ही अनुपयुक्त स्थान है क्योंकि हमें समय-समय पर आम लोगों से मुलाकात करनी होती है। इस ठिकाने पर हमारे मंत्रालय से सम्पर्क करना नागरिक संगठनों के लिये भी सहज नहीं होता।

पर्यावरण मंत्रालय में सार्वजनिक स्थान को विस्तार देने, विशेषज्ञों से लेकर कार्यकर्ताओं और व्यापक जनसमुदाय के विभिन्न प्रकार के विचारों और दृष्टिकोणों के लिये मंत्रालय के द्वार खोलने के बारे में है। मुझे उम्मीद है कि यह संकलन इस दलील को मजबूत करेगा कि जब हम लोगों के पास पहुँचते हैं और उन्हें नीति-निर्माण की प्रक्रिया में सम्मिलित करते हैं तभी जिम्मेवार नीति और कानून बना पाते हैं।

संसद सदस्य (लोकसभा) रतन सिंह अजनाला द्वारा जीएम फसलों पर प्रतिबन्ध का अनुरोध करते हुए प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र का उत्तर:-

07 जून 2009
यह पत्र माननीय प्रधानमंत्री को सम्बोधित आपके पत्र दिनांक 16 फरवरी 2009 के सन्दर्भ में है, जिसमें आपने अानुवंशिक रूप से उन्नत (Genetically modified - GM) फसलों/खाद्य पदार्थों, खासतौर से बीटी-बैंगन पर तब तक प्रतिबन्ध लगाने का अनुरोध किया था जब तक देश में इस तकनीक से विकसित फसलों के स्वतंत्र मूल्यांकन की व्यवस्था नहीं हो जाती और उपभोक्ताओं एवं किसानों के अधिकारों का समुचित निपटारा नहीं हो जाता।

मंत्रालय में मामले का परीक्षण किया गया और मुझे बताया गया है कि भारत में वर्तमान जैव-सुरक्षा नियमावली, जीएम फसलों की जैव-सुरक्षा का मूल्यांकन करने में सक्षम है। जैव-तकनीक विभाग के अन्तर्गत (Review Committee on Genetic Manipulation - RCGM) और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय (Ministry of Forest and Environment) के अन्तर्गत ‘बायोटेक्नोलॉजी एंड द जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी’ (Biotechnology and the Genetic Engineering Approval Committee - GEAC) द्वारा अपनाई गई जैव-सुरक्षा मार्गदर्शिका अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों का अनुपालन करती है जिसे आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organization for Economic Cooperation and Development - OECD), खाद्य पदार्थों पर प्रयुक्त अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों का आयोग (CODEX Alimentarius Commission) और अन्तरराष्ट्रीय पौध संरक्षण समझौता (International Plant Protection Convention - IPPC) ने निर्धारित किया है।

हमारा प्रयास हमेशा जैव-तकनीक फसलों के जमीनी परीक्षण की अनुमति देने का रहा है, जिसकी आवश्यकता वैज्ञानिक मूल्यांकन के लिये प्रयोग करने में होती हैं जो पूर्णतः पारदर्शी सुरक्षात्मक उपायों और मानदंडों के अनुसार होते हैं। मुझे उम्मीद है कि इससे आपकी चिन्ता दूर हो गई होगी।

वैधानिक परामर्शदाता संगठन (Statutory Advisory Body), जीईएसी की भूमिका के बारे में केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के साथ सीधी बात

(पवार, जीएम फसलों और बीटी बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन को अनुमति देने के सबसे मुखर समर्थकों में एक थे)

21 जनवरी 2010
मेरा ध्यान आज के कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित रिपोर्टों की ओर गया है जिसमें आपने कहा है कि बीटी-बैंगन को अनुमति देने के बारे में जीईएसी का फैसला अन्तिम है और केन्द्र सरकार को इस मामले में कुछ नहीं करना है। यदि समाचार पत्र ने आपकी बातों को ठीक ढंग से रखा है तो मैं इस विचार से पूर्णतः असहमत होने की इजाजत चाहता हूँ।

जीईएसी सच ही एक वैधानिक संगठन है। लेकिन, जब मानवीय सुरक्षा के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय जुडे हों तो सरकार को पूरा अधिकार और बुनियादी जिम्मेवारी भी है कि जीईएसी की सिफारिशों के आधार पर अन्तिम फैसला करे। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि मेरे पूर्ववर्ती, श्री टीआर बालू ने अप्रैल 2002 में बीटी-कॉटन को अन्तिम अनुमति दी थी।

बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन के बारे में जीईएसी की सिफारिश 14 अक्टूबर 2009 को मेरे पास आई। मैं इस मामले में प्रकट की गई चिन्ताओं से पूरी तरह अवगत हूँ क्योंकि, बीटी-बैंगन आनुवंशिक रूप से उन्नत (जेनेटिकली मोडिफाइड) पहला खाद्य पदार्थ है। मैंने सात शहरों - कोलकाता, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, हैदराबाद, बंगलुरु, नागपुर और चंडीगढ़ में सार्वजनिक परामर्श आयोजित करने का फैसला किया। मैंने बैंगन उपजाने वाले छह महत्त्वपूर्ण राज्यों-पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, बिहार, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों को पत्र भी लिखा। इसके अतिरिक्त मैंने भारत और विदेश के पचास से अधिक शीर्ष वैज्ञानिकों की राय माँगी।

मैं 20 फरवरी तक बीटी-बैंगन के बारे में जीईएसी की सिफारिशों पर राय कायम करने की स्थिति में होऊँगा, तब मैं अपने अन्तिम विचारों से प्रधानमंत्री को अवगत कराने के साथ ही आपको और स्वास्थ्य मंत्री को भी उनसे अवगत कराऊँगा।

आप इससे सहमत होंगे कि हमारे जैसे लोकतंत्र में ऐसे फैसले जिनका दूरगामी परिणाम हो सकता है, बेहद सतर्कता और अधिकतम पारदर्शिता के साथ और इसे सुनिश्चित करने के बाद लेना होगा कि सभी हितधारकों की बातें सन्तोषप्रद ढंग से सूनी गई हैं। यही वह चीज है जिसे जीईएसी की सिफारिशों के मेरे पास आने के समय से मैं सुनिश्चित करना चाहता था। मैं जीईएसी और उसके कामों का सम्मान करता हूँ। हालांकि, सम्बन्धित मंत्री और संवेदनशील होने के नाते जीईएसी की सिफारिशों के बारे में किसी फैसले पर पहुँचने में मुझे आवश्यक समय लेने का व्यक्तिगत तौर पर अधिकार है जिससे आप सहमत होंगे। इसमें मेरा कोई व्यक्तिगत एजेंडा नहीं है, सिवा सुनने, समझने और तब फैसला करने का।

बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन पर प्रतिबन्ध लगाने का ‘मुखर आदेश’ सभी वर्गों यथा वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, किसानों के समूहों और दूसरे हितधारकों के साथ विचार-विमर्श के बाद लिया गया था।

9 फरवरी 2010
जीईएसी की स्थापना पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अन्तर्गत मई 1990 में हुई थी। यह पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के नियम 1989 के अन्तर्गत वैधानिक संगठन है। यह जेनेटिकली मोडिफायड ऑर्गानिज्म के बड़े पैमाने पर परीक्षण और पर्यावरणीय प्रस्तुति की अनुमति देने के लिये अधिकृत है। लेकिन, बीटी-बैगन के मामले में 14 अक्टूबर 2009 को हुई अपनी 97वीं बैठक में जीईएसी ने फैसला किया कि पर्यावरणीय प्रस्तुति के बारे में अपनी सिफारिश को अन्तिम फैसला लेने के लिये सरकार पर छोड़ दे।

जीईएसी जो वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में अवस्थित है, ने अपनी सिफारिशों को मेरे पास भेजा। बीटी-बैंगन के बारे में जीईएसी की सिफारिशों के प्राप्त होने पर मैंने 16 अक्टूबर 2009 को इसकी सूचना मैंने उसे दी। मैंने सिफारिशों का अध्ययन किया और कार्रवाई करने का फैसला किया। जीईएसी को विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट (ईसी-2) 8 अक्टूबर 2009 को सौंपी गई जो उसके 14 अक्टूबर 2009 के फैसले का आधार बनी, जिसे तत्काल प्रभाव से सार्वजनिक किया गया। इसे सीधे वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के वेबसाइट पर अपलोड किया गया। बीटी-बैंगन के बारे में पूर्ववर्ती सभी रिपोर्टें और अध्ययन पहले से सार्वजनिक हैं। इस रिपोर्ट पर 31 दिसम्बर 2009 तक मन्तव्य माँगे जा रहे हैं और मैं उन्हें प्रोत्साहित करना चाहता हूँ। मेरा प्रस्ताव है कि जनवरी और फरवरी 2010 के दौरान विभिन्न जगहों पर वैज्ञानिकों, कृषि विशेषज्ञों, किसान संगठनों, उपभोक्ता समूहों और गम्भीर मानसिकता के गैर-सरकारी संगठनों जो जिम्मेवार ढंग से हिस्सेदारी करना चाहें, के साथ सार्वजनिक परामर्श आयोजित हों। इन परामर्शों में सभी प्रकार के विचार रखे जाएँ। बीटी-बैंगन के पक्ष और विपक्ष दोनों तरह के मजबूत विचार सामने आएँ हैं। मेरा उद्देश्य सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में सतर्क व सुविचारित निर्णय पर पहुँचना है।

बीटी-बैंगन पर पर्यावरण शिक्षा केन्द्र (सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एजुकेशन, सीईई) अहमदाबाद (सेंटर ऑफ एक्सेलन्स,जो वन एवं मंत्रालय द्वारा समर्थित है) ने 13 जनवरी 2010 से 6 फरवरी 2010 के बीच कोलकाता, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, नागपुर, चंडीगढ़, हैदराबाद और बंगलुरु में सार्वजनिक सभाएँ आयोजित की। इन सात सार्वजनिक सभाओं में विभिन्न तबके के लगभग 8000 लोगों ने उत्साह के साथ हिस्सा लिया।1

पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, बिहार, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों को पत्र भेजे गए क्योंकि यही बैंगन उपजाने वाले प्रमुख राज्य हैं जिनकी हिस्सेदारी भारत में बैगन उत्पादन में क्रमशः 30 प्रतिशत 20, 11, 6, 6 और 4 प्रतिशत हैं।2

मुझे आरम्भ में ही यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि मेरी चिन्ता केवल बीटी-बैंगन को लेकर थी।3 कृषि में जेनेटिक इंजीनियरिंग और जैव तकनीक के व्यापक मसले को लेकर नहीं। मेरे सामने मसला इसमें सीमाबद्ध था कि बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण के बारे में जीईएसी की सिफारिशों का क्या करें?

सभी राज्यों, जिन्होंने मुझे पत्र लिखा, बीटी-बैंगन को लेकर आशंकाएँ प्रकट की और चरम सतर्कता बरतने का अनुरोध किया। यह हमारे संघात्मक ढाँचा के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था क्योंकि कृषि राज्य का विषय होता है। मैंने राज्य सरकारों के विचारों का निम्नलिखित निष्कर्ष निकाला जो राज्यों के मुख्यमंत्री/कृषि मंत्रियों द्वारा मेरे पास लिखित रूप से भेजे गए थे:-

आन्ध्र प्रदेश:- यह स्पष्ट है कि जीईएसी द्वारा एकत्र आँकड़े, संचालित परीक्षण और प्रसारित जानकारियाँ, बीटी-बैंगन के व्यावसायिक उत्पादन की अनुमति देने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। जब तक पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य की सुरक्षा के उपाय स्पष्ट तौर पर नहीं किये जाते, बीटी-बैंगन की व्यावसायिक खेती की अनुमति नहीं दी जा सकती।

केरल:- इन सब पर विचार करने के बाद केरल सरकार ने सभी जेनेटिकली मोडिफायड ऑर्गनिज्म के पर्यावरणीय प्रस्तुति को प्रतिबन्धित करने और केरल को जीएम मुक्त रखने का फैसला किया है। हम माननीय प्रधानमंत्री से अनुरोध करेंगे कि जीएम के बारे में नीति पर राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्विचार करें और इस पर कम-से-कम आगामी पचास वर्षों के लिये प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा करें।

छत्तीसगढ़: बीटी-बैंगन की व्यवसायिक खेती की अनुमति देने के पहले इसके सम्पूर्ण प्रभाव को देखने के लिये सभी प्रकार की जाँच संचालित की जानी चाहिए।

कर्नाटक:- बीटी-बैंगन की व्यावसायिक प्रस्तुति तब-तक रोकी जानी चाहिए जब तक सभी कोणों से इसका गहन परीक्षण के साथ ही सभी हितधारकों के विचार नहीं लिये जाते और इसकी जैव-सुरक्षा के बारे में दीर्घकालीन शोध नहीं होता। खाद्य-सुरक्षा एवं किसानों के कल्याण के मामले में इसके प्रभावों पर विचार किया जाना भी अतिमहत्त्वपूर्ण है।

हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मुझे बताया कि सरकार अपने विचार सभी परीक्षणों के पूरा हो जाने और भारत सरकार द्वारा फैसला कर लिये जाने के बाद ही प्रकट करेगी। प्रत्यक्ष रूप से बीटी तकनीक कीटनाशकों का उपयोग कम करने का इकलौता रास्ता नहीं है। कीटनाशक के प्रयोग का जनस्वास्थ्य पर घातक प्रभाव भटिंडा जैसी जगहों पर स्पष्ट दिखने लगा है, जिसके बारे में पंजाब के मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले मुझे बताया।

बिहार:- राज्य किसान आयोग, प्रदेश में बीटी-बैंगन को वर्तमान में प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं है। राज्य किसान आयोग की सिफारिशों पर राज्य सरकार ने विचार किया और सरकार उससे पूरी तरह सहमत है।

पश्चिम बंगाल:- मैंने जीईएसी की विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट को डाउनलोड किया है। मैं समझता हूँ कि इस मसले पर क्षेत्रीय विशेषज्ञों द्वारा गहन पड़ताल की जरूरत है। मैं पूर्ववर्ती राज्य कृषि आयोग के कुछ सदस्यों से रिपोर्ट का परीक्षण करने और अपने विचार सरकार को भेजने का अनुरोध कर रहा हूँ ताकि सरकार इस विषय में समग्रतापूर्ण रुख अपना सके।

ओड़िशा:- ओड़िशा सरकार बीटी-बैंगन की प्रस्तुति का समर्थन नहीं करती। सरकार यह मानती है कि इसे लागू किये जाने के पूर्व इसकी यथेष्ट जमीनी जाँच और राज्य के छोटे एवं मंझोले किसानों के हित सुरक्षित किये जाने की जरूरत है।

इसके अतिरिक्त, उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री ने मुझसे बात की और राज्य में बीटी-बैंगन को प्रतिबन्धित करने के फैसले की जानकारी दी। तमिलनाडु के मुख्य सचिव ने मुझे सूचित किया कि तमिलनाडु अभी बीटी-बैंगन के व्यावसायीकरण के पक्ष में नहीं है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मुझे कहा कि बीटी-बैंगन को केवल तभी प्रस्तुत किया जाना चाहिए जब सभी सन्देह और आशंकाओं का समुचित निदान हो जाये। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने मुझे बताया कि सरकार अपने विचार सभी परीक्षणों के पूरा हो जाने और भारत सरकार द्वारा फैसला कर लिये जाने के बाद ही प्रकट करेगी। प्रत्यक्ष रूप से बीटी तकनीक कीटनाशकों का उपयोग कम करने का इकलौता रास्ता नहीं है। कीटनाशक के प्रयोग का जनस्वास्थ्य पर घातक प्रभाव भटिंडा जैसी जगहों पर स्पष्ट दिखने लगा है, जिसके बारे में पंजाब के मुख्यमंत्री ने दो दिन पहले मुझे बताया। उन्होंने मुझे बताया कि वह इलाका, विशाल कैंसरग्रस्त इलाके के रूप में उभरा है। बड़े स्तर (मैक्रो लेवल) पर खाद्य सुरक्षा और सूक्ष्म स्तर (माइक्रो लेवल) पर किसान की आमदनी से समझौता किए बगैर कीटनाशकों के प्रयोग को कैसे घटाए, यह हमारी कृषि की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक नीति का मसला है। इस सन्दर्भ में ध्यान देना उपयोगी होगा कि आन्ध्र प्रदेश के छह लाख किसान लगभग 20 लाख एकड़ इलाके में पूरी तरह गैर-कीटनाशक प्रबन्धन (नॉन पेस्टिसाइड मैनेजमेंट, एनपीएम) कृषि का व्यवहार कर रहे हैं। मैं स्वयं इस पहल को पिछले चार वर्षों से देख रहा हूँ। एनपीएम के व्यवहार का फायदा है कि इसमें रसायनिक कीटनाशकों के प्रयोग को पूरी तरह बन्द कर दिया जाता है जबकि बीटी तकनीक केवल कीटनाशकों के छिड़काव को उल्लेखनीय रूप से घटाता है।

संयोग से जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के अन्तर्गत आठ मिशनों में से एक टिकाऊ कृृषि पर है जिसका एनपीएम अविभाज्य अंग है। वन एवं पर्यावरण मंत्री बनने के बहुत पहले मैंने 19 जनवरी 2009 को कृषि मंत्री को लिखा था कि आन्ध्र के एनपीएम प्रयोग का इस दृष्टि से मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि क्या इसका बड़े पैमाने पर अनुकरण किया जा सकता है? बीटी-बैंगन के आलोचकों द्वारा सुरक्षा जाँच का मसला लगातार उठाया जाता है। बैंगन वैसे भी जिस सोलानासी नामक पौधा परिवार से आता है। वह दूसरों की अपेक्षा अधिक समस्याग्रस्त है क्योंकि इसमें अनेक प्राकृतिक विषैले तत्व होते हैं जो रस-प्रक्रिया (मेटाबोलिज्म) के भंग होने पर पुनः सतह पर आ सकते हैं। जिस तरह की जाँच की गई, कहा जाता है कि वे विषैले तत्वों का पता लगाने के लिये पर्याप्त सख्त नहीं थे। यह महत्त्वपूर्ण मसला है क्योंकि बैंगन हममें से अधिकांश लोगों के दैनिक उपभोग की वस्तु है।

मानवीय सुरक्षा के लिहाज से आवश्यक जाँच की संख्या और प्रकृति के बारे में बहस हो सकती है। परन्तु यह निर्विवाद है कि जाँच बीटी-बैंगन के विकासकर्ताओं द्वारा स्वयं किये गए किसी स्वतंत्र प्रयोगशाला में नहीं किये गए। इससे जाँचों की विश्वसनीयता पर तर्कसंगत सन्देह उत्पन्न होता है, ऐसा सन्देह जिसे मैं नजरअन्दाज नहीं कर सकता। आमतौर पर स्वीकृत वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार यह तथ्य है कि बैंगन बड़े पैमाने पर परागण छिड़कने वाली फसल है, इसलिये बीटी-बैंगन का उपयोग करने पर दूसरी किस्मों के साथ मिलावट होने का खतरा खासतौर से चिन्ताजनक है।

कई हलकों से बहुत ही गम्भीर आशंका प्रकट की गई है कि अगर बीटी-बैंगन को अनुमति दी गई तो मॉन्सेंटो द्वारा हमारी खाद्य शृंखला को नियंत्रित करने की सम्भावना है।4 वास्तव में ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बीटी-बैंगन के बारे में सार्वजनिक चिन्ताओं को स्वयं मॉन्सेंटो के साथ हुए अनुभवों ने बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित किया है। जो हो, मैं जरा भी पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं हूँ। मॉन्सेंटो ने भारत में बहुत अधिक निवेश किया है जिसमें शोध और विकास शामिल है। भारतीय मूल के अनेक वैज्ञानिक मॉन्सेंटो में काम करते हैं। एक देश के रूप में हमें राष्ट्रीय सम्प्रभुता को खतरे में डाले बिना मॉन्सेंटो की विशेषज्ञता और सक्षमताओं का पूरा लाभ उठाना निश्चित तौर पर सीखना चाहिए और उसकी बराबरी की ताकत भी विकसित करना चाहिए। दुर्भाग्य से कृषि में जैव-तकनीकी प्रयोगों में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश करने की स्थिति में हम नहीं दिखते। अगर ऐसा एक उद्यम होता तो मॉन्सेंटो को टक्कर दी जा सकती थी। यह सही है कि भारतीय कम्पनी माहिको उन्नत किस्म की बीटी-बैंगन के विकास में लगा है लेकिन स्वयं माहिको में 26 प्रतिशत हिस्सेदारी मॉन्सेंटो की है। यह भी सच है कि दो सरकारी कृषि विश्वविद्यालयों- तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (टीएनएयू) कोयम्बटूर और यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज, धारवाड़ ने बीटी-बैंगन किस्में विकसित की हैं।5 लेकिन, यह रहस्य है कि इन दोनों संस्थानों में बीटी सम्बन्धी शोध के लिये कोष कहाँ से उपलब्ध हुआ? इसके अलावा टीएनएयू और मॉन्सेंटो के बीच मार्च 2005 में हुआ ‘सामग्री हस्तान्तरण अनुबन्ध’(मटेरियल ट्रांसफर एग्रीमेंट, एमटीए) से स्वामित्व (उत्पादन और जर्मप्लाज्म दोनों) का चिन्ताजनक प्रश्न उठा है। इस अनुबन्ध के अन्तर्गत टीएनएयू क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता है? यह प्रश्न है।

विश्व का सबसे बड़ा बैंगन उत्पादक होने के अलावा भारत निसन्देह बैगन की उत्पत्ति का मूल देश है जिसे वाविलोव ने 1928 में सिद्ध किया था। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (इण्डियन कौंसिल फॉर एग्रीकल्चर रिसर्च, आईसीएआर) के नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज द्वारा मुझे उपलब्ध कराए गए आँकड़े बताते हैं कि ब्यूरो में 3,951 नमूने संकलित हैं। और विविधता-सम्पन्न जिलों की संख्या 134 है। ब्यूरो ने यह भी इंगित किया है कि विविधता सम्पन्न क्षेत्रों पर बीटी-बैंगन की प्रस्तुति से जीन प्रवाह के कारण प्रभाव पड़ना सम्भावित है। विविधता में क्षति की दलीलों को खारिज नहीं किया जा सकता। खासकर जब हमने कपास के मामले में अनुभव किया है कि बीटी-कॉटन ने गैर बीटी किस्मों पर कब्जा जमा लिया।

बीटी-कॉटन की तुलना बीटी-बैंगन से नहीं की जा सकती, फिर भी इसके साथ अपने अनुभवों को याद रखने की जरूरत है। निसन्देह, बीटी-कॅाटन ने भारत को कपास उत्पादन के मामले में विश्व में दूसरे स्थान पर पहुँचा दिया है। नई तकनीक की जड़ें जमने के बाद वह तीसरे स्थान से ऊपर खिसका है। भारत के 90 प्रतिशत कपास उत्पादक किसान बीटी-कॉटन उपजाते हैं। यह भी सही है कि सार्वजनिक परामर्शों में अनेक किसानों ने आर्थिक आधार पर बीटी-कॉटन के पक्ष में जोरदार आवाज उठाई पर कइयों ने सन्देह भी जाहिर किया। इससे आगे बढ़कर केन्द्रीय कपास शोध संस्थान (सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ कॉटन रिसर्च, सीआईसीआर), नागपुर ने भारत में बीटी-कॅाटन के बारे में एक समेकित अध्ययन किया है जिसने कई प्रश्न उठाए हैं।6 इस संस्थान ने बीटी-कॅाटन की एक किस्म ‘बिकानेरी नरमा’ का उत्पादन किया है (जिसके बीज किसान अगली फसल के लिये रख सकते हैं, जबकि अन्य उन्नत किस्मों के बीज किसानों को हर साल खरीदना होता है।) संस्थान के निदेशक ने बीटी-बैंगन तकनीक का स्पष्ट समर्थन करते हुए बीटी-कॅाटन के अनुभव के आधार पर निम्नलिखित तर्क रखे:-

1. मोनोफागस कीड़ों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाना बेहद गम्भीर चिन्ता का कारण है। सभी बैंगन उपजाने वाले राज्यों में प्रतिरोधक प्रबन्धन के लिये परिचित प्रयोगशाला सरकारी संस्थानों में तना-छेदकों की आबादी और फलों पर क्राई विषैले तत्वों की अति संवेदनशीलता के आकड़ों की बेसलाइन विकसित करने की जरूरत है। इसतरह के आँकड़े अभी केवल ‘महिको’ के पास उपलब्ध हैं। वहाँ भी मुख्य प्रतिरोधक निगरानी प्रयोगशाला स्थापित करने की जरूरत है जिससे इस तकनीक की प्रस्तुति के बाद बेसलाइन की अति संवेदनशील फलछेदक के क्राई प्रोटीन में परिवर्तन की निगरानी की जा सके।

2.प्रतिरोधक प्रबन्धन रणनीतियों का विकास वास्तव में अनेक सम्भावनाओं के बीच से चुने गए नमूने के आउटपुट प्रोफाइल पर आधारित होता है जो विषैले तत्वों, पारिस्थितिकीय, अनुवांशिक और जीवविज्ञानी मानदंडों के साथ एकीकृत होते हैं। प्रतिरोध की सम्भावनाओं वाले नमूनों को प्रतिरोध की जोखिम की गणना और पूर्व-सक्रिय कीटाणु प्रतिरोधक प्रबन्धन( इन्सेक्ट रेजिस्टेंस मैनेजमेंट,आईआरएम) रणनीतियों के आधार पर विकसित किया जाना चाहिए। महिको द्वारा बीटी-बैंगन के इकोसिस्टम में परम्परागत बैंगन में 5 प्रतिशत संरचनाकृत आश्रय रणनीति प्रस्तावित किया गया है। यह बुनियादी सरलतम अनुमानों पर आधारित है, पारिभाषित अल्गोरिदम्स और नमूनों के आधार पर नहीं।

3. बैंगन के हानिकारक कीटाणुओं की पारिस्थितिकी, जीवविज्ञानी, अनुवांशिक और आबादी की गतिशीलता के बारे में समेकित रिपोर्ट की आवश्यकता है जो अब तक उपलब्ध है। पारिस्थितिकी, जीवविज्ञानी और आबादी की गतिशीलता के आधार पर बनावटी नमूने विकसित किए जाने चाहिए ताकि नए कीटाणुओं की उत्पत्ति को रोकने के साथ प्रमुख कीटाणुओं में प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से रोकने के लिये उपयुक्त रणनीति तैयार की जा सके।

यह विवरण इंगित करता है कि अधिक परीक्षण की जरूरत है जो सुचिन्तित, व्यापक रूप से स्वीकृत और स्वतंत्र रूप से संचालित हो। ‘बीकानेरी नरमा’ भी सार्वजनिक तौर पर अच्छे शोध को मजबूत बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

जीईएसी की प्रक्रिया में शुद्धता पर ही अनेक सन्देह व्यक्त किए गए हैं। भारत के एक प्रमुख जैव-तकनीकविद डॉ पीएम भार्गव ने भी सवाल खड़े किये। ये देश में ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ शब्द का प्रयोग करने वाले पहले लोगों में है और जो जीईएसी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामित हैं। उन्होंने ईसी-2 रिपोर्ट की बिन्दुवार विस्तृत समीक्षा की है जिसके आधार पर बीटी-बैंगन के व्यवसायीकरण के बारे में जीईएसी की सिफारिशें आई। डॉ. भार्गव ने दावा किया है कि ईसी-2 के अध्यक्ष उनके आँकलन से सहमत हुए कि महिको द्वारा आठ आवश्यक जाँच नहीं किए गए हैं। दूसरा तथ्य मेरे ध्यान में लाया गया कि जीईएसी द्वारा 2006 में गठित एक विशेषज्ञ समिति (ईसी-1) ने अनेक जाँच संचालित करने के लिये कहा था, पर ईसी-2 के एक तिहाई सदस्य (जो ईसी-1 के सदस्य भी थे) ने बीटी-बैंगन का मूल्यांकन करते हुए उन अध्ययनों की आवश्यकता को नकार दिया। मैं, जीईएसी ने जिस तरह से कार्य किया, उसकी अन्त्यपरीक्षण करने का प्रस्ताव नहीं करता।7 कई लोगों ने एक स्वतंत्र अनुवांशिक अभियंत्रण नियामक की माँग की है। एक ‘राष्ट्रीय जैव-तकनीक नियामक प्राधिकरण’ (नेशनल बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी ) करीब छह वर्षों से चर्चा में है लेकिन उसे अभी जमीन पर आना है। ऐसे किसी प्राधिकरण को पेशेवर, विज्ञान आधारित और सरकार से स्वतंत्र होना होगा। उसके पास सभी आवश्यक जाँच शुद्धता और निष्पक्षता से संचालित करने की सुविधाएँ होनी चाहिए। ऐसी किसी संस्था के अभाव में जीईएसी की सीमाओं के बारे में तर्कों की अनदेखी नहीं की जा सकती।

यहाँ पर्यावरण और विकास के बारे में ‘रियो घोषणापत्र’ की धारा-15 को याद करना भी प्रासंगिक होगा जो एहतियाती सिद्धान्त की चर्चा करता है। इसके अनुसार ‘‘जब अपूरणीय क्षति का खतरा हो, तो पूर्ण वैज्ञानिक सुनिश्चितता नहीं होने को, पर्यावरणीय क्षति रोकने के किफायती उपाय नहीं अपनाने का कारण नहीं बताया जा सकता।

कई देशों ने खासकर यूरोप में जीएम खाद्य पदार्थों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। मैंने चीन में अपने समकक्ष से बात की और उन्होंने मुझे बताया कि चीन की नीति जीएम तकनीक पर शोध को प्रोत्साहन देने के साथ ही खाद्य फसलों में इसकी प्रस्तुति के मामले में अत्यधिक सतर्कता बरतने की है। वैसे चीन का बीटी-कॉटन सम्पूर्णतः घरेलू स्तर पर विकसित है। भारत का मामला एकदम उल्टा है। चीन में जीएम तकनीक कार्यक्रम बहुत ही जोरदार तरीके से सार्वजनिक कोष से सम्पोषित है, जैसा भारत में नहीं है। यह सही है कि बीटी-कॉर्न और बीटी-सोया अमेरिका में व्यापक पैमाने पर उपलब्ध है, पर इसका अनुकरण करने की मजबूरी हमारे लिये नहीं है।

कुछ वैज्ञानिको और नागरिक संगठनों ने संकेत दिया है कि जीईएसी प्रक्रिया ने जैव-सुरक्षा के बारे में कार्टागेना समझौता का उल्लंघन किया है जिसका भारत हिस्सेदार है। खासकर जीएम खाद्य पदार्थों को प्रस्तुत करने के पहले सार्वजनिक परामर्श करने के प्रावधान और जोखिम आकलन के व्यापक सिद्धान्तों का उल्लंघन हुआ है। यहाँ पर्यावरण और विकास के बारे में ‘रियो घोषणापत्र’ की धारा-15 को याद करना भी प्रासंगिक होगा जो एहतियाती सिद्धान्त की चर्चा करता है। इसके अनुसार ‘‘जब अपूरणीय क्षति का खतरा हो, तो पूर्ण वैज्ञानिक सुनिश्चितता नहीं होने को, पर्यावरणीय क्षति रोकने के किफायती उपाय नहीं अपनाने का कारण नहीं बताया जा सकता। इसके अलावा रिकोम्बिनैट-डीएनए पौधों से निकले खाद्य पदार्थों के खाद्य-सुरक्षा आकलन को संचालित करने के लिये ‘कोडेक्स एलिमेंटारियस मार्गदर्शिका’ की धारा-45 कहती है कि परीक्षण स्थल ऐसा होना चाहिए जो उन पर्यावरणीय परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व कर सके जिनके अन्तर्गत पौधे की किस्मों को उपजाया जाना है। परीक्षण स्थलों की संख्या यथेष्ट होनी चाहिए जिससे उस पर्यावरणीय संयोजनात्मक लक्षणों का सटीक आकलन हो सके। इसी प्रकार, परीक्षण यथेष्ट संख्या में सन्तति के साथ संचालित होना चाहिए ताकि प्रकृति में विभिन्न किस्म की परिस्थितियों के बीच सम्मिलित होने का पर्याप्त अवसर मिल सके। पर्यावरण के प्रभावों को न्यूनतम करने के लिये और पौधे के किस्म के भीतर प्राकृतिक रूप से होने वाले जेनोटाइपिक विचलन के प्रभाव को कम करने के लिये प्रत्येक परीक्षण स्थल को दोहराया जाना चाहिए। पौधों को यथेष्ट संख्या में नमूना चुनना चाहिए और विश्लेषण की पद्धति पर्याप्त संवेदनशील और विशिष्ट होनी चाहिए ताकि प्रमुख अवयवों में विचलन का पता चल सके। ऐसा लगता है कि वर्तमान मानदण्ड जिसके द्वारा जीईएसी ने बीटी-बैंगन को अनुमोदन देने का फैसला किया, इन वैश्विक नियामक मानदण्डों जिसका भारत हिस्सेदार है, के अनुरूप नहीं है। मेरे पास बीटी-बैंगन के बारे में गम्भीर सन्देह व्यक्त करते हुए अमेरिका, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों के ईमेल आये जिनमें भारत में किये गए परीक्षण के तरीकों पर चिन्ता जताई गई थी। उनमें से निम्नलिखित का उल्लेख मुझे करना चाहिए:-

(1) प्रोफेसर जीई सेरालिनी, फ्रांस। जिन्होंने एक विस्तृत रिपोर्ट में ईसी-2 रिपोर्ट की अनेक गड़बड़यों की ओर संकेत किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि ‘मनुष्यों और मवेशियों के स्वास्थ्य पर जोखिम बहुत अधिक है जिसे जीएम बैंगन के व्यावसायीकरण का फैसला करने वाले अधिकारियों को देखना चाहिए।

(2) डॉ डोउग गुरैन-शेरमन, यूनियन ऑफ कनसर्न्ड साइंटिस्ट, वाशिंग्टन डीसी। जो कहते हैं कि ‘‘तेरह वर्षों के दौरान संकलित रिकार्ड दिखाता है कि कॉर्न की कुल उपज में 14 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई जिसमें बीटी-कॉर्न किस्मों द्वारा उपज की बढ़ोतरी में केवल 4 प्रतिशत का योगदान रहा”। डॉ गुरैन-शेरमन ने ईसी-2 में बीटी-बैगन के जीन प्रवाह का मूल्यांकन करने में गम्भीर गड़बड़ी को रेखांकित किया है।

(3) प्रोफेसर एलिसन स्नो और प्रोफेसर नॉर्मन इल्स्ट्रैंड, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी। जिन्होंने बीटी- बैंगन से जंगली और खरपतवार की ओर जीन-प्रवाह को लेकर ईसी-2 में अनेक कमियों को रेखांकित किया है।

(4) डॉ निकोलस स्टोरर, डो एग्रो साइंसेज ( एक निजी अमरीकी कम्पनी, बहुत हद तक मोनसैंटो जैसी)। जिन्होंने कहा कि बीटी-बैंगन से पर्यावरण या मनुष्य और मवेशी के स्वास्थ्य पर अतार्किक ढंग से विपरीत प्रभाव पड़ने का जोखिम नहीं है, लेकिन प्रतिरोधक प्रबन्धन रणनीतियों का सतर्क कार्यान्वयन जरूरी होगा। संकेत करते हैं कि बीटी-तकनीक को बैंगन पर हमला करने वाले लेपिडोप्टेरॉन कीड़ों का अचूक निदान नहीं माना जा सकता।

(5) डॉ जैक हीनेमैन, यूनिवर्सिटी ऑफ कैंटरबरी, न्यूजीलैंड। जो बीटी-कॉटन की उपज में लगातार बढ़ोतरी के दावों पर सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि बीटी-बैंगन पर भारत में हुए परीक्षण सतर्क अन्तर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप नहीं हैं।

(6) डॉ डेविड एन्डोव, यूनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा, यूएस। जो कहते हैं कि ईसी-2 रिपोर्ट को उन्होंने जितना पढ़ा है उससे पर्यावरण जोखिम आँकलन के पर्याप्त होने पर प्रश्न उठते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे पर्यावरण जोखिम आँकलन के गलत हो

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