अब ‘जंगल’ भी निजी हाथों में देने पर विचार कर रही है सरकार

24 Sep 2015
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अप्रैल 2007 में विधानसभा में पेश लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1991 से 1997 के बीच चरखी दादरी, फिरोजपुर झिरका, नारनौल, रेवाड़ी तथा सोहना डिवीजनों में 447.90 हेक्टेयर में जो पौधे लगाए गए उनके जीवित रहने का प्रतिशत वन विभाग ने 60 से 95 तक बताया जबकि मौके पर जाँच से पता चला कि यह प्रतिशत कहीं भी 66 से अधिक नहीं था। कुछ जगहों पर तो मात्र 32 फीसदी पौधे ही जीवित मिले।

वनों का क्षेत्रफल बढ़ाने में असफल रही केन्द्र सरकार अब देश के 40 फीसदी खुले व झाड़ीदार वनों (डीग्रेडेड फॉरेस्ट) को निजी हाथों में देने का विचार कर रही है। यानी धीरे-धीरे सभी प्राकृतिक सम्पदाओं को व्यवसायियों को सौंपे जाने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है। तर्क यह दिया जा रहा है चूँकि सरकार इन जंगलों का रख-रखाव तथा विस्तार नहीं कर पा रही अतः उन्हें निजी हाथों में सौंप दिया जाए।

ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार तो बहुत से क्षेत्रों में विफल है तो क्या वे सारे क्षेत्र निजी हाथों में सौंपे जाएँगे? निजी कम्पनियाँ बिना मुनाफे के जंगलों का रख-रखाव क्यों करेंगी? जहाँ उद्देश्य मुनाफा होगा वहाँ जंगलों का तबाही निश्चित है। वे उसमें से मुनाफा निकालने के लिए प्राकृतिक वनों की वनस्पतियों के साथ छेड़छाड़ जरूर करेंगी जिसका प्रतिकूल असर पर्यावरण पर पड़ना बिल्कुल तय होगा जबकि वनों का मुख्य उद्देश्य ही है कि मूल पर्यावरण को बचा कर रखा जाए। इसके अलावा जंगलों पर आश्रित उन जनजातियों का क्या होगा जिन्हें कम्पनियाँ अपने इलाकों में घुसने भी नहीं देंगी।

इस सिलसिले में केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय ने राज्यों से कहा है कि सरकार के पास वनों के मैनेजमेंट के लिए संसाधन नहीं हैं। एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर के अनुसार पत्र में बताया गया है कि किस प्रक्रिया से वन निजी कम्पनियों को सौंपे जा सकते हैं जो “वनों में पौधरोपण करेंगी और लकड़ी का दोहन करेंगी।”

इस पत्र से पता चलता है कि वर्षों तक लॉबिंग करने के बाद अंततः वन आधारित उद्योग सरकार को अपने चंगुल में लेने में सफल हो गए हैं।

पत्र में कहा गया है कि “ऐसा महसूस किया गया कि वर्तमान राष्ट्रीय वृक्षारोपण कार्यक्रम संसाधनों, क्षमताओं, तकनीकी उत्थान तथा पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मचारियों के अभाव के कारण अपेक्षित नतीजे नहीं दे सका है। ऐसे में आवश्यकता है कि प्राइवेट सेक्टर का सहयोग लेने के साथ ही अन्य विकल्पों पर भी ध्यान दिया जाए, ताकि देश के वन परिदृश्य को सुधारा व बढ़ाया जाए।”

यह बात सही है कि राष्ट्रीय वृक्षारोपण कार्यक्रम अपने उद्देश्यों में सफल नहीं रहा लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं निकलता कि वनों को निजी हाथों में सौंप दिया जाए। ऐसा कदम और भी गम्भीर खतरों से भरा हुआ होगा। वर्ष 2011 में इंग्लैंड में भी इसी प्रकार का प्रस्ताव आया था और वहाँ भी सरकार वनों को निजी हाथों में सौंपना चाहती थी। इस पर जब ‘यूगौव पौल’ ने सर्वे किया तो पाया कि 84 फीसदी लोग सरकार के निर्णय के खिलाफ थे। साथ ही कई प्रतिष्ठित लोगों ने भी सरकार को लिखा कि वह अपने प्रस्ताव को रद्द करे।

हरियाणा तथा पंजाब में, जहाँ वनों की हालत पहले ही बहुत खराब है, यदि इस निर्णय को लागू किया गया तो बचे-खुचे वनों का तबाह होना भी निश्चित हो जाएगा। 1966 में, जब हरियाणा बना, प्रदेश में वन क्षेत्र 2 प्रतिशत था जो आज 6.83 प्रतिशत है। हालाँकि वनीकरण पर प्रदेश में जितना खर्च अब तक किया जा चुका है उसके मुकाबले वनक्षेत्र में हुई बढ़ोतरी नगण्य है लेकिन फिर भी सरकार की एक जिम्मेदारी तो है।

आवश्यकता इस बात की है कि सरकार वनीकरण पर किए जा रहे खर्च की सही मॉनीटरिंग करे। देखे कि उसका उचित इस्तेमाल हो रहा है या नहीं। कर्मचारियों को प्रशिक्षित करे और साथ ही जिन कमियों को महसूस किया जा रहा है उन्हें पूरा करे। यदि ऐसा होता है तो वर्तमान संसाधनों में ही काफी सफलता हासिल की जा सकती है।

एक उदाहरण देखने से पता चल जाता है कि हरियाणा में वनों की खराब स्थिति के लिए संसाधनों की कमी उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी कि स्टाफ की लापरवाही और मॉनीटरिंग की कमी है। अप्रैल 2007 में विधानसभा में पेश लोक लेखा समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 1991 से 1997 के बीच चरखी दादरी, फिरोजपुर झिरका, नारनौल, रेवाड़ी तथा सोहना डिवीजनों में 447.90 हेक्टेयर में जो पौधे लगाए गए उनके जीवित रहने का प्रतिशत वन विभाग ने 60 से 95 तक बताया जबकि मौके पर जाँच से पता चला कि यह प्रतिशत कहीं भी 66 से अधिक नहीं था। कुछ जगहों पर तो मात्र 32 फीसदी पौधे ही जीवित मिले।

रिपोर्ट में बताया गया कि वन विभाग की व्यवस्था के अनुसार हर फॉरेस्ट गार्ड को अपनी बीट का एक रजिस्टर रखना जरूरी होता है जिसमें दर्ज करना पड़ता है कि उसकी बीट में कितना पौधारोपण हुआ और कितने प्रतिशत पौधे जीवित बचे। सब-डिवीजन स्तर पर भी एक रजिस्टर रखना जरूरी होता है जिसमें हर गाँव की फाइल में पौधों का रिकार्ड होता है। जाँच में पाया गया कि सितम्बर 1998 तक फॉरेस्ट गार्डों ने कोई रजिस्टर ही नहीं बनाया था। जाहिर है कि ऐसे में असलियत का पता लगाया ही नहीं जा सकता था। जब गाँवों की फाइलें देखी गई तो पता चला कि उनमें जीवित पौधों का जो प्रतिशत दिखाया गया उसके मुकाबले असलियत में बहुत कम पौधे जीवित थे।

रिपोर्ट में कहा गया कि इस प्रकार फॉरेस्ट गार्ड व गाँव के रजिस्टर किसी भी आधार पर असलियत बताने की स्थिति में नहीं थे। यहाँ खास बात यह बताने की भी है कि राज्य के प्रिंसीपल चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट ने जनवरी 1992 में एक आदेश जारी कर कहा था कि जहाँ भी जीवित पौधों का प्रतिशत 70 से कम पाया जाएगा वहाँ सम्बन्धित अधिकारी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के अलावा रिकवरी भी की जाएगी। रिपोर्ट के अनुसार 7 साल बाद अगस्त 1999 तक न तो किसी अधिकारी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई और न ही रिकवरी की राशि ही तय की गई।

उपरोक्त उदाहरण बताता है कि जरूरत इस बात की है कि विभाग के हालातों को सुधारा जाए और अधिकारियों व कर्मचारियों को उत्तरदायी बनाया जाए। मात्र इसी से काफी कुछ हासिल किया जा सकता है।

लेखक ईमेल : sshukla03@gmail.com

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