अब मुश्किल है साफ हवा में जीना

air pollution
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प्रदूषण को लेकर जितना खतरा मेट्रो शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों को है, उतना ही खतरा ग्रामीण इलाकों में भी है। रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है कि जहाँ शहरों में औद्योगिक प्रतिष्ठानों और वाहनों के चलते प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है, वहीं ग्रामीण इलाकों में घरेलू ईंधन यथा लकड़ी, गोबर के कंडे या उसे उपले कहें और कृषि उत्पाद जलाने से हवा बेहद जहरीली हो रही है। घरों से निकलने वाला यही धुआँ सबसे ज्यादा जानलेवा साबित हो रहा है।

आज देश प्रदूषण की भयावह स्थिति का सामना कर रहा है। हालात इतने विषम हो गए हैं कि इसे रोकने के सारे उपाय नाकाम साबित हो रहे हैं। इसके चलते लोग जानलेवा बीमारियों के चंगुल में फँसकर अनचाहे मौत के मुँह में जा रहे हैं। प्रदूषण की भयावहता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रदूषण का खतरा अब देश की राजधानी, किसी महानगर, राज्यों की राजधानी या औद्योगिक क्षेत्रों में ही सीमित होकर नहीं रह गया है बल्कि अब उसने गाँव-देहात और छोटे-छोटे कस्बों तक को अपनी चपेट में ले लिया है।

हालात इतने खराब हो गए हैं कि अब इसके चंगुल में देश का हर नागरिक आ चुका है। इसे यदि महामारी कहा जाये तो कुछ भी गलत नहीं होगा। एक अध्ययन में इस बात का दावा किया गया है कि देश की 99 फीसदी आबादी को साँस लेने लायक साफ हवा तक मयस्सर नहीं है। जहाँ तक देश की राजधानी दिल्ली का सवाल है, दिल्ली में वायु प्रदूषण को लेकर केन्द्र व राज्य सरकार के उठाए कदमों को दिल्ली हाईकोर्ट बीते दिनों अपर्याप्त ठहरा चुका है।

हाईकोर्ट का तो यहाँ तक मानना है कि मामला जितना गम्भीर है, सरकारें उतनी ही उदासीन हैं। दिल्ली हाईकोर्ट की यह टिप्पणी उसके आदेशों के अमल न किये जाने पर की गई। कोर्ट का यह कहना कि बार-बार कागजी बातें की जा रही हैं जबकि शहर के हालात में कोई सुधार नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में पिछले दिनों हवा में पीएम 2.5 की मात्रा बेहद खतरनाक स्थिति तक पहुँच गई थी। दीपावली पर यह स्तर 350 यूनिट से भी उपर जा पहुँचा था।

इस बारे में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया की मानें तो देश में बढ़ रही बीमारियों के लिये प्रदूषण एक बहुत बड़ा कारण है। देश-विदेश में इस बारे में पहले भी कई अध्ययन हुए हैं जो प्रदूषण से होने वाली मौतों को चिन्हित करते हैं। इसके बावजूद अक्सर यह देखा गया है कि सरकारी एजेंसियाँ प्रदूषण से होने वाली मौतों के आँकड़ों को स्वीकार तो जरूर करती हैं लेकिन उसके बाद वह उस पर सवाल उठाती हैं। देखा जाये तो असलियत में खतरा जितना बताया जा रहा है, उससे भी वह ज्यादा भयावह है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्रदूषण के लिये सबसे ज्यादा हम ही जिम्मेदार हैं। भले वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो। यह बात बरसों से पर्यावरण विशेषज्ञ बार-बार कहते-कहते थक चुके हैं। अब हालिया रिपोर्ट ने इस तथ्य को प्रमाणित भी कर दिया है। आईआईटी मुम्बई, हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट बोस्टन, अमेरिका, वांग शुजियाओ यूनीवर्सिटी बीजिंग और कोलम्बिया यूनीवर्सिटी कनाडा के शोधकर्ताओं द्वारा बीते दिनों जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 70 फीसदी प्रदूषण का मुख्य कारण मानव जनित गतिविधियाँ हैं। उसके अनुसार घरेलू प्रदूषण का स्तर खतरनाक रूप अख्तियार कर चुका है। इसमें खाना बनाने, घरों को गर्म करने व पानी गर्म करने को लेकर जलाई जाने वाली लकड़ी और अन्य जैविक पदार्थों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

प्रदूषण को लेकर जितना खतरा मेट्रो शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों को है, उतना ही खतरा ग्रामीण इलाकों में भी है। रिपोर्ट में इसका खुलासा किया गया है कि जहाँ शहरों में औद्योगिक प्रतिष्ठानों और वाहनों के चलते प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है, वहीं ग्रामीण इलाकों में घरेलू ईंधन यथा लकड़ी, गोबर के कंडे या उसे उपले कहें और कृषि उत्पाद जलाने से हवा बेहद जहरीली हो रही है। घरों से निकलने वाला यही धुआँ सबसे ज्यादा जानलेवा साबित हो रहा है। खाना पकाने, रोशनी के लिये जलाए जाने वाला बायोमास प्रदूषण का सबसे बड़ा अहम कारण है। सही मायने में यह किसी एक स्रोत से होने वाली मौतों के लिये जिम्मेदार है।

गौरतलब यह है कि यदि इन स्रोतों पर अंकुश नहीं लगाया गया, इन्हें खत्म नहीं किया गया तो आने वाले तीस सालों में यह खतरा डेढ़ गुणा बढ़ जाएगा। बीते सालों में इससे होने वाली मौतों का आँकड़ा 11 लाख को पार कर गया है। आने वाले तीन दशकों में यह 40 फीसदी और बढ़कर तकरीब 36 लाख पहुँच जाएगा।

अगर 2015 में प्रदूषण से हुई मौतों का जायजा लें तो अकेले घरों में जलने वाले ईंधन से दो लाख सत्तर हजार लोगों की मौत हुई। साथ ही 74 लाख सत्तर हजार कार्यदिवस का नुकसान हुआ। आने वाले तीस सालों में 5 लाख 30 हजार लोगों की मौत होने और एक करोड़ सात लाख कार्य दिवस का नुकसान होने की आशंका है।

औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कोयला जलने से 2015 के दौरान 88 हजार लोगों की मौत और 22 लाख कार्यदिवस का नुकसान हुआ। यदि यही हाल रहा तो 2050 तक 3.5 लाख लोगों की मौत होने और 74 लाख कार्यदिवस का नुकसान होने की आशंका है। ताप विद्युतघरों से 83 हजार लोगों की मौत और 22.6 लाख कार्यदिवस का नुकसान हुआ। जबकि 2050 तक 8.3 लाख लोगों की मौत और एक करोड़ अड़सठ लाख कार्यदिवस के नुकसान की आशंका है।

कृषि उत्पाद जलाने के कारण 2015 में 66 हजार मौतें और 18 लाख कार्यदिवस का नुकसान हुआ। 2050 तक 2 लाख 3 हजार लोगों की मौत और 18 लाख कार्यदिवस की हानि होगी। 2015 में वाहनों के धुएँ से 43 हजार लोगों की मौत हुई और 12 लाख 9 हजार कार्यदिवस का नुकसान हुआ। 2050 तक 64 हजार की मौत और 13.2 लाख कार्यदिवस के नुकसान की आशंका है। और यदि निर्माण स्थलों और सडकों पर उड़ने वाली धूल से होने वाली मौतों का जायजा लें तो 2015 में एक लाख लोगों की मौत हुई और 27 लाख कार्य दिवसों का नुकसान हुआ। जबकि 2050 तक यही स्थिति रहने पर 7 लाख 43 हजार लोगों की मौत और एक लाख 51 हजार कार्यदिवस के नुकसान होने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता।

रिपोर्ट की मानें तो देश की तकरीब पूरी आबादी को डब्ल्यूएचओ के पीएम 2.5 मानकों से ज्यादा का प्रदूषण झेलना पड़ रहा है। असल में हवा में पीएम 2.5 का औसत 10 माइक्रॉन प्रति क्यूबिक मीटर से कम होना चाहिए। जबकि प्रदूषण का औसत जोखिम 74 माइक्रॉन प्रति क्यूबिक मीटर तक पहुँच गया है। लेकिन दुखद यह है कि देश की 99.9 फीसदी आबादी ऐसे इलाकों में रहती है जहाँ यह स्तर इसको भी पार कर चुका है।

विडम्बना यह कि 90 फीसदी इलाके डब्ल्यूएचओ के अन्तरिम लक्ष्य जिसमें यह स्तर 35 माइक्रॉन प्रति क्यूबिक मीटर रखा है, उसे भी पार कर चुके हैं। देखा जाये तो 1990 में वायु प्रदूषण का जोखिम 60 माइक्रॉन प्रति क्यूबिक मीटर था जो साल 2015 में 74 माइक्रॉन प्रति क्यूबिक मीटर तक पहुँच गया है। चिन्ता की बात सबसे अधिक यह है कि यह डब्ल्यूएचओं के लक्ष्य से भी दोगुने से ज्यादा है।

अब सरकार कोयला आधारित बिजलीघरों पर नकेल लगाने की कोशिश कर रही है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय कोयला आधारित बिजलीघरों के संचालन के खिलाफ है। उनका कहना है कि या तो यह बिजलीघर उर्त्सजन मानकों का पालन करना सुनिश्चित करें या फिर इन्हें बन्द करें। गौरतलब है कि इन बिजलीघरों में प्रदूषण के मानकों का क्रियान्वयन हो जाये तो पीएम 2.5 के उर्त्सजन में 40 फीसदी की कमी और नाइट्रोजन उर्त्सजन में 48 फीसदी तक की कमी लाई जा सकती है।

मंत्रालय ने बिजलीघरों के लिये कड़े मानक तय किये हैं। इसके तहत पीएम 2.5 का उत्सर्जन 30 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर, सल्फर डाइऑक्साइड एवं नाइट्रोजन की मात्रा 100 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर तथा पारे की 0.03 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रखी गई है। जहाँ तक पराली का सवाल है, सरकार अब पराली से बिजली पैदा करने पर विचार कर रही है। सरकार ने बिजली बनाने के लिये यू.पी., पंजाब, हरियाणा के किसानों को राहत देने के लिये उनसे पराली खरीदने का फैसला किया है। इससे पराली की समस्या का भी समाधान हो जाएगा और बिजली उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी हो सकेगी।

बहरहाल यह होगा तब होगा। हाल फिलहाल तो देश की जनता को प्रदूषण की समस्या से राहत नहीं मिलने वाली। सरकार के रवैए से भी कुछ खास उम्मीद नहीं दिखती। ऐसी हालत में प्रदूषण की चपेट में आये-दिन लोग आते रहेंगे और बीमारियों के चंगुल में फँसकर मौत के मुँह में जाते रहेंगे। हालात इसके जीते-जागते सबूत हैं कि देश में दिन-ब-दिन प्रदूषण से होने वाली मौतों का आँकड़ा बढ़ता ही जाएगा। असलियत में देश मौत के मुहाने पर खड़ा है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।

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