अब सत्याग्रह से ही उम्मीद

20 Apr 2011
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जंतर-मंतर पर यमुना नदी को बचाने के लिए इस समय एक सत्याग्रह चल रहा है। उत्तर प्रदेश के किसान, कई धार्मिक संगठनों से जुड़े स्त्री-पुरुष 15 अप्रैल से वहां डेरा जमाए हैं। कुछ अनशन पर हैं, कुछ उनका साथ देने के लिए एक-एक दिन का अनशन कर रहे हैं, दिन भर भजन कीर्तन चलता है, बीच में किसी आगंतुक का भाषण भी हो जाता है। इस बीच अनशन कर रही कुछ महिलाओं की हालत खराब हुई और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा है। लेकिन हाल में लोकपाल के गठन को लेकर आयोजित अनिश्चितकालीन अनशन को मिले प्रचार से तुलना करें तो ऊंट बनाम खरगोश का उदाहरण भी यहां फिट नहीं बैठेगा। क्यों?

यह अनशन एवं धरना अचानक आयोजित नहीं हुआ है। पिछले 3 मार्च से यमुना नदी को बचाने के लिए इलाहाबाद के संगम तट से जनजागरण एवं यमुना से जुड़ी बस्तियों को अपने साथ जोड़ते हुए पदयात्रा करके ये दिल्ली तक पहुंचे हैं। इन्हें निश्चय ही यह उम्मीद रही होगी कि इतनी लंबी पदयात्रा की गूंज अवश्य सरकार के कानों तक पहुंची होगी और दिल्ली पहुंचने के साथ उनकी मांगों को स्वीकार कर लिया जाएगा।

 

 

यमुना के नाम पर पेटी में जो जल हम देखते हैं, उसमें यमुना के उद्गम स्रोत यमुनोत्री का एक बूंद भी नहीं है। यमुना बिल्कुल सड़े हुए गंदे पानी का बड़ा नाला ही रह गई है। किसी नदी का सड़ जाना वास्तव में उससे जुड़ी सभ्यता-संस्कृति, उससे विकसित जीवन प्रणाली का सड़ जाना है।

इस अभियान का नेतृत्व करने वाले भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भानुप्रताप सिंह प्रश्नात्मक लहजे में कहते हैं कि इतनी लंबी हमारी यात्रा थी, रास्ते में हजारों लोग जुड़ रहे थे, स्थानीय मीडिया में भी समाचार आ रहे थे, क्या इसकी सूचना सरकार को नहीं थी? जल संसाधन मंत्री तो उत्तर प्रदेश के ही हैं। स्थानीय प्रशासनों के अधिकारियों के साथ-साथ खुफिया विभाग ने तो अवश्य अपनी रिपोर्ट भेजी होगी। फिर क्यों नहीं सरकार ने कोई निर्णय किया?

धरना देने वालों का गुस्सा बीच-बीच में फूट पड़ता है। वे कहते हैं कि किसानों, सच्चे धार्मिक संस्थानों की सरकार की नजर में लगता है कोई क्षमता ही नहीं है। अगर ऐसा है तो हम भी अपनी क्षमता दिखाएंगे। हम तो देश की धरोहर यमुना को अविरल और निर्मल बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनकी चेतावनी है कि सरकार ने कदम नहीं उठाया तो हम उप्र में रेल जाम करेंगे। इनका तर्क है कि रेल तो केंद्र सरकार की है।

राजधानी दिल्ली में यमुना के नाम पर पेटी में जो जल हम देखते हैं, उसमें यमुना के उद्गम स्रोत यमुनोत्री का एक बूंद भी नहीं है। यमुना बिल्कुल सड़े हुए गंदे पानी का बड़ा नाला ही रह गई है। किसी नदी का सड़ जाना वास्तव में उससे जुड़ी सभ्यता-संस्कृति, उससे विकसित जीवन प्रणाली का सड़ जाना है। जाहिर है, नदी का उद्धार उस क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति का उद्धार है।

 

 

 

 

हथिनी कुंड के मामले को पता नहीं सरकार क्यों इतना कठिन और दु:साध्य मान रही है, जबकि यह उसके वश में है। अगर इस समय हथिनी कुंड से पानी छोड़ दिया जाए तथा दीर्घकालिक मांगों का वचन दिया जाए तो इनका सत्याग्रह समाप्त हो सकता है। ऐसा करना सबके हित में है।

गंगा और यमुना का आर्थिक-सामाजिक महत्व तो था ही, यह भारत की सांस्कृतिक पहचान भी रही है। इसमें दो राय नहीं कि यमुना को दुर्दशा से पूरी तरह मुक्त करने के लिए समय चाहिए। मसलन, इससे जुडऩे वाले शहरों के मल-मूत्र सहित सीवरों के पानी को नदी में आने से रोकने के लिए कुछ नए ट्रीटमेंट प्लांट लगाने होंगे एवं पुराने प्लांटों की दिशा बदलनी होगी। उनके लिए अलग से नाला बनाकर शोधित जल को सिंचाई के लिए खेतों तक भेजना होगा। दिल्ली एवं राजधानी क्षेत्र में हिंडन कट सहित शाहदरा व अन्य नालों के यमुना में प्रवाह को रोकने तथा वजीराबाद और ओखला बांधों के बीच नदी के साथ सीवरेज प्रणाली का निर्माण करना होगा।

सत्याग्रहियों को भी पता है कि इसमें समय लगेगा, पर उन्हें लगना तो चाहिए कि वाकई सरकार इस दिशा में सचेष्ट है। कम से कम इस समय यमुना में पर्याप्त पानी छोड़कर उसे नाले की जगह फिर नदी के रूप में परिणत करना तो सरकार के वश का है। मांग यह है कि यमुना को बचाने के लिए हथिनी कुंड से पर्याप्त पानी छोड़ा जाए।

हथिनी कुंड के मामले को पता नहीं सरकार क्यों इतना कठिन और दु:साध्य मान रही है, जबकि यह उसके वश में है। अगर इस समय हथिनी कुंड से पानी छोड़ दिया जाए तथा दीर्घकालिक मांगों का वचन दिया जाए तो इनका सत्याग्रह समाप्त हो सकता है। ऐसा करना सबके हित में है। इतना करने मात्र से यमुना के स्वरूप में भारी अंतर आ जाएगा।

फोटो साभार - नई दुनिया
केंद्र सरकार को यह समझना चाहिए कि यमुना पर किसी एक प्रदेश का आधिपत्य नहीं हो सकता। हथिनी कुंड के कारण वहां तक आने वाली यमुना का तीन-चौथाई जल अकेले हरियाणा प्रांत को मिलता है। जाहिर है, यह ढांचा केवल दिल्ली और उत्तर प्रदेश के लिए ही नहीं, स्वयं यमुना के लिए भी खलनायक बन गया है। लंबे समय से हथिनी कुंड के माध्यम से पानी के बंटवारे में बदलाव की मांग होती रही है।

वास्तव में यमुना की धारा को अविरल एवं निर्मल बनाए रखना सरकार का दायित्व था। उसके दायित्व विचलन के भयावह परिणामों को सामने लाकर उसके समाधान के लिए सत्याग्रह करने वालों की मांगे अनसुनी की जा रही है। क्या किसी दृष्टि से यह व्यवहार उचित है? सरकार को अतिशीघ्र पहल करके इनके सत्याग्रह का सम्मानजनक अंत करना चाहिए। हम यही कामना करेंगे कि कम से कम उनके अनशन से तो सरकार के रवैए में परिवर्तन आए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

awadheshkmr@yahoo.com
 

 

 

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