अभाव एवं बर्बादी से बनती पानी की राजनीति

16 Jan 2013
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धरती पर सभी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है मगर किसी के भी लालच के लिए काफी नहीं।– महात्मा गांधी

विश्व की सबसे ज्यादा मूल्यवान वस्तु पानी है, यानी स्वच्छ और ताजा जल। यद्यपि पृथ्वी का अधिक से अधिक भाग जल से ढका हुआ है, बावजूद इसके 97 फ़ीसदी जल खारा है अर्थात पीने योग्य नहीं है। यानी धरती पर कुल 3 प्रतिशत पानी मानव के उपयोग के लिए उपयुक्त है परंतु उसमें से भी तकरीबन 2/3 भाग हिमखंड और ध्रुवीय बर्फ के रूप में जमा हुआ है। बाकी पीने योग्य जल ज़मीन के अंदर तथा कुछ क्षणिक भाग हवा में और फिर ज़मीन की ऊपरी सतह पर है। यद्यपि इसका नवीकरण होता रहता है, लेकिन पृथ्वी पर पाया जाने वाला स्वच्छ जल सीमित है, जो भूगर्भ में, वातावरण में या सतह पर उपलब्ध है। मनुष्य एवं पशु धन समेत सभी जीवों, या फसल इत्यादि के लिए भी मीठा पानी एक आधारभूत जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम पानी की उपलब्धता को एक बुनियादी मानव अधिकार और शांति की पूर्व शर्त मानता है। विकास के आधुनिक मॉडल ने मीठे पानी की जरूरत को और अधिक बढ़ा दिया है। आज विकासशील देशों के एक अरब लोगों के लिए साफ पानी मुहाल हो गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र संघ ने धरती के सूखे क्षेत्र में स्वच्छ पेयजल के भौतिक अभाव या जहां अधिसंरचना की अपर्याप्तता है वहां इसके कारण कुछ क्षेत्रों में इसकी आर्थिक कमी के रूप में चित्रित किया है। वस्तुतः पानी की कमी प्राकृतिक घटना हो सकती है और मानव-निर्मित भी, ऐसे जल-कुप्रबंधन से बनी हो जिसे टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता। पानी के अभाव की समस्या दिनों दिन बढ़ती ही चली जा रही है।

चूंकि पानी जीवन और आजीविका के केंद्र में है, संसाधन के रूप में सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में उसका आ जाना स्वाभाविक है। पानी की उपलब्धता अलग-अलग समय में और अलग-अलग स्थान पर अलग-अलग रहती है और इस वजह से कहीं इसका अभाव होता है और सूखे की समस्या है तो कहीं बाढ़ जैसी आपदा आ जाती है। जिन क्षेत्रों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं, वहां सामाजिक अशांति की आशंका होती है। जहां-तहां प्राकृतिक जलाशय या निकासी के नहरों का अतिक्रमण हो रहा है या उनका अलग तरह से उपयोग किया जा रहा है जिसके कारण विवाद बनते हैं। यह सिर्फ भौतिक संसाधन पर दावे का ही सवाल नहीं, वरन् इसका सांस्कृतिक पक्ष भी है। इनके आकार और प्रकृति में हाल के वर्षों में काफी बदलाव आया है जिसका कारण एक ओर बड़े-बड़े बांध हैं तो दूसरी ओर पानी का बाजार और निजी आपूर्ति प्रणालियां हैं। इस प्रक्रिया में पानी पर दावा जताने वाले समुदायों का स्वरूप भी बदल रहा है। राजनीतिक स्थायित्व एवं सामाजिक सौहार्द की दृष्टि से पानी बड़ा महत्वपूर्ण है और जल संकट सिर्फ सामाजिक अस्थिरता को जन्म देगा।

जल और जल की कमी


विश्व की सबसे ज्यादा मूल्यवान वस्तु पानी है, यानी स्वच्छ और ताजा जल। यद्यपि पृथ्वी का अधिक से अधिक भाग जल से ढका हुआ है, बावजूद इसके 97 फ़ीसदी जल खारा है अर्थात पीने योग्य नहीं है। यानी धरती पर कुल 3 प्रतिशत पानी मानव के उपयोग के लिए उपयुक्त है परंतु उसमें से भी तकरीबन 2/3 भाग हिमखंड और ध्रुवीय बर्फ के रूप में जमा हुआ है। बाकी पीने योग्य जल ज़मीन के अंदर तथा कुछ क्षणिक भाग हवा में और फिर ज़मीन की ऊपरी सतह पर है। यद्यपि इसका नवीकरण होता रहता है, लेकिन पृथ्वी पर पाया जाने वाला स्वच्छ जल सीमित है, जो भूगर्भ में, वातावरण में या सतह पर उपलब्ध है। धरती की सतह पर का जल गड्ढे, तालाब और नदियों में संग्रहीत है जो आमजन सामान्य रूप से प्रयोग में लाते हैं। ज़मीन के अंदर पाये जाने वाले पानी का स्रोत ऊपरी सतह के पानी से जुड़ा हुआ है। पीने योग्य स्वच्छ जल पूरे संसार में एक समान नहीं पाया जाता है। दुनिया के आधे से अधिक जल की आपूर्ति सिर्फ नौ देशों में होती है। उन देशों का नाम है अमेरिका, कनाडा, कोलम्बिया, ब्राजील, कांगो, रूस, भारत, चीन और इंडोनेशिया। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु रिपोर्ट के अनुसार, एशिया के नदियों का सबसे बड़ा स्रोत हिमालय ग्लेशियर सन् 2050 तक विलुप्त हो जाएगा। स्वाभाविक तौर पर मानव समाज की स्थिरता के लिए पानी के लिए प्रतिस्पर्धा खतरे की घंटी है।

भूमंडलीय जल संकट के कुछ महत्वपूर्ण कारकों में बढ़ती जनसंख्या और खाद्य पदार्थ, नक़दी फसल की बढ़ती मांग, शहरों की अपार वृद्धि तथा जीवन स्तर में अनवरत सुधार है। मानव हस्तक्षेप की वजह से मीठा पानी हमेशा मिलना संभव नहीं है। प्राकृतिक नियम के विपरीत अत्यधिक दोहन करेंगे तो स्वच्छ जल बनने की प्रक्रिया ध्वस्त हो जाएगी और सूखा ही सूखा दिखेगा। कई देशों में जल स्तर काफी नीचे चला गया है, उत्तरी चीन, अमेरिका और भारत इसके उदाहरण है। भारत के बहुत सारे हिस्सों में जल स्तर तकरीबन 300 मीटर से अधिक नीचे चला गया है। एक समय ऐसा आएगा कि पानी की कमी के कारण खाद्यान्न की खेती को कम करना होगा। यही वजह है कि चीन में अत्यधिक पंपिंग सेट के बावजूद अनाज उत्पादन में कमी हो रही है। संसार के विभिन्न स्थानों पर 48,000 डैमों का निर्माण किया गया और बहुत सारे निर्माणाधीन हैं। इन मानवीय हस्तक्षेपों की वजह से पानी की गुणवत्ता और उपलब्धता घटी है। प्राकृतिक नदियों के बहाव के बदले डैम, यानी पानी और बिजली सुरक्षा के नाम पर एक खर्चीली व्यवस्था। ज़मीन की मिट्टी में नमी की कमी के कारण खराब खेती और जंगल खत्म होने की स्थिति बनती जा रही है। धरातल पर पाए जाने वाला पानी प्रदूषित हो रहा है, क्योंकि किसान जहरीले रसायन का प्रयोग कर रहे हैं। वहीं शहरों के पास उद्योग के अपशिष्ट और घरों के गंदे पानी का बहाव धड़ल्ले से नदियों में किया जा रहा है।

जल प्रबंधन का इतिहास


तकरीबन 6000 वर्ष पहले मानव आबादी की शुरुआत हुई और तब से पानी के लिए दोहरी जंग करनी पड़ रही है। पहली जंग बाढ़ के प्रकोप से बचने के प्रयास के रूप में है, वहीं दूसरी तरफ आदमी घरेलू उपयोग और खेत में पटवन के लिए पानी की समस्या से जूझता है। परिणामस्वरूप जल संबंधी तकनीक का विकास मानव की प्रथम उपलब्धि मानी जाती रही है। जल संचय जल भंडारण के लिए सबसे पुराने जलाशय की खोज पैलेस्टाइन और ग्रीस में हुई थी। बारी मात्रा में पानी संग्रहण के लिए बना हुआ पहला डैम जावा (जार्डन) में 3000 ईसा पूर्व में मिला। नील, टिगरिस, यूफ्रेटस, सिंधु एवं हुआंग की घाटियों में प्रथम महान सभ्यताओं का विकास श्रेष्ठ जल प्रबंधन प्रणाली की वजह से हो सका।

जल प्रबंधन के संदर्भ में पीने के पानी और खेती कार्य के लिए जल संग्रहण की भारत में समृद्ध परंपरा रही है जिसे पानी की कमी की चुनौती से निबटने के लिए पुनर्जीवित करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए शुद्ध पीने का जल प्राकृतिक झरनों से निकाला जाता था- बरसाती जल को छप्पर के माध्यम (राजस्थान के कुण्ड) से, ज़मीन के अंदर कुआं या सीढ़ीदार कुआं (बावड़ी, राजस्थान), केरल में समानांतर सुरंगम कुआं तथा मध्य-पूर्व के पठार में सीढ़ीनुमा खेती। तमिलनाडु में बरसाती पानी को तालाबों के समान बनाया जाता था, महाराष्ट्र के बाँधरस और बिहार के आहर। यदि पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में गुल और कुल पानी के निकास नहर थे तो बिहार में पइन जैसी खेतों में पानी पहुंचाने की विधि थी।

स्वातंत्र्योत्तर काल में राज्य ने पहले वाली भूमिका को ही आगे बढ़ाया। किसी भी प्रकार के जल के लिए राज्य पर पूरी निर्भरता है। यह एक प्रकार की पराश्रयी संस्कृति को बढ़ावा देना है। चूंकि नौकरशाही के द्वारा काम करने वाले राज्य में स्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति का अबाव होता है। इस कारण नदियों का दुरुपयोग हो रहा है, नदियों के बेसिन का अधःपतन हो रहा है और नदियां प्रदूषित हो रही हैं। बड़े बांध जल भंडारण के बड़े स्रोत हैं और नहर उनके वितरण के मार्ग। बांधों से बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है और नहरों से मृदा क्षरण। भारत में 19वीं शताब्दी और उसके बाद जल प्रबंधन के संदर्भ में एक दूसरे से जुड़े दो तरीके अपनाए गए। प्रथम, राज्य की यह नीति बनी कि सिर्फ उसके द्वारा ही जल की व्यवस्था होगी। औपनिवेशिक राज्य द्वारा जल संसाधन पर नियंत्रण का केंद्रीयकरण था। इसके कारण समुदाय और सामान्य जन प्राथमिक रूप से पानी के प्रबंधन से कट गए। साथ ही बरसाती पानी और बाढ़ के पारंपरिक उपयोग में कमी आई। इस अवस्था में ज़मीन के ऊपरी सतह पर के पानी के इस्तेमाल पर निर्भरता बढ़ी खासतौर से नदियों और कम गहराई पर ज़मीन के अंदर के पानी पर। क्रिसटोफर व्ही हिल ने कुपर हिल्स के रॉयल इंजीनियरिंग कॉलेज के अपने अध्ययन में तर्क दिया है कि औपनिवेशिक प्रशिक्षित अभियंता को गहरा विश्वास था कि स्थानीय लोगों का ज्ञान जल प्रबंधन के संदर्भ में सही नहीं है और इसलिए हाइड्रोलिक व्यवस्था जरूरी मानी जाने लगी और संभव भी। रोहन डी’ सूजा के अनुसार किसी क्षेत्र का बाड़ से डूबना औपनिवेशिक शब्दकोश में राजस्व की हानि थी न कि ऐसी प्रक्रिया जिसमें एक मौसम की हानि की और ज्यादा क्षतिपूर्ति अक्सर आने वाली खेती में हुआ करती थी। मद्रास प्रेसिडेंसी के मुख्य अभियंता सर आर्थर कॉटन ने टिप्पणी की कि भारत में लोगों और प्रकृति में एक साम्य है- साम्राज्यवादी शासन की प्रजा की तरह नदियां (जैसे उड़ीसा की महानदी) भी शरारती हैं। और आज्ञा नहीं मानने वाली, जिन्हें निगरानी और अनुशासित करने की जरूरत है। महानदी के “डेल्टा के अद्वितीय चरित्र को नकारते हुए उसका दावा था कि डेल्टा सारी दुनिया में डेल्टा है और मुझे हर जगह उन्हें पहचानने की आवश्यकता नहीं।” कूपर हिल के लोगों ने सारी दुनिया में (भारत, मिस्र, युगाण्डा और वेस्ट इंडीज में) जिस तरह के पर्यावरणीय समझ को लादा वह युरोप के ऐतिहासिक और सामाजिक विकास से निकला हुआ था। इसके पीछे बौद्धिक जागरण और औद्योगिक क्रांति का वह सिद्धांत था जिसमें प्रगति का अर्थ था प्रकृति पर विजय प्राप्त करना और उसका सफल प्रबंध करना। उनका विश्वास था कि प्रकृति ईसाई सभ्यता के सामने कुछ भी नहीं। उनका प्रशिक्षण यूरोप की उन नदियों की घाटियों में हुआ था जहां बारिश सामान्य थी और जल प्रबंधन अपेक्षाकृत आसान। कूपर हिल्स के रॉयल इंजीनियरिंग कॉलेज की शिक्षा ने महज भारत के किसानों को ही प्रभावित नहीं किया वरन ब्रिटिश साम्राज्य की पूरी आबादी को प्रभावित किया।

नहर, बांध या एनीकट जैसी जल संग्रहण प्रौद्योगिकी कृषि से होने वाली राजस्व वसूली में वृद्धि एवं स्थिरता से जुड़ी हुई थी। पुरानी अस्थायी व्यवस्था को सुधारकर बड़े पैमाने पर औपनिवेशिक स्थायी सिंचाई व्यवस्था को शुरू किया गया। 1833 से 1866 के बीच उत्तरी भारत में ऊपरी गंगा एवं ऊपरी बड़ी दोआब के बीच और दक्षिण भारत में गोदावरी एवं कृष्णा एनीकट के बीच बड़ी नहर व्यवस्था का निर्माण आरंभ हुआ। 1868-74 में बिहार में सोन नहर का निर्माण हुआ। उत्तर बिहार में नदियों की धार में परिवर्तन के कारण अक्सर फसल को नुकसान होता था। अस्थायी रूप से वहां बाढ़ से बचाव की व्यवस्था की गई मगर बाद में उन्नीसवीं सदी के अंत तक और तीव्रता से बाढ़ का प्रकोप लौटा। स्थानीय प्रभावशाली लोगों के साथ मिलकर पानी को नियंत्रित करने के लिए नए नियम बनाए गए। नहर प्रणाली के आने के साथ पारंपरिक सिंचाई और कुएँ-तालाब जैसी जल-संग्रहण व्यवस्था की उपेक्षा होने लगी और कालांतर में वे बर्बाद हो गए।

स्वातंत्र्योत्तर काल में राज्य ने पहले वाली भूमिका को ही आगे बढ़ाया। किसी भी प्रकार के जल के लिए राज्य पर पूरी निर्भरता है। यह एक प्रकार की पराश्रयी संस्कृति को बढ़ावा देना है। चूंकि नौकरशाही के द्वारा काम करने वाले राज्य में स्थितियों को बदलने की इच्छाशक्ति का अबाव होता है। इस कारण नदियों का दुरुपयोग हो रहा है, नदियों के बेसिन का अधःपतन हो रहा है और नदियां प्रदूषित हो रही हैं। बड़े बांध जल भंडारण के बड़े स्रोत हैं और नहर उनके वितरण के मार्ग। बांधों से बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है और नहरों से मृदा क्षरण। इस हद तक भूगर्भजल की मात्रा और गुणवत्ता में ह्रास हुआ है कि ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में भारत के कई भाग में सूखे की स्थिति बनती रहती है। 2011 में बिहार के बीस जिलों में सूखा घोषित किया गया। सीमित आपूर्ति और बढ़ती मांग के कारण पानी की उपलब्धता कठिन और महंगी होती जा रही है।

यदि औपनिवेशिक शासन में भारत का शासन इंग्लैंड के हित को ध्यान में रखकर किया जाता था तो स्वतंत्रता के बाद लगता है कि यह शासन विश्व बैंक और प्रभुत्वशाली देशों के निर्देश पर कॉरपोरेट सेक्टर एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में चल रहा है। 1990 के बाद के उदारीकरण ने आर्थिक विषमता को और बढ़ाया है जिसने देश के भीतर और देशों के बीच हिंसा को बढ़ाया है। जहां जल आपूर्ति टैंकर के द्वारा होती है वहां इसके लिए प्रतिद्वंद्विता सामाजिक तनाव का अतिरिक्त कारण बनती है, खासतौर पर महिलाओं के बीच। यह वस्तुतः गांव और समुदायों की संस्कृति को बदल रहा है। भूमि एवं वन में स्वामित्व का सीमांकन अपेक्षाकृत आसान है मगर जल का बहाव तो ज्यादा अनियंत्रित होता है। यह समाज और राजनीति की सीमाओं के परे चला जाता है। जैसी की भविष्यवाणी बहुत लोग करते हैं, संभवतः तीसरा विश्व युद्ध पानी के मुद्दे पर हो।

अपशिष्ट की राजनीति


19वीं शताब्दी में इस शब्द के विकसित होने के साथ ही यह सिंचाई इंजीनियरों के लिए महत्वपूर्ण हो गया। ब्रूनों लैटूर ने कहा है, किसी भी जल अभियंता को इस सिद्धांत को मान कर शुरू करना चाहिए कि अगर जल का रिसाव संभव है, तो यह होगा, जल अभियंताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे जल जैसी ऊर्जा के बेकार होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को रोकने का उपाय करें। अपशिष्ट से बचने की जरूरत का मतलब है स्रोत का अधिकतम उपयोग। यह शब्द औपनिवेशिक राज्य की राजस्व व्यवस्था के लिए खास था, यह ग्रामीण आबादी पर उसकी निर्भरता के लिए भी महत्वपूर्ण था, जो भूमि को राज्य से जोड़ती थी। अपशिष्ट पर नियंत्रण पर्यावरण पर बढ़ते वैज्ञानिक नियंत्रण एवं राज्य द्वारा आदिवासी समुदाय में राजनीतिक जोड़-तोड़ दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। औपनिवेशिक सरकार ने बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं को मंजूरी दी-दामोदर (1921), सोन (1945) तथा महानदी महानदी (1946)। रोहन डी’ सूजा ने टिप्पणी की है कि ऐसी नदी नियंत्रण तकनीक को पारित करना राजनीतिक मजबूरी थी। युद्ध के बाद फैली बेरोजगारी, युद्ध के समय उत्पादित अतिरिक्त इस्पात एवं इस्पात की खपत ने भी ऐसे निर्णय के लिए प्रभावित किया।

जल प्रबंधन के नव-उदारवादी नुस्खे ने केवल निजीकरण को बढ़ावा दिया है, बल्कि राज्य को कॉरपोरेट में बदल दिया है। जल परियोजना की लागत को निकालने एवं लाभ प्राप्त करने के मामले में राज्य अपने को अक्षम पाता है, विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए छूट के अधिकार को समर्पित कर देता है किसी का पक्ष लेने के लिए? अब यह आमतौर से मान लिया गया है कि ट्यूबवेल तकनीक के कारण भविष्य में भारी जल संकट पैदा हो जाएगा।

लीला मेहता ने चिन्हित किया कि न्यूनता न तो निरपेक्ष है और न ही स्वाभाविक, यह समाज से निकली है। जल को नियंत्रित करने के बदलते स्वरूप ने वर्षा को इसी से निबटने के स्थापित व्यवहार को कमजोर कर दिया है। कच्छ में पहले न्यूनता को जीवन की सच्चाई के रूप में स्वीकार किया जाता था, जिससे कम या अधिक हर व्यक्ति कमोबेश प्रभावित होता था। राज्य व तकनीकी अंतर ने मिलकर केवल सामाजिक अंतर को बढ़ाया है। बड़े पैमाने पर जल के निकाले जाने ने न्यूनता को सच में बदल दिया है, इसे एक सामाजिक सच्चाई में बदल दिया है, जिसका व्यापक असर दिखने लगा है। सरदार सरोवर जैसे विशाल डैम ऐसी नीति के तहत वैधानिकता प्रदान करते हैं, जो असमानता को बनाए रखते हैं, जिन्होंने न्यूनता को पहले स्थान पर ला दिया है। शीत युद्ध के बाद सुरक्षा की भू-राजनीति में प्राकृतिक संसाधन केंद्र में आ गए।

राज्य और बाजार-दोनों ही जल राजनीति (हाइड्रो-पोलिटिक्स) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जल के राजनीतिक अर्थतंत्र में वैश्विक व स्थानीय दोनों ही मिले हैं। राज्य द्वारा बड़ी पूंजी लगने वाली योजनाएं शुरू की गई, जैसे-डैम, नदी जोड़ योजना व तटबंध निर्माण। वर्तमान आर्थिक उदारीकरण जल को केंद्रीकृत ‘हाइड्रोलिक’ राज्य से मुक्त कर बाजार के हाथ में सौंपना चाहता है, जल की कीमत तय करने के जरिए इसे भंग करने की मांग के पीछे यही कारण है। ऐसे बाजार आधारित प्रक्रिया न तो क्षमता को बदलेगी, न ही कंपनी के शेयर के मूल्य को। यह दीर्घकालिक तौर पर स्रोत को टिकाए रखने में भी असफल होगी। यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि कोई पश्चिमी भारत में भूतल जल के बाजार की जांच करे।

जल प्रबंधन के नव-उदारवादी नुस्खे ने केवल निजीकरण को बढ़ावा दिया है, बल्कि राज्य को कॉरपोरेट में बदल दिया है। जल परियोजना की लागत को निकालने एवं लाभ प्राप्त करने के मामले में राज्य अपने को अक्षम पाता है, विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए छूट के अधिकार को समर्पित कर देता है किसी का पक्ष लेने के लिए? अब यह आमतौर से मान लिया गया है कि ट्यूबवेल तकनीक के कारण भविष्य में भारी जल संकट पैदा हो जाएगा। बेला भाटिया के अनुसार भयानक अकाल के दौरान भी कुएं नहीं सूखते थे। 20वीं शताब्दी में ट्यूबवेल के आविष्कार के बाद गहरे बोरवेल लगाना संभव हो सका। इससे इतना पानी निकालने जाने लगा कि कुएं सूखने लगे। ठीक इसी समय हरित क्रांति के बाद भारी मात्रा में पानी की मांग बढ़ गई। हरित क्रांति में हाइब्रिड खेती में पानी की अधिक जरूरत थी। गैरेट हार्डिन ने ‘द ट्रेजडी ऑफ कॉमन्स’ शोधपत्र में दिखाया है कि इस प्राकृतिक स्रोत के अनियंत्रित दोहन ने संकट बढ़ाया। जिसके पास भी बोरिंग की सुविधा है और जो पानी खरीद सकते हैं, उन्हें इस संकट से लाभ हुआ है।

स्वतंत्रता प्राप्ति तक गुजरात की प्रमुख नदियों में से दो- माही और तापी में ही पानी व नहरों के लिए डैम थे। नर्मदा में बांध बनाने की प्रक्रिया चल रही है। इन नहरों से दक्षिण गुजरात के गन्ना किसानों व खेड़ा के तंबाकू किसानों को लाभ मिला है। इस डैम ने राज्य के किसानों में असमानता में वृद्धि की है। डैम के संपत्ति के मामले में पीछे के जलाशय (रिजर्वायर) वाले हिस्से में जल जमाव रहता है। यहां आदिवासी रहते हैं। यहां से बड़ी संख्या में पलायन हुआ। वे खेतों में प्रवासी मजदूर बन गए या शहरों के कारखानों में मजदूरी करने लगे। नवरोज दुबाश के अनुसार – जब पानी का स्तर नीचे चला जाता है, तो संपत्ति मामले में असमानता और बढ़ जाती है। जब ग्राउंड वाटर विकास योनजाओं के कारण जल स्तर में वृद्धि होगी, तो शैलोवेल पर निर्भर गरीब किसानों को लाभ होगा। ग्राउंड वाटर का बाजार कमजोर होगा। ग्रामीण धनिकों की सत्ता कमजोर होगी। हालांकि, ग्रामीण इलाके के इन तबकों के पास अपनी सत्ता बनाए रखने के कई उपाय है। पानी जैसे प्राकृतिक स्रोत पर समान पहुंच बन सकती है, जब सत्ता के वर्तमान ढांचे को तोड़ा जाए।

जल नीति-2012 के मसौदे के अनुसार, भारत अपने जल स्रोत को विकसित करने के लिए हिमालय से निकलने वाली नदियों को जोड़ने की योजना बना रहा है। इसे प्रायद्वीपीय इलाके की नदियों को 30 कैनाल प्रणालियों के जरिए जोड़ने की योजना है। यह योजना देश में बढ़ती मांग को पूरा करने को ध्यान में रख कर तैयार की गई है।, ताकि सिंचाई क्षमता एवं अनाज उत्पादन बढ़ सके। परियोजना से काफी पानी मिलेगा। 1,35,000.00 वर्ग मील सिंचाई होगी। 39,000 मेगावाट बिजली उत्पादित होगी, सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार से परियोजना को पूरा करने को कहा है।

इससे बड़े पैमाने पर वन नष्ट हो जाएंगे। वन्य जीवों के लिए मुश्किल हालात हो जाएंगे। लोगों का विस्थापन होगा। जल की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा, जलवायु परिवर्तन होगा जिससे लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा। परियोजना की सामाजिक-आर्थिक उपयोगिता का मूल्यांकन जरूरी है। हिमालय क्षेत्र लगातार संकट में होगा।

नदियों को जोड़ने का नतीजा क्या होगा यह कहना कठिन है। जैसे इजराइल को इससे काफी फायदा हुआ है। वर्षा की कमी वाला यह देश खाद्यान्न की दृष्टि से एक आत्मनिर्भर देश बन गया है। दूसरी ओर पूर्व सोवियत संघ में आमुदरिया और सरदरिया नामक दो नदियाँ थी जो अराल सागर में जाकर गिरती थीं। इन्हें उज्बेगिस्तान की ओर मोड़ दिया गया। शुरू के नतीजे तो उत्साहवर्धक थे, और सोवियत संघ कपास का एक बड़ा उत्पादक बन गया, लेकिन आज ज़मीन से घिरा हुआ अराल सागर सूख गया है और एक बड़ी पर्यावरणीय आपदा उठ खड़ी हुई है। क्या अतिरिक्त जल होगा? पानी की हर बूंद पारिस्थितिकी, ‘इको सिस्टम’ की सेवा करती है अगर यहां से पानी निकाला गया, तो यह उतना ही पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाएगा। समुद्र में पानी का बहना बेकार जाना नहीं है, यह जल चक्र का महत्वपूर्ण अंग है। परियोजना जल को प्रकृति से नहीं वरन राजस्व व मुनाफे से जोड़ती है। नदियां असेम्बली लाइन की तरह हो जाएंगी जो असीम उत्पादन के लक्ष्य की ओर बढ़ती जाएंगी। बांध से ज़मीन डूबती है, विस्थापन होता है, नदियां सूखती हैं, जैव विविधता नष्ट होती है, मृदा की लवणता बढ़ती है, मत्स्य पालन पर असर होता है और मछुआरों के जीवन पर मौत की साया छा जाती है, भूगर्भ जल का भरना रुक जाता है, वन क्षीण होते हैं, अभिवंचित वर्ग के विकास के अवसर समाप्त होते हैं, जलीय विविधता भी घटती है और क्या कुछ हानि नहीं होती! मगर फिर भी बांध बनने का सिलसिला बंद नहीं होता।

सिंचाई की सुविधा का अभाव कृषि के संकट का एकमात्र कारण नहीं। पंजाब के प्रायः पूर्ण सिंचित राज्य में सैंकड़ों किसान आत्महत्या कर रहे हैं। वस्तुतः विकेन्द्रित जल प्रणालियां कम खर्च वाली और प्रबंधन की दृष्टि से आसान होती हैं। जल की आपूर्ति को बढ़ाने से ज्यादा आज जरूरत है इसके इस्तेमाल की क्षमता में वृद्धि जल संसाधन का संरक्षण और सही मूल्य निर्धारण की व्यवस्था इसकी बर्बादी को रोकने में सहायक होंगे।

नदियों को जोड़ने का नतीजा क्या होगा यह कहना कठिन है। जैसे इजराइल को इससे काफी फायदा हुआ है। वर्षा की कमी वाला यह देश खाद्यान्न की दृष्टि से एक आत्मनिर्भर देश बन गया है। दूसरी ओर पूर्व सोवियत संघ में आमुदरिया और सरदरिया नामक दो नदियाँ थी जो अराल सागर में जाकर गिरती थीं। इन्हें उज्बेगिस्तान की ओर मोड़ दिया गया। शुरू के नतीजे तो उत्साहवर्धक थे, और सोवियत संघ कपास का एक बड़ा उत्पादक बन गया, लेकिन आज ज़मीन से घिरा हुआ अराल सागर सूख गया है और एक बड़ी पर्यावरणीय आपदा उठ खड़ी हुई है।

पानी की राजनीति इसकी उपलब्धता और जल संपदा से प्रभावित होती है। नदियां देश के भीतर कई राज्यों से होकर गुजरती हैं, और कभी-कभी कई देशों से होकर भी। गंगा को लेकर भारत और बांग्लादेश में विवाद रहा है। नब्बे के दशक तक भारत में 1975 में बने फरक्का बांध का उपयोग करके नदी की दिशा मोड़कर कोलकाता के नगरीय बंदरगाह को गर्मी में सूखने से बचाया जाता था। इसके कारण बांग्लादेश के किसानों को पानी और गाद नहीं मिल पाती थी और सुंदरवन की आर्द्रभूमि या नदी के डेल्टा के वन के लिए खतरा उत्पन्न होता था कल्याण रुद्र ने बताया है कि 22 वर्षों गंगा का तल 62 फीट ऊपर उठा है जिसके कारण अन्य नदियों का तल भी उठा है और अक्सर निकटवर्ती क्षेत्रों के डूबने के कारण विस्थापन की समस्या बनी है। मई 2012 में बांग्लादेश की विदेशमंत्री श्रीमती दीपू मोनी ने यह चेतावनी दी थी कि यदि तीस्ता नदी समझौता नहीं हुआ तो भारत-बांग्लादेश के द्विपक्षीय संबंध में उलझने बढ़ेंगी। दक्षिण एशिया में जल विवाद और भी खतरनाक है क्योंकि इस क्षेत्र के देशों के राजनीतिक संबंध बेहद नाजुक हैं, चाहे भारत-बांग्लादेश हो या भारत-पाकिस्तान या भारत-नेपाल। अरब इजरायली संघर्ष में भी पानी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। फिलीस्तीनियों की शिकायत है कि वेस्ट बैंक के इजराइली उनसे चार गुना अधिक पानी का उपभोग करते हैं। भारत के भीतर कावेरी, गोदावरी एवं नर्मदा जैसी नदियों के जल का बंटवारा कई मध्य, पश्चिमी और दक्षिणी के राज्यों के बीच तनाव का स्रोत है।

और अंत में


अनवरत या टिकाऊ विकास की दृष्टि से मीठा पानी एक केंद्रीय मुद्दा है और यह हाथ से निकलता जा रहा है। मार्च 2012 में मार्सले, फ्रांस से प्रकाशित वर्ल्ड वाटर डेवलपमेंट रिपोर्ट की प्रस्तावना में युनेस्को की महानिदेशक इरीना बोकोवा का कहना है कि यदि हम अभी पानी को विश्व शांति का उपादान बनाने में विफल रहे, तो कल यह संघर्ष का एक बड़ा कारण बन सकता है।

सीएसई की एक नई रिपोर्ट ने दुहराया है कि बांध, नहर या नदियों को जोड़ने की योजना या गंदी नालियों के पानी का साफ करने की सुविधा की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर अतिशय बल दिया जा रहा है, जबकि जल संरक्षण की व्यवस्था पर कम ध्यान दिया जाता है। घरों में पानी के इस्तेमाल में किफायत, भूजल का परिपूर्णीकरण, कम लागत और पर्यावरण को ध्यान में रखकर मल प्रबंधन या स्थानीय जल संसाधन का संरक्षण इत्यादि युक्तियां अधिक उपयोगी साबित होगी जो अभी भी उपेक्षित बनी हुई हैं।

पानी के उपयोग एवं बंटवारे में समता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत ही आधार बन सकते हैं। जल का प्रबंधन समुदाय के संसाधन के रूप में करने की जरूरत है भले ही उसका नियंत्रण पब्लिक ट्रस्ट के रूप में सरकार के अधीन हो और उसके लक्ष्य रहेंगे। सभी के लिए खाद्य सुरक्षा, आजीविका और न्यायपूर्ण एवं अनवरत विकास। पारिस्थितिकी के संतुलन के लिए भी जल अनिवार्य है। वाष्पीकरण, वर्षा, नदी-नाले, जल प्रवाह, मिट्टी की नमी, भूगर्भ जल इत्यादि जल चक्र के ये सभी अवयव एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। नदी का द्रोण या बेसिन उसके लिए आधारभूत इकाई है और जल संबंधित नियोजन में इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। जल को एक मूल्यवान आर्थिक वस्तु के रूप में उपयोग किए जाने की आवश्यकता है मगर इसमें गरीबों की आजीविका को समर्थन और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को समुचित प्राथमिकता देनी होगी। समुदाय आधारित जल प्रबंधन को संस्थाबद्ध और सुदृढ़ करना इस दृष्टि से अपेक्षित होगा।

जिसे औद्योगिक विकास की संज्ञा दी जाती है वह वस्तुतः प्रकृति का विनाश है और प्रकृति के साथ-साथ लोगों की संपत्ति की चोरी की तरह है। इस विकास ने वनों की जैव विविधता के साथ उनकी मृदा और जल संरक्षण की क्षमता को छीना है या जलाशयों की जलीय विविधता को। यही नहीं, इस विकास ने वन-स्थित समुदायों के साथ ग्रामीण एवं नदियों पर निर्भर समुदायों के खाद्य, ईंधन, औषधि या बाढ़ व सूखे से सुरक्षा के उपादानों को क्षति पहुंचाई है। इस वजह से यह महत्वपूर्ण है कि जल से संबंधित शक्ति के वितरण, विषमता, संघर्ष एवं समझौते जैसे मुद्दों की पड़ताल हो। भविष्य में आर्थिक विकास एवं पर्यावरण के संरक्षण के लिए जल प्रबंधन एक अति महत्वपूर्ण चुनौती होने वाली है।

(प्राध्यापक, इतिहास, संत जैवियर्स कॉलेज, पटना)

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