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अभ्रक

अभ्रक (अंग्रेजी में माइका) एक खनिज है जिसे बहुत पतली-पतली परतों में चीरा जा सकता है। यह रंगरहित या हलके पीले , हरे या काले रंग का होता है। अभ्रक को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है: (1) मस्कोवाइट वर्ग, (2) बायोटाइट वर्ग।

1. मस्कोवाइट वर्ग में तीन जातियाँ हैं:
मस्कोवाइट : हा2 पोऐ3 (सिऔ4)3
पैरागोनाइट : हा2 सोए3 (सिऔ4)3
लैपिडोलाइट : पोलि (ऐ(औहा, फ्लो)2) ऐ (सिआ4)3
2. बायोटाइट वर्ग में भी तीन जातियाँ हैं:
बायोटाइट : (हापो)2 (मैगलो)2 (ऐलो2) (सिआ4)3
फ्लोगोपाइट : हापो (मैगफ्लो मै3 ऐ (सिआ4)3
ज़िनवल्डाइट : (पोलि)3 (ऐ(ओहा, फ्लो)2 लोऐ2 सि5 औ16
(हा=हाइड्रोजन, पो=पोटैशियम, ऐ=ऐल्यूमिनियम, सि=सिलिकन, औ=आक्सिजन), सो=सोडियम, लि=लिथियम, फ्लो=फ्लोरीन, मैग=मैगनीशियम, लो=लोह)।

इन दोनों जातियों के मुख्य खनिज क्रमश: श्वेताभ्रक तथा कृष्णाभ्रक हैं।

खनिजात्मक गुण- पूर्वोक्त दोनों प्रकार के खनिजों के गुण लगभग एक से ही हैं। रासायनिक संगठन में थोड़ा सा भेद होने के कारण इनके रंग में अंतर पाया जाता है। श्वेताभ्रक को पोटैशियम अभ्रक तथा कृष्णाभ्रक को मैगनीशियम और लौह अभ्रक कहते हैं। श्वेताभ्रक में जल की मात्रा 4 से 6 प्रतिशत तक विद्यमान रहती है।

अभ्रक वर्ग के सभी खनिज मोनोक्लिनिक समुदाय में स्फटीय होते हैं। अधिकतर ये परतदार आकृति में पाए जाते हैं। श्वोताभ्रक की परतें रंगहीन, अथवा हल्के कत्थई या हरे रंग की होती हैं। लोहे की विद्यमानता के कारण कृष्णाभ्रक का रंग कालापन लिए होता है। इन खनिजों की सतह चिकनी तथा मोती के समान चमकदार होती है। एक दिशा में इन खनिजों की पर्तों को बड़ी सुविधा से अलग किया जा सकता है। ये परतें बहुत नम्य (फ़्लेक्सिबुल) तथा प्रत्यस्थ (इलैस्टिक) होती हैं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यदि हम एक इंच के हजारवें भाग के बराबर मोटाई की परत लें और उसे एक चौथाई इंच व्यास के बेलन के आकार में मोड़ डालें तो अपनी प्रत्यास्थता के कारण वह पुन: फैलकर समतल हो जाएगी। इन खनिजों की कठोरता 2 से 3 तक है। थोड़े से दबाब से यह नाखून से खुरचे जा सकते हैं। इनका आपेक्षिक घनत्व 2.7 से 3.1 तक होता है।

अभ्रक वर्ग के खनिजों पर अम्लों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अभ्रक ऐल्यूमीनियम तथा पोटेसियम के जटिल सिलिकेट हैं, जिनमें विभिन्न मात्रा में मैगनीशियम तथा लौह एवं सोडियम, कैल्सियम, लीथियम, टाइटेनियम, क्रोमियम तथा अन्य तत्व भी प्राय: विद्यमान रहते हैं। मस्कोवाइट सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभ्रक है। यद्यपि मस्कोवाइट सर्वाधिक सामान्य शिलानिर्माता (रॉक-फॉर्मिग) खनिज है तथापि इसके निक्षेप, जिनसे उपयोगी अभ्रक प्राप्त होता है, केवल भारत तथा ब्राज़ील के कुछ सीमित क्षेत्रों में पिगमेटाइट पट्टिकाओं (वेंस) में ही विद्यमान हैं। संपूर्ण संसार की आवश्यकता का 80 प्रतिशत अभ्रक भारत में ही मिलता है।

प्राप्तिस्थान- अभ्रक के उत्पादन में भारत अग्रगण्य देश है, यद्यपि यह कैनाडा, ब्राज़ील, आदि देशों में भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है, तथापि वहाँ का अभ्रक अधिकांशत: छोटे आकार की परतों में अथवा चूरे के रूप में मिलता है। बड़ी स्तरोंवाले अभ्रक के उत्पादन में भारत को ही एकाधिकर प्राप्त है।

अभ्रक की पतली-पतली परतों में भी विद्युत्‌ रोकने की शक्ति होती है और इसी प्राकृतिक गुण के कारण इसका उपयोग अनेक विद्युतयंत्रों में अनिवार्य रूप से होता है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य उद्योगों में भी अभ्रक का प्रयोग होता है। बायोटाइट अभ्रक कतिपय औषधियों के निर्माण में प्रयुक्त होता है।

बिहार की अभ्रकपेटिका पश्चिम में गया जिले से हजारीबाग तथा मुंगेर होती हुई पूरब में भागलपुर जिले तक लगभग 90 मील की लंबाई और 12-16 मील की चौड़ाई में फैली हुई है। इसका सर्वाधिक उत्पादक क्षेत्र कोडर्मा तथा आसपास के क्षेत्रों में सीमित है। भारतीय अभ्रकशिलाएँ सुभाज (शिस्ट) हैं, जिनमें अनेक परिवर्तन हुए हैं। अभ्रक मुख्यत: पुस्तक के रूप में प्राप्त होता है। इस समय बिहार क्षेत्र में 600 से भी अधिक छोटी बड़ी अभ्रक की खानें हैं। इन खानों में अनेक की गहराई 700 फुट तक चली गई है। बिहार में अत्युत्तम जाति का लाल (रूबी) अभ्रक पाया जाता है जिसके लिए यह प्रदेश संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है:।

आंध्र में नेल्लोर जिले की अभ्रक पेटिका दुर तथा संगम के मध्य स्थित है। इसकी लंबाई 60 तथा चौड़ाई 8-10 मील है। इस पेटिका में अनेक स्थानों पर अभ्रक का खनन होता है। यद्यपि अधिकांश अभ्रक का वर्ण हरा होता है, तथापि कुछ स्थानों पर 'बंगाल रूबी' के समान लाल वर्ण का कुछ अभ्रक भी प्राप्त होता है।

भारतीय अभ्रक के उत्पादन में राजस्थान का द्वितीय स्थान है। राजस्थान की अभ्रमकय पेटिका जयपुर से उदयपुर तक फैली है तथा उसमें पिगमेटाइट मिलते हैं। राजस्थान से प्राप्त अभ्रक में से केवल अल्पांश ही उच्च कोटि का होता है; अधिकांश में या तो धब्बे होते हैं अथवा परतें टूटी या मुड़ी होती हैं।

बिहार, राजस्थान और आंध्र के विशाल अभ्रकक्षेत्रों के अतिरिक्त कुछ मस्कोवाइट बिहार के मानभूम, सिंहभूम तथा पालामऊ जिलों में भी मिलता है। इसी प्रकार अधोवर्ग का कुछ अभ्रक उड़ीसा के संबलपुर, आँगुल तथा ढेंकानल में पाया गया है। आंध्र में कुडप्पा, तथा मद्रास में सलेम, मालाबार तथा नीलगिरि जिलों में भी अभ्रक के निक्षेप हैं, किंतु ये अधिक महत्व के नहीं। मैसूर के हसन तथा मैसूर और पश्चिम बंगल के मेदिनीपुर तथा बाँकुड़ा जिलों में भी अल्प मात्रा में अभ्रक पाया गया है।

उपयोगिता- यद्यपि देश में अभ्रक प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, तथापि इसका अधिकांश कच्चे माल के रूप में विदेशों को भेज दिया जाता है। हमारे अपने उद्योग में इसकी खपत प्राय: नहीं के बराबर है। इसमें संदेह नहीं कि अधिक मात्रा निर्यात के कारण इस खनिज द्वारा विदेशी मुद्रा का उपार्जन यथेष्ट हो जाता है, किंतु यदि इसको देश में ही परिष्कृत पदार्थ के रूप दिया जा सके तो और भी अधिक आय होने की संभावना है।

व्यापार की दृष्टि से अभ्रक के दो खनिज श्वेताभ्रक और फ़्लोगोपाइट अधिक महत्वपूर्ण हैं। अभ्रक का प्रयोग बड़ी-बड़ी चादरों के रूप में तथा छोटे-छोटे या चूर्ण के रूप में होता है। बड़ी-बड़ी परतोंवाला अभ्रक मुख्यतया विद्युत्‌ उद्योग में काम आता है। विद्युत्‌ का असंवाहक होने के कारण इसका उपयोग कंडेंसर, कम्यूटेटर, टेलीफोन, डायनेमो आदि के काम में होता है। पारदर्शक तथा तापरोधक होने के कारण यह लैंप की चिमनी, स्टोव, भट्ठियों आदि में प्रयुक्त होता है। अभ्रक के छोटे-छोटे टुकड़ों को चिपकाकर माइकानाइट बनाया जाता है। अभ्रक के छोटे-छोटे टुकड़े रबड़ उद्योग में, रंग बनाने में, मशीनों में चिकनाई देने के लिए तथा मानपत्रों आदि की सजावट के काम आते हैं।

आयुर्वेद में अभ्रक- संस्कृत में जिसे अभ्रक कहते हैं वही हिंदी में अबरक, बँगला में अभ्र, फारसी में सितारा ज़मीन तथा लैटिन और अंग्रेजी में माइका कहलाता है। काले रंग का अभ्रक आयुर्वेदिक औषधि के काम में लेने का आदेश है। साधारणत: अग्नि का इसपर प्रभाव नहीं होता, फिर भी आयुर्वेद में इसका भस्म बनाने की रीतियाँ हैं। यह भस्म शीतल, धातुुवर्धक और त्रिदोष, विषविकार तथा कृमिदोष को नष्ट करनेवाला, देह को दृढ़ करनेवाला तथा अपूर्व शक्तिदायक कहा गया है। क्षय, प्रमेह, बवासीर, पथरी, मूत्राघात इत्यादि रोगों में यह लाभदायक कहा गया है।

अभ्रक एक जटिल सिलिकेट यौगिक है। इसकी संरचना निश्चित नहीं रहती। इसमें पोटेशियम, सोडियम और लिथियम जैसे क्षारीय पदार्थ भी मिले रहते हैं। आग्नेय चट्टानों में प्राय: अभ्रक पाया जाता है। वायु तथा धूप आदि से प्रभावित होकर कभी-कभी सिलिकेट खनिज भी अभ्रक में बदल जाता है।

अभ्रक ऊष्मा तथा विद्युत्‌ का कुचालक है। यही गुण इसके व्यापारिक महत्व का आधार है। पवनमापी यंत्र तथा उत्तम कोटि के दर्पण अभ्रक की सहायता से बनाए जाते हैं। बायलर के जैकेट के आवरण बनाने में भी इसका उपयोग होता है। विद्युत्‌यंत्र तथा उपकरण, जैसे डायनमो, आर्मेचर, हीटर, टेलीफोन के डायल बनाने में भी इसका उपयोग होता है। रेडियो, वायुयान तथा मोटर इंजन के पुर्जों में भी अभ्रक का उपयोग बढ़ता जा रहा है। इससे खाद भी बनाई जाती है।

अभ्रक पारदर्शक होता है। साथ ही ताप के आकस्मिक उतार-चढ़ाव का भी असपर अधिक असर नहीं होता है। इसलिए यह भट्टियों में अग्निनिरोधक पलस्तर करने के काम आता है। रंगहीन पारदर्शक कागज, विभिन्न प्रकार के खिलौने, रंगमंच के परदों की सजावट तथा चमकीले पेंट कलर भी अभ्रक की सहायता से बनाए जाते हैं।

आयुर्वेद चिकित्सा में अभ्रक भस्म काफी प्रचलित औषधि है जो क्षय, प्रमेह, पथरी आदि रोगों के निदान में प्रयुक्त होती है।

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