आचरण : शिक्षा का पहला चरण

22 May 2015
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समाज में धर्मों का मिलन, सम्प्रदायों की विशेषताएँ और मर्यादाएँ, आश्रम व्यवस्था में आई हुई शिथिलता व अधोगति के अन्य कारणों को जानने की जरूरत है। ऐसे अनेक सवालों पर विद्यापीठ में वैज्ञानिक और तटस्थ भाव से विचार करना होगा। दूसरी ओर साहित्य, संगीत कला के क्षेत्र के उतार चढ़ाव और आधुनिक तथा अति आधुनिक सम्पर्कों का प्रभाव भी उसका विषय होगा। संस्कृत भाषा, काव्य, नाटक, व्याकरण आदि के अभ्यास के साथ ही मध्यकालीन सन्तों द्वारा हमारे समाज को सौंपी हुई थाती का अध्ययन भी करना होगा।

कृष्ण और सुदामा सांदीपनी गुरु के यहाँ पढ़ने गए थे। कृष्ण ने ऐसे काम किए कि बाद में गुरु उनके नाम से पहचाने गए। छात्रों को इसी तरह काम करना चाहिए जिससे गाँधी विद्यापीठ और हमारी पहचान हो।

शिक्षा कोई एकमार्गी रास्ता नहीं है। विद्यापीठ से यदि केवल विद्यार्थी ही शिक्षा लेकर जाते हैं और बाकी जो जहाँ थे वे वहीं के वहीं रहें, तब समझना चाहिए कि हमारी शिक्षा में कोई बड़ी खोट है। विद्यार्थी के साथ विद्यापीठ को भी समाज में आगे बढ़ना ही चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो तो हमारी विद्या सिकुड़ जाती है। हम आपको जैसा देखना चाहते हैं, आप वैसा या उससे भी अधिक बढ़िया बनें। हम आपको तोते की तरह रटा हुआ ज्ञान देना नहीं चाहते। हममें लगातार विद्या का संचार होना चाहिए।

दीक्षित होकर जाने वाले विद्यार्थी से कुलपति यह अपेक्षा रखते हैं कि विद्यार्थियों की जिज्ञासा, होशियारी और सामर्थ्य में वृद्धि हुई हो, समग्र विद्यापीठ का वातावरण व उसके ध्येय उपरोक्त दिशा में आगे बढ़ते हों और साथ ही अध्यापकों की रुचि, परिश्रम और अनुभवों में वृद्धि हुई हो।

लेकिन मेरी यह अभिलाषा आप सबका संकल्प क्यों बने? यह भी विचारणीय है। विद्यापीठ को इस दिशा में अग्रसर होने के लिए ज्ञान की तीन धाराओं का अनुसरण करना पड़ेगा।

दुनिया के विद्यापीठों में सामान्यतः दी जाने वाली शिक्षा की एक धारा है। इसे हम प्रचलित धारा कह सकते हैं।

आज तक विशेषतः हमारे देश ने और कुछ अंश तक सारी मानव जाति ने जिस विद्या का संचय किया है और जिसको गहराई तक ले जाया गया है, वह सांस्कृतिक धारा कही जाएगी।

एक तीसरी धारा और है। समग्र समाज ने अपने अनुभव से, जीवन के विविध क्षेत्रों में एक अन्य तरह की विद्या का विकास किया है। इसे हम लोकविद्या धारा कह सकते हैं।

इस विद्यापीठ को यदि अपनी नींव मजबूत करनी हो और इमारत बुलन्द करनी हो तो सिर्फ सदियों से चलती आ रही शिक्षा नहीं बल्कि उपरोक्त तीनों धाराओं को अपने अस्तित्व में समाविष्ट करना होगा।

प्रचलित धाराओं का विचार करते समय हमें शायद सबसे पहले यह समझकर चलना पड़ेगा कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। एक उर्दू कवि ने कहा हैः हम जानते थे इल्म से कुछ जानेंगे, जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी!

मुख्यधारा भी कम विशाल नहीं है। विज्ञान और समाज विज्ञान, तकनीकी आदि इतनी गतिशीलता से आगे बढ़ रहे हैं कि हमारे विद्यार्थी सारा ज्ञान अपने दिमाग में भर लें, ऐसी अपेक्षा रखना अव्यवहार्य है। इसकी जरूरत भी नहीं है। हमें करना तो यह पड़ेगा कि हमारे विद्यार्थी नई-नई परम्पराएँ खड़ी करें। मस्तिष्क में जानकारी के पहाड़ भरना ही विद्यार्थी की योग्यता नहीं है। विद्यापीठ को खुद भी उन सरहदों पर घूमना होगा और नई-नई परम्पराएँ शुरू करनी होंगी। हमें अपने शोध को मानव के लिए कल्याणकारी बनाना होगा।

संस्कृति की धारा के विषय में हम भारतीय भाग्यवान हैं। भारत भूमि को मानव-जाति के रचे हुए सबसे प्राचीन ग्रन्थ (वेद) मिले हैं। इतना ही नहीं उसके अध्ययन की धारा भी कमोवेशी अविरल रही है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सर्वसमावेशक है। संस्कृति की गहराई को जाँचते रहने का काम भी विद्यापीठ को करना चाहिए। उसका विश्लेषण करना भी विद्यापीठ का काम है। समाज में धर्मों का मिलन, सम्प्रदायों की विशेषताएँ और मर्यादाएँ, आश्रम व्यवस्था में आई हुई शिथिलता व अधोगति के अन्य कारणों को जानने की जरूरत है। ऐसे अनेक सवालों पर विद्यापीठ में वैज्ञानिक और तटस्थ भाव से विचार करना होगा। दूसरी ओर साहित्य, संगीत कला क्षेत्र के उतार चढ़ाव और आधुनिक तथा अति आधुनिक सम्पर्कों का प्रभाव भी उसका विषय होगा। संस्कृत भाषा, काव्य, नाटक, व्याकरण आदि के अभ्यास के साथ ही मध्यकालीन सन्तों द्वारा हमारे समाज को सौंपी हुई थाती का अध्ययन भी करना होगा।

हमारी गृहिणियाँ कितनी तरह का भोजन पकाना जानती हैं। पाकशास्त्र में उपयोग में लिए जाने वाले सैकड़ों पारिभाषिक शब्द क्या हमारे ध्यान में भी आते हैं? खेत में हल चलाने से लेकर फसल को घर पहुँचाने तक की प्रक्रियाओं के पीछे क्या विज्ञान है, उसमें क्या कमीवेशी हो सकती है, समस्त देश की कृषि में मजदूरी के काम में लगी हमारी बहनों के श्रम को कम करने के लिए और ज्यादा उत्पादक बनाने के लिए हमारी विद्यापीठ ने कोई प्रयास किए हैं क्या?

लोकधारा के बारे में सोचते हुए मुझे कई बार लगता है कि हमारी हालत ‘पानी में मीन पियासी’ जैसी नहीं, बल्कि उस पानी जैसी है जो तेजी से भाप बनकर उड़ जाता है। आजकल हम कृषि, गौशाला, वस्त्रविद्या आदि कुछ उद्योगों के साथ जुड़े हुए हैं। उनके सम्बन्ध में विस्तृत विवेचना की आवश्यकता है व इसके विशाल शब्दकोष से हमें तारतम्य बनानी होगी। वेड़छी में दस साल का एक लड़का था। उसका मन शाला में जाने का नहीं था। एक दिन उससे आस-पास से घास के कुछ तिनके लाने के लिए कहा। लड़का अलग-अलग 28 प्रकार की घास ले आया। वह चौधरी बोली में उन सभी के नाम भी जानता था। मोझादा में सतपुड़ा के अन्तिम छोर पर डूंगर से वर्षा ऋतु में पानी प्रतिवर्ष हजारों टन मिट्टी घसीटकर ले जाता था। उसे रोकने के लिए बाँध बाँधने वाले किशोरों को इन्जीनियरिंग की कोई पदवी की जरूरत नहीं पड़ी थी। हमारी गृहिणियाँ कितनी तरह का भोजन पकाना जानती हैं। पाकशास्त्र में उपयोग में लिए जाने वाले सैकड़ों पारिभाषिक शब्द क्या हमारे ध्यान में भी आते हैं? खेत में हल चलाने से लेकर फसल को घर पहुँचाने तक की प्रक्रियाओं के पीछे क्या विज्ञान है, उसमें क्या कमीवेशी हो सकती है, समस्त देश की कृषि में मजदूरी के काम में लगी हमारी बहनों के श्रम को कम करने के लिए और ज्यादा उत्पादक बनाने के लिए हमारी विद्यापीठ ने कोई प्रयास किए हैं क्या?

आयुर्वेद का क्षेत्र तो किसी भी विद्यार्थी को आकर्षित कर सकता है और कई लोगों का तो यह पूरे जीवन का मिशन भी बन सकता है। विद्यापीठ के लिए लोकविद्या केवल आकर्षण ही नहीं अध्ययन, संशोधन, चुनौती और सुखद परिश्रम का विषय बनना चाहिए। मैंने तो केवल कुछ की ओर ही इंगित किया है। समस्त विद्यापीठ परिवार में जितनी परस्पर प्रीति होगी, हमारे पूरे वातावरण में जितनी मुक्तता होगी हमारी और आपकी साझा अभिलाषाओं को उतनी ही ठोस अभिव्यक्ति मिलेगी। यही हम सबके आनन्द का विषय बनेगी।

हमारी विद्यापीठ, त्रिविध विद्याधाराओं का संगम बने, पर विशेष करके हमारे सभी छोटे-बड़े, अध्यापक, गुरुपति और शिक्षण से जुड़े सभी के पुरुषार्थ का विषय बने। इस काम को सिद्ध करने के लिए हमारे लक्ष्य के पीछे रहे मूल्यों का विचार पहले करना पड़ेगा और सतत उसका ही चिन्तन करना होगा। ये मूल्य हैं- नई दृष्टि, क्षितिज विस्तार, गतिशीलता, मुक्ति का वातावरण और पारस्परिकता।

विद्यापीठ के प्रत्येक अंग का अपना एक अलग किन्तु दूसरे अंगों का पूरक व्यक्तित्व विकसित होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को अपने ज्ञान व कर्म की अभिव्यक्ति मिले, ऐसा अवसर प्राप्त होना चाहिए। इसके लिए साथ मिलकर उचित कार्यक्रम बनाएँ और स्वस्थ परम्पराएँ खड़ी करें।

हमारे संस्थापक और आद्य कुलपति महात्मा गाँधी ने हमें सिखाया है कि उत्तम प्रशिक्षण आचरण के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। उन्होंने ऐसा कहकर मानो हमारी सारी संस्कृति का सारबोध ही हमारे सामने रख दिया है। इन सबके लिए हमें प्रचण्ड पुरुषार्थ, अनथक परिश्रम और साधना करनी पड़ेगी। इस साधना में हमें एक बात और ध्यान में रखनी पड़ेगी कि उसके पीछे परिश्रम हो, दिखावा नहीं। वह सहजता से बिखरे, अनुकरण से नहीं।

गुजरात विद्यापीठ के 58वें पदवीदान समारोह में कुलपति के नाते दिए गए वक्तव्य का सारांश। नारायण भाई ने 15 मार्च, 2015 को नब्बे वर्ष की उमर में शरीर छोड़ा है।

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