आदिवासियों में पुनर्जागरण

6 Aug 2015
0 mins read
भारत में दलित समाज में जो स्थान बाबा साहब अंबेडकर का है, वही स्थान आदिवासी समाज में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा का होना चाहिए। गौरतलब है कि बाबा साहब अंबेडकर के जीवन-दर्शन और व्यक्तित्व पर करीब एक हजार पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं। परन्तु जयपाल सिंह मुंडा पर अब तक नहीं के बराबर लिखा गया है। प्रो. गिरिधारी राम गंझू द्वारा लिखित नाटक झारखंड का अमृतपुत्र मरांग गोमके जयपाल सिंह और अधिवक्ता रश्मि कात्यायन द्वारा सम्पादित लॉ बिर सेंदरा ये दो ही पुस्तकें जयपाल सिंह मुंडा के जीवन पर लिखी गई हैं।आदिवासी समाज में बौद्धिक, साहित्यक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण कब होगा, आज यह एक विचारणीय सवाल है। शिक्षा, साहित्य, व्यापार, इलैक्ट्रॉनिक संचार, सूचना एवं प्रिंट टेक्नोलॉजी आदि अपने चरम पर हैं। परन्तु चौथी दुनिया कहा जाने वाला आदिवासी समुदाय (कुछ देशों को छोड़कर) आज तक अपनी भाषा, साहित्य, संस्कृति और इतिहास को समाज और देश के स्तर पर स्थापित नहीं कर पाया है। जहाँ दलित साहित्य ने देश में लेखन और साहित्य में अपनी ठोस उपस्थिति दर्ज कर ली है तथा अपनी एक अलग पहचान बना ली है, वहीं आदिवासी समुदाय का लेखन और साहित्य अभी ठीक ढँग से शुरू भी नहीं हो पाया है । अगर कहीं शुरु भी हुआ है तो वह बाल्यावस्था में ही है। वर्तमान में आदिवासी साहित्यक सामग्री बहुत कम उपलब्ध है। अत: आदिवासी समाज का वास्तविक प्रतिबिम्बन नहीं हो पा रहा है।

आज के इस संघर्षपूर्ण, प्रतिस्पर्धापूर्ण और भौतिकवादी विकास के युग में आदिवासी समुदाय को अपना अस्तित्व बचाने और अधिकार, आत्मसम्मान व पहचान को देश और दुनिया के पैमाने पर स्थापित करने के लिये साहित्यिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आन्दोलन के रास्ते से गुजरना ही पड़ेगा। आज आदिवासी समाज सबसे विकट स्थिति में है और उस पर अस्तित्व का खतरा सबसे अधिक है। आदिवासी समुदाय पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। चाहे वह उपनिवेशवादी या आंतरिक उपनिवेशवादी हमला हो, धार्मिक उपनिवेशवादी या सांस्कृतिक हमला हो चाहे वह नव-ब्राह्मणवाद का या पूँजीवाद का हमला हो, इन तमाम खतरों के प्रति आगाह करने और उनका मुकाबला करने के लिये आज पहले से कहीं अधिक धारदार, सशक्त और जुझारू लेखन की जरूरत है। लेकिन सवाल है कि क्या आज का आदिवासी समुदाय इस बौद्धिक चुनौती और रचनात्मक जिम्मेदारी को हाथ में लेने को तैयार है? यह सवाल सीधे तौर पर आदिवासी मध्यम वर्ग से जुड़ा। हुआ है, जो कि आज की तारीख में आकार की दृष्टि से अपने समुदाय के अंदर 20 प्रतिशत से अधिक है। वह अपना वैचारिक-बौद्धिक हस्तक्षेप कर और रचनात्मक भूमिका निभाकर एक व्यापक प्रभावशाली और क्रान्तिकारी कदम की शुरुआत कर सकता है।

आज से 87 साल पहले जब आदिवासी मध्यम वर्ग का उदय बहुत छोटे आकार में हुआ था, तब इसी मध्यम वर्ग के एक छोटे से प्रगतिशील-संघर्षशील समूह ने 1938 ई. में उन्नति समाज का गठन कर झारखंड में समूचे आदिवासी समुदाय को एकजुट किया था और समाज के अंदर चेतना पैदा कर अपने अधिकार, आत्मसम्मान और पहचान के लिये संघर्ष करने को प्रेरित किया था। प्रगतिशील आदिवासी मध्यम वर्ग की यह ऐतिहासिक भूमिका थी। इनमें प्रमुख रूप से श्री बंदीराम, इग्नेस बेक, जुवेल लकड़ा और सुशील बागे थे। इन्हीं लोगों ने वास्तव में झारखंड आन्दोलन की नींव रखी थी। फिर, आगे चलकर 1939 ई. में आदिवासी महासभा का गठन कर जयपाल सिंह मुंडा ने अपने कुशल नेतृत्व में अलग राज्य के लिये झारखंड आन्दोलन को आगे बढ़ाया। जयपाल सिह मुंडा जैसे दूरदर्शी, बौद्धिक और बहुआयामी जनप्रिय नेता ने झारखंड पार्टी का गठन कर झारखंड आन्दोलन को नया आयाम दिया। पर खेद की बात है कि आज का पढ़ा-लिखा आदिवासी मध्यम वर्ग लेखन, भाषा-साहित्य और सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा में उदासीन है। उनके अन्दर से कहीं से भी प्रगतिशील चेतना और रचनात्मक सोच दिखाई नहीं पड़ते। पर हाँ, आदिवासी मध्यम वर्ग पर जब नौकरी का संकट आता है, तो वह अदिवासी के नाम पर आरक्षण के मुद्दे को लेकर आन्दोलन के लिये सड़कों पर उतर जाता है।

आदिवासी समुदाय के लिये आदिवासी मध्यम वर्ग का क्या योगदान है, उसकी क्या भूमिका है, इसको लेकर कई तरह के सवाल और संकट हैं। आज मध्यम वर्ग किस मोड़ पर खड़ा है? वह क्या सोच रहा है? कहाँ जा रहा है? अपने समुदाय के बारे में कभी सोचता भी है क्या? अगर सोचता है तो क्या, इत्यादि ढेरों सवाल हैं। इन सवालों पर गौर करने पर एक चीज तो साफ दिखाई देती है कि ज्यों-ज्यों वह शिक्षित हो रहा है, नौकरी पेशा में जा रहा है अथवा शहर में जाकर बस रहा है, वह अपने समुदाय, भाषा, संस्कृति, साहित्य, कला, संगीत आदि से दूर होता जा रहा है। तथाकथित मुख्यधारा की भाषा-संस्कृति के प्रति उसमें हीनताबोध है। इस प्रसंग में कुडुख में एक कहावत भी चल पड़ी है - 'पढ़च्का आलर एवंदा मेच्छा अंवदम गेच्छा’ यानी पढ़े-लिखे लोग जितने ऊपर, उतने ही अपने समुदाय से दूर।

आमतौर पर आदिवासी मध्यम वर्ग के संस्कार में पढ़ने-लिखने की विशेष आदत नहीं है, वह अधिक से अधिक स्कूली या डिग्री अथवा प्रतियोगिता से सम्बन्धित किताबों को ही पढ़ता है। इसके अलावा अगर वह हिन्दूधर्म-संस्कृति के प्रभाव में है तो थोड़ी बहुत रामकथा पढ़ लेता है और यदि वह ईसाई है तो उसका प्रथम और अंतिम साहित्य बाइबिल है। वह अपनी संस्कृति और इतिहास के साथ-साथ देश-दुनिया को समझने के लिये विविध विषयों का विशद अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं रखता। कोशिश यह होनी चाहिये कि उसके अंदर अध्ययन, चिन्तन, लेखन और संघर्ष की संस्कृति पैदा करके आदिवासी रेनेसां के मार्ग को प्रशस्त किया जाये।

भारत में आमतौर पर बंगाली समुदाय को अपनी भाषा-साहित्य और संस्कृति के प्रति सबसे जागरूक और प्रतिबद्ध माना जाता है। दलित रेनेसां 1860 और 1880 के बीच महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा राव फूले और दक्षिण भारत में रामास्वामी पेरियार द्वारा शुरु हुआ। भारत में दलित समाज में जो स्थान बाबा साहब अंबेडकर का है, वही स्थान आदिवासी समाज में मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा का होना चाहिए। गौरतलब है कि बाबा साहब अंबेडकर के जीवन-दर्शन और व्यक्तित्व पर करीब एक हजार पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं। परन्तु जयपाल सिंह मुंडा पर अब तक नहीं के बराबर लिखा गया है। प्रो. गिरिधारी राम गंझू द्वारा लिखित नाटक झारखंड का अमृतपुत्र मरांग गोमके जयपाल सिंह और अधिवक्ता रश्मि कात्यायन द्वारा सम्पादित लॉ बिर सेंदरा ये दो ही पुस्तकें जयपाल सिंह मुंडा के जीवन पर लिखी गई हैं।

अभी आदिवासी रेनेसां के लिये उपयुक्त समय है क्योंकि अभी आदिवासियों में पर्याप्त और सक्षम मध्यम वर्ग उभर चुका है। संथालियों द्वारा इसकी शुरुआत भी हो चुकी है। उन्होंने अपने भाषा-साहित्य के आन्दोलन को एक हद तक बढ़ाया है। 2003 ई. में संथाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भी कर लिया गया है। उनकी लिपि ओलचिकि है, जिसका पंडित रघुनाथ मुर्मू ने आविष्कार किया है। संथाली भाषा में काफी किताबें भी उपलब्ध है और लिखी भी जा रही हैं। किन्तु कुडुख, मुंडारी आदि आदिवासी भाषा में साहित्यक रचना का काम बहुत धीमी गति से हो रहा है। अत: भारत के आदिवासियों में सिर्फ संथाली भाषा समुदाय के अंदर भी रेनेसां का एक छोटा-सा रूप दिखाई पड़ता है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading