आधुनिक इतिहास में खाद्य असुरक्षा भुखमरी और उसकी पृष्ठभूमि


राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013वर्ष 2007 से 2014 के बीच महँगाई और खाद्य सुरक्षा भारत के सामने बड़ी चुनौतियाँ हैं। ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्यान्न की कमी है। इन 8 सालों में भारत के किसानों ने औसतन 24 करोड़ टन अनाज पैदा किया। इसमें से लगभग एक चौथाई सरकार ने खरीदा और सुरक्षित भण्डार बनाये। इन सालों में सरकार के गोदामों में हर साल लगभग 6 करोड़ टन अनाज रखा रहा। वर्ष 2012-14 के बीच एक समय पर तो 8 करोड़ टन अनाज गोदामों में रखा हुआ था, फिर भी कमी बनी रही। यह कैसा विरोधाभास है! क्या ऐसा अभी भी हो रहा है? इस सवाल का जवाब है या नहीं। यह एक तरह से औपनिवेशिक शासन व्यवस्थाओं की देन है, जहाँ सत्ता लोगों के हित या जनकल्याण के लिये प्रतिबद्ध न होकर बाजार, निहित स्वार्थ और खुद को ताकतवर बनाये रखने के लिये बुनियादी जरूरतों की कृत्रिम कमी पैदा करती है।

जब हम आधुनिक भारत में भुखमरी और खाद्य सुरक्षा की चर्चा करते हैं, तो ब्रिटेन के भारत पर औपनिवेशिक शासन को नज़रअंदाज़ कर पाना नामुमकिन है। उसी समय का इतिहास हमें बताता है कि भुखमरी पैदा होती नहीं है, पैदा की जाती है। इन परिस्थितियों को पैदा करने में सूखे, बाढ़, अकाल या बीमारियों की भूमिका बहुत कम और सरकार-बाजार के करीबी रिश्तों और उनके साझा हितों की भूमिका बहुत ज्यादा होती है।

प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन ने द हिंदू में प्रकाशित अपने एक लेख (जिसका शीर्षक था दृ फ्राम बंगाल फेमिन टू राइट तो फूड) में लिखा कि बंगाल के अकाल की महात्रासदी को कुछ कारकों ने मिल कर रचा। बर्मा पर जापान का कब्जा, खरीफ की फसल में बीमारी और ज्वारीय लहरों के कारण धान की फसल का नुकसान, शासन व्यवस्था की नाकामी, उपलब्ध खाद्यान्न का सही वितरण न होना और ब्रिटिश सरकार जब हम बंगाल की बात करते हैं, तो उसमें केवल आज का पश्चिम बंगाल शामिल मत मानिए। वहाँ 1942 में जबरदस्त पैदावार हुई थी, पर 1943 के अकाल के समय भी ब्रिटिश सरकार भारत के उत्पादन को निर्यात कर रही थी। जिससे आज के पश्चिम बंगाल, ओडीसा, बिहार और बांग्लादेश में खाने का संकट पैदा हुआ।

आंकड़े बताते हैं कि औपनिवेशिक यानी परतंत्र भारत के 200 साल के दौर में पूरे इतिहास के सबसे ज्यादा अकाल पड़े आखिर क्यों? क्या ये अकाल महज प्राकृतिक घटना थे या ये अकाल रचे गए थे? अध्ययन बताते हैं कि ये अकाल वास्तव में सत्ता द्वारा रचे गए थे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तमिलनाडु, बिहार और बंगाल में लगातार अकाल पड़े। आकलन है कि इन अकालों में 3 से 4 करोड़ लोगों की मौत हुई और इसी परिदृश्य में ब्रिटिश सरकार ने अकाल के समय पर लोगों को राहत देने के लिये अकाल संहिता (फेमिन कोड) बनायी।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013ये तो केवल जानकारियाँ हैं, सवाल यह है कि सच्चाई क्या है? हम अक्सर 1943 के आस-पास पड़े बंगाल के अकाल की चर्चा करते-सुनते हैं, परन्तु यही एकमात्र अकाल नहीं है, जिसने लाखों लोगों की जान ली। औपनिवेशिक इतिहास इस तरह की कई घटनाओं का साक्षी है। माइक डेविस ने अपनी किताब (लेट विक्टोरियन होलोकास्ट्स) में लिखा है कि ब्रिटेन के 120 साल के शासनकाल में भारत में 31 बड़े अकाल पड़े। इन अकालों में 2.90 करोड़ लोगों की मौत हुई जबकि 2000 साल के इतिहास में भारत में कुल 17 अकाल पड़े थे।

हम दो उदाहरणों से समझ सकते हैं कि ब्रिटिश शासित भारत में पड़ने वाले अकाल प्रकृति द्वारा नहीं रचे गए थे। ये सत्ता और नीतियों द्वारा सोच समझ कर रचे गए थे। राकेश कृष्णन सिम्हा ने अपने आलेख में लिखा है कि वर्ष 1876 में जब दक्षिण के पठार में सूखा पड़ा था, तब भारत में गेहूँ और चावल अधिकता में उपलब्ध था यानी भण्डार पर्याप्त थे। तब जरूरत इस बात की थी कि भारत में उपलब्ध उन भंडारों का लोकहित में वितरण किया जाता और भुखमरी की स्थिति से निपटा जाता। यह असम्भव नहीं था किन्तु तत्कालीन वायसराय राबर्ट बुलवर लिटन ने तय किया कि परिस्थितियाँ कुछ भी हों, हम खाद्यान्न का भारत से इंग्लैण्ड को निर्यात करते रहेंगे।

फिर 1877 और 1878 में जब सूखा अकाल के रूप में सामने आया, तब भी खाद्यान्न के बड़े व्यापारी और दलाल बहुत भारी मात्रा में निर्यात करते रहे। मजदूर और किसान भूख से मरने लगे, तब भी सरकारी अधिकारियों को यही निर्देश दिए गए कि “राहत कार्यों को निरुत्साहित करने की हरसंभव कोशिश की जाए”। इस माहौल में मजदूरी ही कुछ हासिल करने का जरिया बची थी। सरकार ने उस मजबूरी का भी फायदा उठाया और भूखे मजदूरों में भारी श्रम करवाया। इन मजदूर शिविरों में मजदूरों से भारी श्रम करवाया जाता और कम भोजन दिया जाता था। भोजन की मात्रा द्वितीय विश्व युद्ध में मध्य जर्मनी के गाँव बुचेन्वाल्ड के नाजी शिविरों में ज्युइश कैदियों को दिए जाने वाले भोजन की मात्रा से भी कम होती थी। लाखों लोग मर चुके थे, राहत कार्य नहीं चल रहे थे, फिर भी वायसराय राबर्ट बुलवर लिटन ने रानी विक्टोरिया को भारत की शासिका घोषित करने वाले शाही संस्कार के आयोजन को स्थगित नहीं किया। एक सप्ताह तक चले इस शाही उत्सव में 68 हजार मेहमानों ने रानी विक्टोरिया के वो उदगार सुने, जिसमें उन्होंने कहा था ‘‘हम देश में खुशहाली, सम्पन्नता और कल्याण’’ लाने का वायदा करते हैं।

स्वास्थ्य और पोषण के विषयों पर विश्व की प्रतिष्ठित और पुरानी शोध पत्रिका द लांसेट ने 1901 में अनुमान लगया था कि 1890 के दशक में पश्चिमी भारत में अकालों के कारण 1.90 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी। इस संख्या का इतना बड़ा होने का कारण है ब्रिटिश सरकार द्वारा राहत कार्य न चलाये जाना। माइक डेविस ने कहा कि वर्ष 1872 से 1921 के बीच भारत के लोगों की जीवन प्रत्याशा (औसत जीवन वर्ष) 20 प्रतिशत कम हो गयी थी।

दूसरा उदाहरण है बंगाल के अकाल का। वर्ष 1943-44 में बंगाल के अकाल ने लगभग 40 लाख बच्चों, महिलाओं और पुरुषों की जान ली थी। यही वह समय था जब दूसरा विश्व युद्ध अपने चरम पर था, जिसमें जर्मन पूरे यूरोप में ज्यूइस, दासों और रोमा को निशाना बना रहे थे। खुलेआम चल रहे उस कत्लेआम में हिटलर और उसके नाजी साथियों को 60 लाख ज्यूइस की हत्या करने में 12 साल लगे थे, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के निर्देशों पर भारत के एक हिस्से में अकाल रचकर एक साल में ही 40 लाख लोगों की जान ले ली। आस्ट्रेलियाई जीव रसायनज्ञ डाॉ. जी. पोल्या के मुताबिक बंगाल का अकाल एक मानव निर्मित अकाल था, क्योंकि इसके लिये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल की नीतियाँ जिम्मेदार थी।

इन तथ्यों पर भी नजर डालने की जरूरत है


राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013बंगाल में वर्ष 1942 में प्रचुर और भरपूर पैदावार हुई थी, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने बहुत मात्रा में भारत से यह अनाज ब्रिटेन भेज दिया, जिससे भारत के एक बड़े हिस्से (वर्तमान पश्चिम बंगाल, ओडीसा, बिहार और बांग्लादेश) में खाने का संकट पैदा हो गया। लेखक मधुश्री मुखर्जी ने अपनी किताब “चर्चिल्स सीक्रेट वार” में बंगाल के अकाल से किसी तरह बचे लोगों से बात करते हुए लिखा है कि “भूख से बिलखते हुए बच्चों को माता-पिता ने नदी और कुओं में डाल दिया।”

कई लोगों ने भूख से तडपते हुए खुद को रेलगाड़ी के सामने डाल दिया। लोग चावल उबाले जाने के बाद बचे हुए पानी की भीख मांग रहे थे। बच्चे पेड़ों की बेलें, पत्ते, घास और रतालू खा रहे थे। लोग इतने कमजोर हो गए थे कि वे अपने मरे हुए परिजनों के अंतिम संस्कार के लिये भी ताकत नहीं जुटा पा रहे थे। लाशों के ढेर लगने से कुत्तों और गीदड़ों के लिये उत्सव का समय बन गया था।

मधुश्री मुखर्जी ने लिखा कि “जो पुरुष काम के लिये कलकत्ता जल्दी पलायन कर गए और जो महिलाएँ वैश्यावृत्ति करने लगीं वे बच गए। माएँ हत्यारी बन गयीं, गाँव की बच्चियाँ आवारा लड़की बन गयीं और पिता अपनी बेटियों के सौदागर बन गए।”

विंस्टन चर्चिल इस त्रासदी को रोक सकते थे। उन्हें बस कुछ जहाज अनाज भर कर भारत भेजना था। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। सुभाष चंद्र बोस, जो उस वक्त मित्र बलों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे, ने बर्मा से चावल भेजने का प्रस्ताव दिया, परन्तु ब्रिटिश सरकार ने उस प्रस्ताव को सामने ही नहीं आने दिया। चर्चिल ब्रिटिश सेना और ग्रीक नागरिकों के लिये अनाज भेज रहे थे। उनके हिसाब से भूख से मरते बंगाल के नागरिकों की तुलना में मजबूत और सुरक्षित यूनानियों को खाद्यान्न भेजना ज्यादा जरूरी था।

भारत के लिये राज्य सचिव लिओपोल्ड अमेरी और फिर वायसराय आर्चीबाल्ड वावेल ने तत्काल ब्रिटेन से भारत को खाद्यान्न भेजने के लिये निवेदन किया। इस पर चर्चिल ने एक टेलीग्राम करके उत्तर दिया कि “अब तक गांधी क्यों नहीं मरे हैं”।

वावेल ने लन्दन को लिखा कि “यह अकाल ब्रिटिश शासन के तहत किसी पर भी आ पड़ी सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है। जब हालेंड को भोजन की जरूरत होती है, तब जहाज उपलब्ध हो जाते हैं, परन्तु जब हम भारत को अनाज भेजने के लिये जहाज माँगते हैं, तब कोई दूसरा उत्तर दिया जाता है।”राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013चर्चिल ने कहा था कि ब्रिटेन अभी इसके लिये जहाज दे पाने की स्थिति में नहीं है। मुखर्जी के अध्ययन से पता चला कि आस्ट्रेलिया से चले जहाज भारत से होते हुए भूमध्य की तरफ गए थे।

चर्चिल भारतीयों से नफरत करते थे। यह खुद उन्होंने लिओपोल्ड अमेरी से कहा था। उन्होंने अकाल के लिये खुद भारतीयों को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि “भारतीय लोग खरगोशों की तरह बच्चे पैदा करते हैं”।

मुखर्जी ने अपने एक लेख में लिखा कि चर्चिल गेहूँ को बहुत कीमती मानते थे और इसीलिए गैर-गोरों पर उसे खर्च करने के हिमायती नहीं थे। वे ब्रिटेन से मुक्ति पर अड़े लोगों के अनाज देने के बजाए उसका भण्डार जमा कर रहे थे, ताकि जब युद्ध खत्म हो, तब यूरोप के लोगों को यह अनाज दिया जा सके।

वक्त बिलकुल नहीं बदला है। भुखमरी को अलग-अलग रूपों में बनाए रख कर और भारत के संसाधनों को लूट कर ब्रिटेन संपन्न बना। ऐसे में भी वह यही मानता है कि उसने भारत को एक पहचान दी। अक्टूबर 1943 में, जब बंगाल के अकाल का असर चरम पर था, वायसराय आर्चीबाल्ड वावेल की नियुक्ति के सन्दर्भ में एक भव्य और विलासितापूर्ण कार्यक्रम में चर्चिल ने कहा कि “जब हम समय में पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि धरती के इस हिस्से पर तीन पीढ़ियों में कोई युद्ध नहीं हुआ। अकाल गुजर गए, महामारी भी गुजर गयी...भारतीय इतिहास का यह हिस्सा जरूर समय आने पर स्वर्ण युग के रूप में जाना जायेगा., यह वह दौर है, जब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें शांति और व्यवस्था दी, जब गरीबों के लिये न्याय था और हर व्यक्ति बाहरी खतरों से सुरक्षित था’’

आज हम स्वतंत्र हैं, यह इस पीढ़ी के लिये सबसे सकारात्मक स्थिति है। अब हम जानते हैं कि ब्रिटिश सत्ता ने क्या किया? हम जानते हैं कि खाद्यान्न की कमी न होने के बावजूद ब्रिटिश सरकारों द्वारा अकाल पैदा किये गए और भूख से 4 करोड़ लोग मार दिए गए।

आज भी अनाज के भण्डार भरे हुए हैं, आज भी लोगों के भोजन तक पूरी पहुँच नहीं है। आज भी सरकार मानती है कि लोगों को खाद्य सुरक्षा देने के लिये किया गया खर्चा यानी सब्सिडी राज्य पर एक बोझ है।

 

‘राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा कानून-2013

और सामुदायिक निगरानी मैदानी पहल के लिए पुस्तक


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम और अध्याय

पुस्तक परिचय : राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013

1

आधुनिक इतिहास में खाद्य असुरक्षा, भुखमरी और उसकी पृष्ठभूमि

2

खाद्य सुरक्षा का नजरिया क्या है?

3

अवधारणाएँ

4

खाद्य सुरक्षा और व्यवस्थागत दायित्व

5

न्यायिक संघर्ष से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून-2013 तक

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनने की पृष्ठभूमि

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का आधार

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून-2013 के मुख्य प्रावधान

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून में दिए गए अधिकार

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत बनी हुई व्यवस्थाएँ

6

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून और सामाजिक अंकेक्षण


 

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