अध्ययन भी बताते हैं सरस्वती नदी का अस्तित्व

21 May 2016
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ऋगवेद के 60 से अधिक स्रोतों में इस नदी का उल्लेख है। विशेषज्ञों के मुताबिक यह भी स्पष्ट है कि सरस्वती पहाड़ से निकलकर समुद्र में जाकर गिरती थी, पर ऋगवेद की यह विशाल नदी सरस्वती, महाभारत काल में समुद्र तक न जाकर बीच में मरूस्थल में ही लुप्त हो गई थी। आधुनिक वैज्ञानिक शोधोें के निष्कर्ष भी प्राचीन ग्रंथों में दिये गए तथ्यों से मिलते हैं। कुल मिलाकर प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती के बारे में जो विवरण दिये गए हैं, उनसे जुड़े तथ्य अध्ययनों में भी सामने आये हैं।

सरस्वती नदी को लेकर पूरे देश मेें बहस चल रही है। यह अच्छा है कि मोदी सरकार द्वारा इसकी खोज के सम्बन्ध में प्रयास किये जा रहे हैं। हो सकता है कि सरकार व जल संसाधन मंत्रालय के प्रयास से कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आ जाएँ और करीब एक दशक भर पूर्व केन्द्र सरकार के संस्कृति विभाग के उस अध्ययन सम्बन्धी योजना (रिपोर्ट) को भी झुठला सके, जिसमें कहा गया था कि इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था।

प्राचीन ग्रंथों में तो पवित्र सरस्वती नदी का उल्लेख है ही, इस नदी को लेकर देश में कई अध्ययन भी किये गए हैं। इन अध्ययनों में भारत सहित विदेशों के कई विद्वानों ने अहम भूमिका निभाई है। ऋगवेद, महाभारत सहित कई प्राचीन ग्रंथों में भी सरस्वती नदी का वर्णन है। जानकार बताते हैं कि ऋगवेद में सरस्वती की प्रशंसा बड़ी और राजसी नदी के रूप में की गई है।

इसे एक स्रोत में नदियों की माँ तक कहा गया है। इसके प्रवाह कि शक्ति से पर्वतों के कमल के समान बिखरते चले जाने की भी चर्चा है। ऋगवेद के 60 से अधिक स्रोतों में इस नदी का उल्लेख है। विशेषज्ञों के मुताबिक यह भी स्पष्ट है कि सरस्वती पहाड़ से निकलकर समुद्र में जाकर गिरती थी, पर ऋगवेद की यह विशाल नदी सरस्वती, महाभारत काल में समुद्र तक न जाकर बीच में मरूस्थल में ही लुप्त हो गई थी।

आधुनिक वैज्ञानिक शोधोें के निष्कर्ष भी प्राचीन ग्रंथों में दिये गए तथ्यों से मिलते हैं। कुल मिलाकर प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती के बारे में जो विवरण दिये गए हैं, उनसे जुड़े तथ्य अध्ययनों में भी सामने आये हैं। बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल-1886 में भारत भू-विज्ञान सर्वेक्षण के उप अधीक्षक आरडी ओल्ढम ने सरस्वती के प्राचीन नदी तल (रिवर बैंड) और सतलुज और यमुना को उसकी सहायक नदियाँ होने के बारे में पहली बार भू-वैज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ट किया था।

इसके ठीक सात वर्ष बाद सन 1893 में एक अन्य प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक सीएफ ओल्ढम ने उसी जर्नल में इस विषय पर विस्तृत व्याख्या करते हुए सरस्वती के पुराने नदी तल की पुष्टि की। उनके अध्ययन के अनुसार सरस्वती पंजाब की एक अन्य नदी हाकड़ा के सूखे नदी तल पर बहती थी। स्थानीय जन मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में हाकड़ा रेगिस्तान क्षेत्र से होती हुई समुद्र तक जाती थी। ओल्ढम (1893) की भी यही धारणा थी कि सूखा नदी तल कभी सतलुज और कभी यमुना नदी से पानी पाता था।

जानकारों के मुताबिक महाभारत काल में सरस्वती नदी समुद्र तक पहुँचने से पहले ही विनासन (अनुमानतः वर्तमान सिरसा) के पास लुप्त हो गई थी। ओल्ढम ने अपने लेख के अन्त में यह भी कहा है कि वेदों में यह विवरण कि सरस्वती समुद्र में जाकर गिरती थी और महाभारत का विवरण कि यह पवित्र नदी मरुस्थल में खो गई, अपने-अपने समय का सही वर्णन है। लेकिन इस तरफ जनमानस का ध्यान दिलाने में प्रमुख भूमिका एक अन्य विद्वान औरेल स्टाइन की रही। उन्होंने 1940-41 में बीकानेर (राजस्थान) और बहावलपुर (अब पाकिस्तान में) सरस्वती, घग्घर, हाकड़ा के नदी के किनारे की सर्वेक्षण यात्रा की।

स्टाइन की इस यात्रा ने इस परम्परागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा, घग्घर की सूखी नदी पर ही सरस्वती बहती थी। उनके अध्ययन ने ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की कि सरस्वती नदी के ह्रास का मुख्य कारण सतलुज नदी की धारा का बदलना था, जिससे वह सरस्वती में न मिलकर सिंधु नदी में मिलने लगी थी।

यमुना की धारा बदलने को (पश्चिम में न बहकर पूर्व में गंगा से मिलना) उन्होंने इसका एक और कारण बताया है। इसके कुछ समय बाद एक जर्मन विद्वान ने भी इस विषय पर गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन का निष्कर्ष जेड जियो मोरफोलॉजी नामक पत्रिका में 1969 में एक विस्तृत लेख के रूप में छापा।

भू-विज्ञान शास्त्रियों के अनुसार हर्बल विल्हेमी ने अपने अध्ययन में सरस्वती नदी और उसके विकास के विभिन्न चरणों का उल्लेख किया है। 1892 से 1942 के अध्ययनों का सन्दर्भ देते हुए उनका मुख्य निष्कर्ष है कि सिंधु नदी का वह भाग, जो उत्तर दक्षिण में बहता है। उसके 40-110 किलोमीटर पूर्व में एक पुराना सूखा नदी तल वास्तव में सरस्वती का ही नदी तल है।

यह विभिन्न स्थानों पर हाकड़ा, घग्घर, सागर, संकरा के नाम से जानी जाती रही है। सिंधु में इसका नाम वाहिंद, नारा और हाकड़ा था। हावर्ड विश्विद्यालय के प्रो. एडविन ब्रायेंट का आर्यों से सम्बन्धित गहन अध्ययन अत्यन्त निष्पक्ष माना गया है। अध्ययन में यह कहा गया है कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे। उस समय वह एक विशाल नदी थी और तब उन्हें इसका बिल्कुल आभास नहीं था कि वह कहीं बाहर से आये हुए हैं।

अमेरिका की नेशनल ज्योग्रॉफिक सोसाइटी के ज्योग्रॉफिक इनफॉरमेशन सिस्टम और रिमोट-सेसिंग यूनिट ने भी सेटेलाइट इमेजिंग द्वारा ऋग्वेद में दिये गए सरस्वती के विवरण की पुष्टि की है। अंबाला के दक्षिण में तीन सूखे पुराजल मार्ग, जो पश्चिम की ओर मुड़ते दृष्टिगत होते हैं, वे निश्चय ही सरस्वती, घग्घर और द्वषाद्वति की सहायक धाराओं के थे। अमेरिका की रिमोट सेसिंग एजेंसी ने भारतीय रिमोट सेसिंग सेटेलाइट के माध्यम से जो चित्र हासिल किये थे, उनमें भी सरस्वती का नदी तल स्पष्ट है।

देश के जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल ने भी इस विषय पर गहन अध्ययन किया है। उनके अध्ययन की रिपोर्ट 1980 में इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुई थी। इस अध्ययन का यह निष्कर्ष कि इस बात का पूरा साक्ष्य है कि वैदिक काल की सरस्वती नदी हिमालय से निकलकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और बहावलपुर (पाकिस्तान) में घग्घर, हाकड़ा के नदी तल पर ही बहती हुई और सिंधु (पाकिस्तान) में नारा के नदी तल से होती हुई कच्छ के रण में गिरती थी।

यह अनुमान भी लगाया गया है कि यमुना भी सरस्वती की सहायक नदी थी, लेकिन कालान्तर में सतलुज और यमुना दोनों ने सरस्वती में मिलना छोड़ दिया था। सरस्वती नदी में पानी कम होने का मुख्य कारण भी यही था। इस दिशा में पाकिस्तान के बहावलपुर के चोलिस्तान रेगिस्तान में प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता रफील मुगल ने भी बेहतर कार्य किया है। उनके अनुसार पूरी सिंधु नदी मेंं अब तक 35-36 उत्खनन स्थल (साइट्स) रिकॉर्ड हो पाये हैं।

रफीक मुगल ने 1993 में सरस्वती के किनारे 414 ऐसे स्थलों को चिन्हित किया, जिनसे इस नदी के अस्तित्व के बारे में संकेत मिलते हैं। पिछले साल हरियाणा और राजस्थान सरकार के प्रयास से हुई खुदाई में इस नदी के होने के प्रमाण की बात पुष्टि होती है। रिमोट सेसिंग के जरिए इसरो ने भी इस जानकारी को पुख्ता किया है कि उत्तराखण्ड के आदी बद्री से लेकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के इलाके में इस नदी का स्रोत है। ऐसे में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय का सरस्वती नदी की प्रामाणिकता का पता लगाने सम्बन्धी प्रयास कितना सार्थक हो पाएगा, यह देखना भी काफी उत्सुकतापूर्ण होगा।

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