आग भेद नहीं करती

विकास परियोजनाओं के क्रियान्वयन में बरती जा रही हृदयहीनता साफ दर्शा रही है कि सरकार एवं आम नागरिकों के मध्य खाई बढ़ती जा रही है। आवश्यकता इस बात की है कि आपसी समझबूझ से योजनाएं लागू की जाएं। प्रस्तुत आलेख विकास योजनाओं में हो रही अनिमितताओं को उजागर करने वाली तीन लेखों की श्रृंखला का अंतिम लेख है।

ये कैसी साझेदारी है, जिसमें 90 प्रतिशत सरकार का हिस्सा है और 10 प्रतिशत कंपनी का? यह तय नहीं है कि कितना पानी दिया जाएगा साथ ही पानी न मिलने पर कोई अदालत में जाने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा। सभी शर्तें कंपनी ने तैयार की।आधुनिक विकास का पैमाना है कुछ हजार करोड़ रुपए के खर्चे की परियोजना, कंपनियों का शेयर बाजार में दाम बढ़ना और कुछ युवाओं को नए जमाने की बाबुगारी (रोजगारी) के अवसर बढ़ाना। नई जीवन शैली में यदि दिन में बिजली चली जाए तो जिंदगी रुक जाती है। जब जंगल और नदी की तरफ घूमने जाना हो तो खर्च का पैकेज लेना पड़ता है। वैसे विलासिता के लिए हर तरह का कर्ज भी मिलता है। इसी सोच को पालने पोसने का काम हमारे नीति निर्माता समूह करते हैं, जिसमें चड्डी, बनियान, टेलीविजन, फ्रिज और झूठे सपने बेचने वाले व्यापारी बैठे हुए हैं। इन नीतियों में यह कभी तय नहीं किया जाता है कि इन योजनाओं के नफे नुकसान क्या हैं? तात्कालिक हित और दीर्घकालिक अहित क्या हैं? गौरतलब है वर्ष 2005 से 2008 के बीच मध्यप्रदेश में 39000 हेक्टेयर जंगल कम हो गया परंतु विकास की बहस में सरकार इस सच को छिपा गयी।

सरकार एक मृगतृष्णा है, जिसमें जो नजर आता है वहां वह होता ही नहीं है। लोकतंत्र में विकास का मतलब यह नहीं है कि 80 प्रतिशत को बिजली देने के लिए आपको बाकी के 20 प्रतिशत की हत्या कर देने का अधिकार है। लेकिन एक भी परियोजना ऐसी नहीं है जिसके बारे में तथाकथित विशेषज्ञ सही आकलन करके बता पाए हों कि इसके चलते जैव विविधता और पारिस्थितिकीय व्यवस्था का कितना नुकसान होगा। अतएव हमें न्याय की परिभाषा और भारत की राजनीतिक व्यवस्था के चरित्र पर सवाल उठाने ही होंगे। जब विकास की रूप रेखा बनाई जाती है तब क्या न्याय उसका मूल सूचक और अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए? बिना न्याय क्या कोई भी विकास संभव है?

मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी में निर्मित इंदिरा सागर और ओंकारेश्वर बांध परियोजनाएं तो यह बताती हैं कि जितना ज्यादा अन्याय होगा, विकास का चेहरा उतना ज्यादा उजला माना जाएगा। न्याय का मतलब केवल लोगों को जमीन मिलना नहीं है। न्याय का मतलब है समाज का राज्य की व्यवस्था में विश्वास होना, जिम्मेदारी के साथ पारिस्थितिकीय तंत्र का व्यवस्थापन करना व केवल इंसान जरुरतों की पूर्ति के लिए काम न करना बल्कि यह भी सुनिश्चित करना कि प्रकृति का संतुलन बना रहे।

यह भी उल्लेख किया जाता है कि नर्मदा के बांधों से मध्यप्रदेश की 3.55 लाख हेक्टेयर जमीन को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो रही है। लेकिन इसमें यह भी जोड़ा जाना चाहिए कि बांध के जलभराव और नहरों के कारण इस पूरी घाटी की 1.4 लाख हेक्टेयर जमीन या तो जलमग्न हो गई है या फिर उसका दलदलीकरण हो गया है। 1960 के दशक में इन परियोजनाओं का मकसद यह था कि इन बांधों से मध्यप्रदेश की बिजली की जरुरतों को पूरा किया जा सकेगा।

अब दो बातें उभरकर आ रही हैं कि नर्मदा घाटी परियोजनाओं के अंतर्गत वर्ष 2003 से 2012 के बीच बिजली का उत्पादन 90 मेगावाट से बढ़कर 2371 मेगावाट हो गया है। दूसरा, इन परियोजनाओं पर हमारी सरकार नागरिकों से करों की वसूली करके 14458 करोड़ रुपए का खर्च कर चुकी है परंतु बिजली का संग्रहण, बिजली का वितरण और बिजली बिल वसूली का काम पूरी तरह से निजी क्षेत्र की कंपनियों को थाली में परोस दिया गया है। कहने को तो इन कंपनियों में सरकार के अंशधारिता है परंतु सच यह है कि विद्युत नियामक आयोग, निजी कंपनियों और सरकार के बीच एक गठजोड़ बन चुका है। इनका पहला मकसद है बिजली के दामों में लगातार बढ़ोत्तरी करना।

हमें तो व्यापक हित और राज्य के विकास को महत्व देना है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या किसी विकास से यदि किसी भी समूह, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, का अहित होता हो या उसका जीवन असहज और असुरक्षित होता हो तो क्या वह विकास व्यापक समाज का हित कर पायेगा? यदि बीज जहरीला या कमजोर होगा तो वृक्ष मीठे और जनहित के फल कैसे दे सकता है?यूँ तो बिजली की एक यूनिट की दर 5 रुपए निर्धारित है लेकिन विभिन्न शुल्कों के नाम पर इस दर को लगभग 7.80 रुपए तक पहुंचा दिया गया है। विद्युत नियामक आयोग, जो उन्हीं पूर्व नौकरशाहों के नेतृत्व में काम कर रहा है, जिन्होंने बिजली उत्पादन से लेकर उसके पूरे व्यापार के निजीकरण की अनुमति दी थी, अब पूरी तरह से निजी कंपनियों के हितों को ध्यान में रखते हुए विद्युत दरों को लगातार बढ़ाने की अनुमति देता रहा है। इस मसले पर मध्यप्रदेश की विधानसभा भी किसानों और उपभोक्ताओं के हित में कोई दखल देने के लिए स्वतंत्र नहीं है। साढ़े तीन लाख एकड़ जमीन को डुबोकर 8 लाख लोगों, जिनमें 3.52 लाख बच्चे थे व सवा लाख हेक्टेयर का जंगल डुबो कर हम किसके हित और विकास की बात कर रहे हैं?

जन संसाधनों की लूट की एक और बानगी देखिये। खंडवा जिले के घोघलगांव के 51 लोग पानी में खड़े होकर जल सत्याग्रह कर रहे थे। उसी जिले में यानी खंडवा जिला मुख्यालय में शहरी पानी के निजीकरण का काम तेज गति से चल रहा है। शहर के लोगों को 60 किलोमीटर दूर नर्मदा नदी से पानी लाकर पिलाए जाने की योजना बनाई गई। 106.72 करोड़ रुपए की इस योजना में 80 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार से, 10 प्रतिशत हिस्सा राज्य सरकार से और शेष 10 प्रतिशत खंडवा नगर निगम के योगदान से इकट्ठा होना था। केंद्र और राज्य तैयार हो गए। खंडवा नगर निगम ने 10 प्रतिशत यानी लगभग 10.6 करोड़ रुपए का योगदान दे पाने में असमर्थता दर्ज करा दी। इतनी राशि का और योगदान दे देना राज्य सरकार के लिए बहुत आसान था पर इसके बजाये उसने कहा कि यह हिस्सा हम निजी कंपनी से सार्वजनिक निजी साझेदारी के तहत निवेश करवा लेंगे।

ये कैसी साझेदारी है, जिसमें 90 प्रतिशत सरकार का हिस्सा है और 10 प्रतिशत कंपनी का? यह तय नहीं है कि कितना पानी दिया जाएगा साथ ही पानी न मिलने पर कोई अदालत में जाने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा। सभी शर्तें कंपनी ने तैयार की। सच तो यह है कि सरकार के प्रतिनिधि यानी किसी अफसर या किसी मंत्री की अंतर्निहित भूमिका के बिना इस तरह के निर्णय हो नहीं सकते। खंडवा में भी यही हुआ। इस शहर के 22 हजार परिवार अब तक लिख कर दे चुके हैं हमें यह व्यवस्था नहीं चाहिए परंतु राज्य सरकार निजी हितों के सामने नागरिकों के मत को दफन करने को पूरी तरह से तैयार बनी रही।

जब पानी में बैठे-बैठे सत्याग्रहियों की चमड़ी और अंग गलने लगे तो मानवीयता और नैतिकता सवाल उठाया जाने लगा। कहा गया कि सरकार पर दबाव बनाने का यह तरीका आपराधिक है। एक पत्रकार ने लिखा जब हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अंगीकार किया है तो विरोध के नाम पर लोगों को आत्महत्या के लिए उकसाना गलत है। ये गंभीर अपराध है। यहां सवाल यह उठता है कि जब लोगों ने इस तरह प्रदर्शन का निर्णय लिया होगा तब उनकी मनःस्थिति क्या रही होगी। क्या हम उसकी कल्पना कर सकते है? इस पूरी लड़ाई में शहरी समाज परियोजना प्रभावितों को अपना दुश्मन मानता है। वह उन परिवारों की पीड़ा को महसूस करने को तैयार नहीं है। जब विस्थापितों की बात उनकी गांव में नहीं सुनी जाती है तभी वे जिला मुख्यालय आते हैं और शायद आखिर में राजधानी में और जब ये आते हैं तो बजाए इनके साथ खड़े होने के इन्हें गालियां दिया जाता है। क्योंकि शहर की सड़कें कुछ घंटों के लिए रुक सी जाती है और हम लोग शॉपिंग के लिए नहीं जा पाते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि जंगल की आग की तरह ही अन्याय की आग भी एक स्तर के बाद कोई भेद नहीं करती। गांव की यह आग एक दिन शहर तक भी पहुंचेंगी। हम उस स्थिति को क्या कहेंगे जब राज्य के कुछ हिस्से समाज को अपना प्रतिद्वंदी मानने लगें और समाज का हक उसे अपना विरोध लगने लगे। नर्मदा बांधों के मामले में पूरा राज्य तो लोगों के खिलाफ नहीं हुआ पर राज्य के कुछ हिस्से, मंत्री, जन- प्रतिनिधि और अफसरान जरुर लोगों के हकों को राज्य के अहम का विषय बनाते नजर आये। जब भी राज्य की नीति पर सवाल उठते हैं तब यह होना स्वाभाविक है कि जिनके हित प्रभावित होंगे वे सत्याग्रह को भी टकराव और अहम का विषय बनायेंगे।

उपनिवेशवादी व्यवस्था सरकार से कहती है कि हम व्यापक हितों और व्यवस्थापन के लिए नीतियां बनाते हैं। हमारी सरकार भी आज यही कहती है कि हम छोटे समूह या कुछ लोगों के हितों को पूरा करने के चक्कर में नहीं पड़ेगे। हमें तो व्यापक हित और राज्य के विकास को महत्व देना है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या किसी विकास से यदि किसी भी समूह, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, का अहित होता हो या उसका जीवन असहज और असुरक्षित होता हो तो क्या वह विकास व्यापक समाज का हित कर पायेगा? यदि बीज जहरीला या कमजोर होगा तो वृक्ष मीठे और जनहित के फल कैसे दे सकता है?

सचिनकुमार जैन का सामाजिक शोधकर्ता एवं विकास संवाद से संबद्ध हैं।

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