ऐसी त्रासदी जिससे राष्ट्र भी हारा

2-3 दिसम्बर, 1984 की उस दुर्भाग्यपूर्ण रात को भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास के क्षेत्र में रह रहे हजारों लोगों को त्रासदी से प्रभावित हुए तीन दशक बीत चुके हैं, लेकिन इसके बावजूद पीड़ितों व रोगियों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है। इस बात को समझने को प्रयास करने की कोई तुक नहीं है कि वॉरेन एंडरसन को कैसे और क्यों भाग जाने दिया गया।

वॉरेन एंडरसन की मृत्यु हो चुकी है और उस पर कभी भी मुकदमा दायर नहीं किया जाएगा। भोपाल गैस त्रासदी का एक शर्मनाक पहलू जो शेष रह जाता है वो यह कि यह अब केवल ऐसी अखबार की कहानी रह गई है जो सक्रियतावादियों द्वारा समर्थित परिवारों द्वारा मोमबत्ती की रोशनी में निकाले गए विरोध जुलूस के माध्यम से समय-समय पर प्रकाशित होती रहती है।

कहानी की तलाश में लगे जिज्ञासु संवाददाता इस भयावह त्रासदी से प्रभावित परिवारों से बार-बार वही सवाल पूछते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि उन्हें न्याय दिलाने में किसी की रुचि नहीं है। जहाँ तक त्रासदी के बाद किसी भी सत्तारूढ़ सरकार की बात है, तो उन्हें मृतकों अथवा उनके परिवारों की और कारखाने के परिसर में भारी मात्रा में पड़े जहरीले कचरे की कोई परवाह नहीं है।

चूँकि मुआवजे के सवाल को अभी तक निपटाया नहीं गया है और उस भयावह त्रासदी के परिणामस्वरूप, मुख्य रूप से गरीब वर्ग असंख्य बीमारियों से प्रभावित हो रहा है, गैस रिसाव के प्रभाव की उपेक्षा करने व महत्वहीन बनाने के लिए हम सभी समान रूप से दोषी हैं। विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी अधिकारियों सूत्रों से यह स्पष्ट है कि इस भयावह त्रासदी का शिकार मुख्य रूप से संयन्त्र में व इसके आसपास काम कर रहे दिहाड़ीदारी मजदूरों के गरीब परिवार थे।

भोपाल में जेपी नगर के बीड़ी मजदूर, मुख्य रूप से महिलाओं को आंशिक अन्धेपन का शिकार बनना पड़ा। उनमें से कई अपंग हैं और काम करने में असमर्थ हैं, इसके बावजूद यह पूरी तरह से तिरस्कारपूर्ण है कि अब भी मुआवजे की राशि तीव्र बहस का विषय बनी हुई है और अधिकांश पीड़ितों को अभी भी यह राशि मिलना बाकी है। गैस त्रासदी को अब भुला दिया गया है और इस देश को हानि पहुँचाने वाली हर त्रासदी की तरह, चाहे वह उत्तराखण्ड और कश्मीर में कहर बरपाने वाली बाढ़ हो या फिर गुजरात में आया भूकम्प हो, यह केवल सुविधाजनक राजनीतिक हथियार के रूप में सेवारत हैं।

यहां तक कि अदालत भी इस मुद्दे पर कार्यवाही करने में विफल रही है क्योंकि वह अपराधियों को सुनवाई के दौरान पेश करने में विफल रही। त्रासदी से सम्बन्धित गलत सूचना से ज्यादा समस्या उत्पन्न हुई है।

सरकारी रिपोर्टें बेईमान और अविश्वसनीय बनी हुई हैं और जिन लोगों के पास इस त्रासदी की प्रत्यक्ष सूचना हो सकती है, उनमें से ज्यादातर की मृत्यु हो चुकी है। अब ये सवाल उठता है कि अखबारों में व टीवी चैनलों के मुद्दों पर चर्चा करने का क्या मतलब है जब हम केवल घटना क्यों हुई व इसके होने के पीछे कारणों पर चर्चा करने से ज्यादा कुछ और कर नहीं सकते। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि घटनाओं, त्रासदियों एवं प्रभावित पीड़ितों की खबर राष्ट्रीय मीडिया में त्रासदी की दसवीं अथवा 30वीं वर्षगांठ के मौके पर ही उभर कर सामने आती है, अन्यथा हमें हताहत व्यक्तियों, किस प्रकार पीढ़ियों का सफाया हो गया, या जहरीली गैस के रिसाव से प्रभावित बच्चे किस प्रकार मस्तिष्क पक्षाघात व अन्य गम्भीर जन्म विकारों का शिकार हो रहे हैं, के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है।

इसे कभी प्रतिवेदित नहीं किया जाता और न ही कोई कभी इससे परिचित होने की आवश्यकता समझता है। इसके बाद यह प्रश्न उठता है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह एक अन्तहीन बहस है। फिर भोपाल गैस त्रासदी को याद करने की आवश्यकता ही क्या है? यह विफलता, प्रशासनिक लापरवाही, अपनी ही जनता के साथ सरकार द्वारा किए गए धोखे की याद दिलाता है।

भोपाल गैस त्रासदी का एक शर्मनाक पहलू जो शेष रह जाता है वो यह कि यह अब केवल ऐसी अखबार की कहानी रह गई है जो सक्रियतावादियों द्वारा समर्थित परिवारों द्वारा मोमबत्ती की रोशनी में निकाले गए विरोध जुलूस के माध्यम से समय-समय पर प्रकाशित होती रहती है। कहानी की तलाश में लगे जिज्ञासु संवाददाता इस भयावह त्रासदी से प्रभावित परिवारों से बार-बार वही सवाल पूछते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि उन्हें न्याय दिलाने में किसी की रुचि नहीं है। जहां तक त्रासदी के बाद किसी भी सत्तारूढ़ सरकार की बात है, तो उन्हें मृतकों अथवा उनके परिवारों की और कारखाने के परिसर में भारी मात्रा में पड़े जहरीले कचरे की कोई परवाह नहीं है।उस समय की केन्द्रीय सरकार व राज्य सरकार, दोनों ने आसन्न त्रासदी के कई चेतावनीपूर्ण संकेतों को अनदेखा कर दिया था, इसलिए हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि सरकार ने संयन्त्र के भीतर एवं इसके आसपास के क्षेत्र में काम कर रहे मजदूरों व उनके परिवारों की सुरक्षा को प्राथमिकता देना आवश्यक नहीं समझा। 1981 में भी गैस रिसाव व परिणामस्वरूप मौतों की खबरें मिली थीं, इसके बावजूद, अपने कारखानों में सुरक्षा चिंताओं को दरकिनार करने के इतिहास वाले यूनियन कार्बाइड संयन्त्र को चलता रहने दिया गया।

इस त्रासदी को समर्पित संग्रहालय, विश्वासघात और प्रणाली की विफलता का प्रतिनिधित्व करता है। संयन्त्र के आसपास दफनाया गया कई टन जहरीला कचरा आज भी भूमिगत जल और मिट्टी को प्रदूषित कर रहा है। यह इस बात का उदाहरण है कि त्रासदी के 30 वर्ष बाद भी, क्रमागत सरकारें, न्याय और पुनर्वास के प्रति कितनी गम्भीर हैं।

एक अन्य प्रश्न जो पीड़ितों और उनके परिवारों को परेशान करता रहेगा वो ये कि वॉरेन एंडरसन को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने वाले पायलट अब क्यों बयानबाजी कर रहे हैं? अब यह जानने का क्या औचित्य है कि वॉरेन एंडरसन सुरक्षित निकलने में कैसे कामयाब हुआ? यह सामान्य ज्ञान है और राष्ट्र इसके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने का इच्छुक नहीं है। एंडरसन व उसके जूर्म को समझने के प्रयास में अपना समय व्यर्थ क्यों गंवाएँ जब हमें केवल विदेशी कम्पनी के कार्यकारी द्वारा ही नहीं बल्कि हमारे अपने ही देशवासियों एवं निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ठगा गया है।

इस लेख का इरादा उन लोगों को हतोत्साहित करने का नहीं है जो पीड़ितों व उनके परिवारों के हक के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वास्तव में यह उनके लिए एक चेतावनी है जो इस त्रासदी के राजनीतिक पहलुओं के बारे में बैठकर चर्चा करते हैं कि अब बहुत हो चुका। अदालत द्वारा त्रासदी के पीड़ितों को शीघ्र व सही चिकित्सीय उपचार मिलने के लिए त्रासदी प्रभावित पीड़ितों के कम्प्यूटरीकृत मेडिकल रिकॉर्ड बनाने के आदेश की अभी भी पालना नहीं की जा रही है।

कारखाने के आसपास रह रहे लोगों के लिए सुरक्षित पीने का पानी अभी भी उदासीन हकीक़त बनी हुई है। अगर उन्हें कैंसर अथवा कोई अन्य जानलेवा बीमारी चपेट में ले लेती है, ऐसी स्थिति में उनके लिए सुरक्षित भविष्य सुरक्षित करने के कोई साधन उपलब्ध नहीं है। भोपाल त्रासदी आज भी अनन्त मानवीय पीड़ा और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण, राष्ट्रीय तिरस्कार की कहानी बनी हुई है।

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