ऐतिहासिक जलागम योजनाएँ

पाठ - 2

अनुभव से यह पता चलता है, कि विभिन्न कार्यक्रमों के अंतर्गत जल संग्रहण विकास परियोजनाएँ प्रायः अपने भौतिक और वित्तिय लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रही हैं। हालाँकि जल संग्रहण के लिए ढाँचों के निर्माण में नई तकनीकों का प्रयोग किया गया, परन्तु, अनेक मामलों में किसानों और समुदाय के लोगों ने इनको अपनाने में ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया, जिसके कई कारण हैं- जैसे कि शुरू में भारी निवेश की आवश्यकता थी, जो कि सरल और उपयुक्त तो थी, परन्तु ग्राम स्तर सामाजिक, आर्थिक वास्तविकताएँ इनको अपनाने में रूकावट डालती हैं।

देश में वर्षा जल को बहने से रोकने, इसको इकट्ठा करने, मिट्टी और पानी को यथास्थिति (उसी स्थान) पर संरक्षण करने के लिए वर्षा से जलागम पद्धति को परम्परागत रूप से प्रयोग में लाया जा रहा है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए केन्द्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों के विभिन्न कार्यक्रमों के अन्तर्गत बंजर भूमि/अवक्रमित भूमि को विकसित करने का प्रयास किया गया। ग्रामीण विकास मन्त्रालय इन कार्यों को करने में अग्रणी है और सूखा बहुल क्षेत्रों, मरूभूमि तथा वर्षा सिंचित क्षेत्रों में जल को इकट्ठा करने के लिए क्षेत्र विकास कार्यक्रमों को सहभागी पद्धति से, उपभोगता समुदायों की सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया।

सूखा बहुल क्षेत्र कार्यक्रम (डीपीएपी) और मरूभूमि विकास कार्यक्रम को 1973-74 तथा 1977-78 में शुरू किया गया था। समेकित बंजर भूमि विकास कार्यक्रम (आईडब्ल्यूडीपी) को वर्ष 1989 में आरम्भ किया गया था।

हालाँकि इन कार्यक्रमों के लक्ष्यों को, विभिन्न क्षेत्रों की विशेष आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अलग-अलग रूप में केन्द्रित किया गया है, इसका सामान्य उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों को लम्बे समय के विकास के लिए भूमि और जल संसाधन का प्रबंधन करना है।

जल संग्रहण, जलागम विकास सम्बन्धी मार्गदर्शी सिद्धान्तों को हनुमत राव समिति 1994 की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था। इन्हें 1 अप्रैल, 1995 से लागू किया गया था। इसके पश्चात मार्गदर्शी सिद्धांतों को और अधिक विषय केन्द्रित, पारदर्शी तथा आसानी से पालन करने के लिए अगस्त 2001 में संशोधित किया गया था।

वहीं दूसरी ओर, एकीकृत बंजर भूमि विकास परियोजना में सरकार अथवा समुदाय या गैर-सरकारी नियंत्रण के अन्तर्गत बंजर भूमि पर चारागाह बनाए गए, जो कि उनका महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम था।

इन सभी कार्यक्रमों की मुख्य विशेषता के लिए वर्षा सिंचित क्षेत्रों में राष्ट्रीय जल संग्रहण विकास कार्यक्रम में सुधार लाने के कार्य पर भी बल दिया गया।

उन सभी कार्यक्रमों का लक्ष्य अलग हो सकता था, परन्तु इनका मूल उद्देश्य था भूमि और जल संसाधनों का उचित प्रबंधन लम्बे समय तक हो।

प्रो. हनुमन्था राव की अध्यक्षता में गठित तकनीकी समिति ने पूरे देश में सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम, मरूभूमि विकास कार्यक्रम तथा एकीकृत बंजरभूमि विकास योजनाओं के उद्देश्य, कार्यविधि तथा व्यय मानदण्डों, कार्यान्वयन और प्रभाव का अध्ययन किया और सुझाव दिया कि समस्त जल संग्रहण विकास परियोजनाओं के लिए एक समान कार्यन्वयन कार्यकारी सिद्धान्तों को सम्मिलित रूप से तैयार किया जाए, जिसमें ग्रामीण विकास मन्त्रालय के अन्तर्गत तीनों कार्यक्रमों की मुख्य बातों को जोड़ा जा सके।

अनुभव से यह पता चलता है, कि विभिन्न कार्यक्रमों के अंतर्गत जल संग्रहण विकास परियोजनाएँ प्रायः अपने भौतिक और वित्तिय लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल रही हैं। हालाँकि जल संग्रहण के लिए ढाँचों के निर्माण में नई तकनीकों का प्रयोग किया गया, परन्तु, अनेक मामलों में किसानों और समुदाय के लोगों ने इनको अपनाने में ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया, जिसके कई कारण हैं- जैसे कि शुरू में भारी निवेश की आवश्यकता थी, जो कि सरल और उपयुक्त तो थी, परन्तु ग्राम स्तर सामाजिक, आर्थिक वास्तविकताएँ इनको अपनाने में रूकावट डालती हैं। इसके अतिरिक्त समुदाय ने स्थानीय ज्ञान और सामग्री के आधार पर ही तकनीकें विकसित की थीं, जो कम खर्चीली, सरल और रख-रखाव में भी आसान थीं। इन सब के अतिरिक्त, अनुपयुक्त प्रशासनिक प्रबन्धन या परियोजना कर्मचारियों की अपर्याप्त प्रबन्ध कुशलता इसका कारण रही।

जिन मामलों में प्रगति संतोषजनक रही, उनमें भी निर्मित सम्पत्तियों, संसाधनों में स्थाई विकास नहीं हुआ, इसका मुख्य कारण ग्रामीण समुदायों या उपभोक्ताओं समूहों द्वारा अपर्याप्त सहभागिता एवं संवेदनशीलता और उनकी, ग्रामीणों को आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी तरीकों का प्रशिक्षण देने और उनके सामने भ्रमण द्वारा कुशल प्रबंधन की व्यवस्थाओं को दिखाना, अवसरों का फायदा उठाने, उनकी खोज करने में एवं उद्यमी की कुशलता, सामुदायिक संगठन और उपभोक्ता समूहों में कार्य करने के लिए दल बनाने के सम्बन्ध में प्रशिक्षणों की कमी थी।

अतः जल संग्रहण विकास कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए मौजूदा संस्थागत ढाँचे में, आवश्यक परिवर्तन तथा संशोधन करना आवश्यक था, ताकि ग्रामीण विकास मन्त्रालय पंचायती राज संस्थाओं को अधिकार सम्पन्न बनाने के अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा कर सके। इसी उद्देश्य के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 27 जनवरी, 2003 को ‘हरियाली’ नाम से एक नया कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसका आशय पंचायती राज संस्थाओं को ग्रामीण विकास मंत्रालय के जल संग्रहण विकास सम्बन्धी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन में प्रशासनिक तथा वित्तिय, दोनों ही रूप में सशक्त बनाना था। ताकि वर्षा जल की प्रत्येक बूँद को संरक्षित किया जा सके।

उसके पश्चात मन्त्रालय ने मौजूदा नियमों उपबंधों को संशोधित किया तथा नये कार्यक्रम के लिए मार्गदर्शी सिद्धान्त तैयार किए, जिन्हें हरियाली के लिए मार्गदर्शी सिद्धान्त कहा गया। ये मार्गदर्शी सिद्धान्त, समेकित बंजरभूमि विकास कार्यक्रम (आई डब्ल्यू डी पी) सूखा प्रवण क्षेत्र कार्यक्रम (डी पी ए पी), मरूभूमि विकास कार्यक्रम (डी डी पी) और भारत सरकार द्वारा अधिसूचित किए गए किसी भी अन्य कार्यक्रमों के लिए लागू हुए। भूमि संसाधन विभाग राज्य सरकारों से इन मार्गदर्शी सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से अपनाने तथा लागू करने के लिए अनुरोध करने के लिए उत्तरदाई था।

हरियाली मार्गनिर्देशिका


- इसमें जल संग्रहण क्षेत्र का औसतन आकार 500 हेक्टेयर तक सम्मिलित किया गया।

- इसमें प्रस्तावित लागत 6000/ रु. प्रति हेक्टेयर निर्धारित की गई थी। जिसे निम्नलिखित परियोजना घटकों को प्रतिशतता के अनुसार विभाजित किया गया।

1.

जल संग्रहण उपचार/ विकास कार्य/गतिविधियाँ

85 प्रतिशत

2.

सामुदायिक संघठन और प्रशिक्षण

5 प्रतिशत

3.

प्रशासनिक व्यय

10 प्रतिशत

योग 100

 



प्रशासनिक लागत में यदि कोई बचत होती, तो उसे अन्य दो शीर्षों अर्थात- प्रशिक्षण और जल संग्रहण के कार्यों के अन्तर्गत कार्यकलाप करने हेतु उपयोग में लाया जा सकता था। अन्य दो शीर्षों के अन्तर्गत बचत की राशि को इस शीर्ष के अन्तर्गत उपयोग में नहीं लाया जा सकता था। प्रशासनिक लागतों के तहत-वाहनों, कार्यालय, उपकरणों फर्नीचर, भवनों का निर्माण करने और सरकारी कर्मचारियों को वेतन का भुगतान करने हेतु व्यय किए जाने की अनुमति नहीं थी।

- स्वयं सहायता समूहों को रिवोल्विंग फन्ड 10,000 रु. की दर पर मुहैया कराया गया था जिसको (मूल धनराशि) से अधिक 6 मासिक किश्तों मे वापिस लिया जाता था।

एकीकृत जलागम प्रबंधन कार्यक्रम के तहत समान मार्गनिर्देशिका
- इसमें जल संग्रहण क्षेत्र 1000-5000 हेक्टेयर, क्लस्टर पद्धति में लिया जाएगा।

- प्रति हेक्टेयर प्रस्तावित लागत 12000/प्रति हेक्टेयर

-मैदानी इलाकों के लिए 15000 रु./प्रति हेक्टेयर पहाड़ी क्षेत्रों के लिए रखा गया।

- इसमें परियोजना के प्रबंधन को तीन चरणों-प्रारम्भिक चरण, जलागम कार्य चरण, समेकन तथा समेकन एवं निर्वतन चरण में विभाजित किया गया, जिन्हें 4-7 वर्ष तक पूरा करना होगा।

उपरोक्त बिंदुओं के अतिरिक्त इस नयी एकीकृत पद्धति में निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं।


1. राज्यों को अब अपने अधिकार क्षेत्र में जलागम परियोजनाएँ स्वीकृत करने तथा इनके कार्यान्वयन, निगरानी करने के अधिकार दिए गए।

2. जलागम कार्यों के प्रबन्धन के लिए राष्ट्रीय, राज्य तथा जिला स्तर पर समर्पित एजेंसियाँ हैं, एस एल एन ए, डब्ल्यू डी ए, पी आई ए तथा समर्पित संस्थाओं की व्यवसायिकता सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त वित्तिय सहायता उपलब्ध कराई जाएगी।

3. जीविका अभिमुखीकरण:- संरक्षण उपायों के साथ-साथ उत्पादकता में वृद्धि तथा जीविका के साधनों को बढ़ाने की प्राथमिकता दी जाएगी।

4. वैज्ञानिक आयोजन:- कार्यक्रम की योजना बनाने, निगरानी तथा मूल्यांकन में सूचना एवं नई तकनीकों को उपयोग में लाने का प्रावधान रखा गया।

-इसमें स्वयं सहायता समूहों के लिए 25000 रु. की दर से रिवोल्विंग फन्ड उपलब्ध कराया जाएगा। जिसे समूह की उत्पादन क्षमता बचत एवं क्षमता के अनुसार 18 माह में मूलधन को वापिस लिया जाएगा, ताकि उसी धन को स्वयं सहायता समूहों में, आजीविका की गतिविधियों के लिए पुनः निवेश किया जा सके।

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