आखिर कम हुआ यूरिया से याराना

खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने और उनका निर्यात करके मलाई काटने के इस शोरगुल में किसी सरकार ने मिट्टी की सेहत जांचने की जहमत नहीं उठाई।

प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह ने पिछले दिनों यूरिया की कीमतों में दस फीसदी का इजाफा करने का फैसला किया है। अगर कैबिनेट इस निर्णय को मंजूरी दे देती है तो अधर में लटके उर्वरक उद्योग की सेहत सुधारने की दिशा में यह छोटा लेकिन अहम फैसला साबित हो सकता है। यूरिया पर की जा रही राजनीति ने इससे जुड़े दोनों पक्षों यानी किसानों और उद्योग को बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है।

हरित क्रांति की शुरुआत के समय मिट्टी की गुणवत्ता की जांच किए बिना ही मान लिया गया कि रासायनिक उर्वरकों का कम इस्तेमाल करने के कारण ही उत्पादन कम होता है। इस बात में कोई दोराय नहीं है कि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, लेकिन किसानों और उपजाऊ मिट्टी को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने और उनका निर्यात करके मलाई काटने के इस शोरगुल में किसी सरकार ने मिट्टी की सेहत जांचने की जहमत नहीं उठाई। अब हरित क्रांति के अगुवा प्रदेशों मसलन हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में उत्पादन दर नकारात्मक हो गई है।

भारतीय कृषि शोध संस्थान ने पिछले दिनों देश की खेती-किसानी पर विजन-2030 नाम से एक दस्तावेज प्रकाशित किया है। दस्तावेज कहता है कि खेती लायक देश की कुल 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि की उत्पादकता घट चुकी है। यही नहीं 84 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि जलप्लावन (पानी की अधिकता) और खारेपन (नमक की अधिकता) का सामना कर रही है। तेजी से घट रहे पेड़-पौधे और खनन कार्यों में हो रही बढ़ोतरी ने भी कृषि योग्य भूमि की कब्र खोदने का काम किया है। वनावरण घटने से मिट्टी में प्राकृतिक खाद की कमी होती जा रही है वहीं बढ़ते खनन से मिट्टी में उपलब्ध तत्वों का अनुपात गड़बड़ा गया है।

रासायनिक उर्वरकों से किसानों के बर्बाद होने की कहानी को यूरिया पर मिलने वाली सब्सिडी के जरिए आसानी से समझा जा सकता है। यूरिया पर सब्सिडी देने की शुरुआत 1977 में की गई थी। यूरिया की कीमतें सरकार तय करती है और उर्वरक कंपनियां सरकारी दर पर ही यूरिया की बिक्री करती हैं। उर्वरक कंपनियों को लागत मूल्य से कम कीमत पर यूरिया बेचने से होने वाले घाटे की भरपाई के लिए सरकार सब्सिडी जारी करती है। उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी के रूप में ज्यादा से ज्यादा पैसा मिले इसके लिए जरूरी था कि किसानों को यूरिया के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जाए। उर्वरक कंपनियों के दबाव में कृषि वैज्ञानिकों और सरकार ने यूरिया के प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।

अपने खेतों में यूरिया डालता किसानअपने खेतों में यूरिया डालता किसानमिट्टी में कमी चाहे जिंक, फॉस्फेट या किसी दूसरे पोषक तत्व की हो लेकिन किसानों को केवल यूरिया के छिड़काव की ही सलाह दी गई। नतीजतन यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी का बिल साल-दर-साल बढ़ता गया और इसके साथ ही उर्वरक कंपनियों के थैले भी भरते रहे लेकिन इस लूट से किसान रासायनिक उर्वरकों के जाल में फंस गया। किसानों के कल्याण के नाम पर रचे गए इस ढोंग ने यूरिया के बेजा इस्तेमाल को बढ़ावा दिया है। देश की उपजाऊ मिट्टी में पोषक तत्वों का अनुपात इस कदर बिगड़ गया है कि अब उत्पादन दर नकारात्मक हो गई है। विडंबना देखिए, 2004-05 से लेकर अब तक महज पांच सालों में रासायनिक उर्वरकों की खपत में 40 से 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है लेकिन इस दौरान देश में खाद्यान्न उत्पादन केवल दस फीसदी बढ़ा है।

आजादी के बाद से ही जैविक उर्वरकों को हाशिए पर डालकर उद्योग लॉबी के दबाव में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाता रहा है। 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों की सालाना खपत 70 हजार टन थी वहीं 2010-11 में यह बढ़कर साढ़े पांच करोड़ टन हो गई है। देश की कुल उर्वरक खपत में यूरिया का हिस्सा 2.7 करोड़ टन है यानी इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों में आधे से ज्यादा यूरिया होता है। नीति-निर्धारकों के यूरिया से इस अत्यधिक मोह के कारण मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों मसलन जिंक, जिप्सम, कॉपर सल्फेट व कैल्शियम की भारी कमी हो गई है।

ऐसा नहीं है कि किसान यूरिया के दुष्प्रभाव नहीं समझ रहा है लेकिन सरकार की दोषपूर्ण सब्सिडी नीति के कारण वह यूरिया के जाल में फंसा हुआ है। उर्वरकों में पोषक तत्वों की उपलब्धता के आधार पर सब्सिडी देने की योजना पिछले साल एक अप्रैल से लागू की गई थी लेकिन यूरिया को इस योजना से बाहर रखा गया। सरकार की भटकी हुई नीति के कारण उर्वरक उद्योग भी महज यूरिया बनाने और सब्सिडी पाने तक ही सिमट गया है।

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