WATERWIKI
आलू

आलू (अंग्रेजी नाम : पोटैटो, वानस्पतिक नाम : सोलेनम ट्यूबरोसम, प्रजाति : सोलेनम, जाति : ट्यूबरोसम, कुल : सोलेनेसी) की उत्पत्ति दक्षिणी अमरीका के पेरू तथा चिली प्रांत में हुई है। इस कुल की प्रत्येक जाति में एक रासायनिक पदार्थ 'सोलेनिन' होता है। कुछ वैज्ञानिकों का विश्वास है कि आलू की खेती अमरीका के आविष्कार के पहले से ही वहां के निवासी करते थे। मानव जाति के भोजन में आलू की प्रधानता इस सीमा तक है कि इसे तरकारियों का सम्राट् कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। इसकी मसालेदार तरकारी, पकौड़ी, चाट, चॉप, पापड इत्यादि अनेक स्वादिष्ट पकवान बनाए जाते हैं। इससे डेक्स्ट्रीन, ग्लूकोज़, ऐलकोहल इत्यादि पदार्थ तैयार किए जाते हैं। इसमें प्रोटीन उच्च कोटि की, परंतु कम मात्रा में होती है। स्टार्च, विटामिन 'सी' तथा 'बी' अधिक मात्रा में होते हैं। भारतवर्ष में इसकी खेती 17वीं शताब्दी के पहले नहीं होती थी, परंतु वर्तमान समय में यह प्रत्येक भाग में प्रतिदिन उपलब्ध है। संसार में इसकी उपज चावल की दुगनी तथा गेहूँ की तिगुनी है। भारतवर्ष में आलू की खेती लगभग 7,15,000 एकड़ में होती है, जिसमें लगभग 7,95,00,000 मन आलू पैदा होता है। उत्तर प्रदेश में लगभग 3,80,000 एकड़ में आलू की खेती होती है जिसमें 4,60,00,000 मन आलू की उपज होती है। भारतवर्ष में आलू की औसत उपज 111 मन प्रति एकड़ है, जब कि यूरोपीय देशों में 225 मन प्रति एकड़ है।

आलू की खेती भिन्न-भिन्न प्रकार की जलवायु में की जा सकती है। समुद्रपृष्ठ से लेकर 9,000 फुट की ऊँचाई तक इसकी खेती हो सकती है परंतु सफल खेती के लिए उपयुक्त जलवायु प्रधान है। इंग्लैंड, आयरलैंड, स्काटलैंड तथा उत्तरी जर्मनी में आलू की सर्वाधिक उपज का मुख्य कारण उन स्थानों में आलू की उचित वृद्धि के लिए ठंढी ऋतु है। इसकी वृद्धि के लिए सर्वौतम ताप 60-75 फा. है। अधिक वर्षावाले क्षेत्र में भी इसकी उपज अच्छी नहीं होती। कम वर्षा, परंतु सिंचाई के साधन से युक्त क्षेत्र अधिक उपयुक्त होते हैं। भारतवर्ष में पहाड़ों पर ग्रीष्म ऋतु में तथा मैदानों में जाड़ में इसकी खेती होती है। आलू की सफल खेती के लिए जलवायु के बाद मिट्टी का महत्व है। आलू के लिए मिट्टी की उपयुक्तता की माप आलू की उपज, उसकी शीघ्र परिपक्वता, भोजनोचित गुण तथा सुरक्षित रहने की अवधि इत्यादि गुणों द्वारा ही होती है। इसके लिये वही मिट्टी सर्वोतम है जो उपजाऊ, मध्यम आकार के कणोंवाली, भुरभुरी तथा गहरी हो जो अधिक क्षारीय न हो। इन बातों का ध्यान रखते हुए आलू के लिए सबसे उत्तम मिट्टी पांस (ह्यूमस) से परिपर्ण हल्की दुमट है। मिट्टी में अधिक आर्द्रता का आलू पर बहुत कुप्रभाव पड़ता है।

मिट्टी को कई बार जोतकर भली भांति भुरभुरी तथा गहरी कर लेना चाहिए। मिट्टी जितनी ही अधिक गहरी, खुली तथा भुरभुरी होगी उतनी ही वह आलू की अच्छी उपज के लिए उपयुक्त होगी। मिट्टी की तैयारी का विशेष महत्व इसलिए है कि मिट्टी की रचना, आर्द्रता, ताप, वायुसंचालन तथा प्राप्य खनिजों से भोज्य तत्वों का आलू के पौधों द्वारा ग्रहण प्रधानत: मिट्टी की जोत पर ही निर्भर है। इन कारणों का प्रभाव आलू के आकार, गुण तथा उपज पर पड़ता हे। अत: 9-10 इंच गहरी जुताई करना उत्तम है। एक ही खेत से लागातार आलू की फसल लेना दोषपूर्ण है। अधिक भोज्यग्राही फसल के बाद भी आलू बोना अनुचित है। आलू की जड़ें अधिक गहराई तक नहीं जातीं और तीन चार महीने में ही इतनी अधिक उपज देकर उन्हें जीवन समाप्त कर देना पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि खाद अधिक मात्रा में ऊपर की मिट्टी में ही मिश्रित की जाए जिससे पौधे सुगमतापूर्वक शीघ्र ही उसे प्राप्त कर सकें। सड़े गोबर की खाद प्रति एकड़ 400 मन तथा 10 मन अंडी अथवा नीम की खली का चूर्ण आलू बोने के दो सप्ताह पहले मिट्टी में भली भांति मिलाना चाहिए। जिन मेड़ों में आलू बोना हो उनमें पूर्वोक्त खाद के अतिरिक्त आमोनियम सल्फेट तीन मन तथा सुपर फास्फेट छह मन प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़कर मिट्टी में मिला दें। तत्पश्चात्‌ उन्हीं मेड़ों में आलू बोया जाय। अन्य खाद देते समय यह ध्यान रहे कि कम से कम 150 पाउंड नाइट्रोजन प्रति एकड़ मिट्टी में प्रस्तुत हो जाए।

आलू की खेती भारतवर्ष के मैदानी तथा पहाड़ी दोनों भागों में होती है। मैदान में बोए जानेवाले आलू तीन वर्गो में विभाजित किए जाते हैं:

(क) शीघ्र पकने वाली किस्में थोड़े समय (60-90 दिनों) मैं तैयार हो जाती हैं, परंतु इनकी उपज अधिक नहीं होती। ये किस्में निम्नलिखित हैं: (1) साठा--छोटे आकार के ये आलू 60 से 75 दिनों में तैयार हो जाते हैं, (2) गोला-यह एक मिश्रित किस्म है जिसमें दो अन्य किस्में भी मिली रहती हैं। इसकी खेतीं अधिक नहीं होती, क्योंकि मिश्रण होने से किसान इन्हें पसंद नहीं करते। यह भी लगभग 60 दिनों में तैयार हो जाती है।

(ख) मध्यम किस्म का आलू जो तीन से चार महीने में तैयार होता है/ (1) अपटुडेटयह अतयंत सुंदर किस्म है। आलू सफेद तथा अच्छे आकार के होते हैं; (2) द्विजाति (हाइब्रिड)-हाइब्रिड 45, 208, 209, 2236 तथा हाइब्रिड ओ.एन. 2186 इत्यादि। ये द्विजाति किस्में केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र में पैदा की जा रही हैं, जिसमें वहां से अन्य स्थानों करने के लिए उनक वितरण हो सके।

(ग) अधिक समय में तैयार होनेवाले आलू, जो चार से पांच महीने में तैयार होते है; इनकी उपज अधिक होती है: (1) फुलवा-यह मैदानी भाग में सर्वत्र बोया जाया है। पौधे फूलते हैं आलू सफेद होता है; उपज अधिक होती है; (2) दार्जिलिंग लाल--यह फुला के कुछ पहले तैयार होता हे। आलू लाल रंग का होता है, परंतु फुलवा की तरह यह अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। रखने के लिए फुलवा सबसे अच्छा है। पहाड़ी भाग में पैदा होनेवाली किस्में मार्च तथा अप्रैल में बोई जाती हैं: (1) अपटुडेट, (2) क्रेग्स डिफायेंस, (3) हाइब्रिड 9 तथा 2090 और (4) ग्रेट स्टॉक।

आलू की सफल खेती के लिए बीज का चुनाव अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसमें त्रुटि होने से जो हानि होती है उसकी पूर्ति खाद देकर या अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकती । कितना बीज और और कितनी दूरी पर बोया जाए यह सब आलू की किस्म, आकार तथा मिट्टी की उर्वरता पर निर्भर है। एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति की दूरी 1½फुट से 2½ तक तथा पंक्ति में बीज से बीज की दूरी 6 से 12 इंच होनी चाहिए। बीज से तात्पर्य है आलू या उसके किसी टुकड़े से, जो बोने के लिए प्रयुक्त हो। बड़े आलू काटकर तथा छोटे बिना काटकर बोए जाने चाहिए, परंतु प्रत्येक टुकड़े में आंख (अंकुर) अवश्य रहे । प्रति एकड़ चार मन से 15 मन तक आलू बोया जाता है। बीज कितना बड़ा हो, यह आलू की किस्म पर निर्भर है। फुलवा, दार्जिलिंग और साठा के बीज एक इंच तथा अन्य किस्में 1½ इंच से 1¾ इंच व्यास की होनी चाहिए। मैदान में सितंबर, अक्टूबर तथा नवंबर तक और पहाड़ों पर फरवरी से जून तक ये बोए जाते हैं। बीज को मेड़ पर या कूंड़ में बोते हैं, परंतु प्रत्येक दशा में तीन चार चार इंच से अधिक गहराई पर बीज नहीं बोना चाहिए।

आलू 15 दिन में जम जाता है। मेड़ों के बीच की नालियों में पानी देते हैं। 10-12 दिन के अंतर परी सिंचाई करते रहना चाहिए। पौधे बढ़ते जाते हैं तो उनकी शाखाओं को ढकने के लिए मिट्टी चढ़ाते रहना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इन्हीं ढंकी हुई शाखाओं से सिरों पर आलू बनते है। मिट्टी के बाहर, प्रकाश में आ जाने से ये शाखाएं हरी हो जाती हैं और उनपर आलू नहीं बनते। अस्तु, दो या तीन बार मिट्टी चढाई जाती है। जब पौधों की पत्तियां पीली होने लगें तो आलू की खुदाई करनी चाहिए। शीघ्र तैयार होनेवाली किस्मों की उपज 80 मन से 150 मन तथा देर से तैयार होनेवाली किसमों की उपज 150 से 400 मन प्रति एकड़ होती है।

आलू में अनेक हानिकारक कीड़े तथा रोग लगते हैं। (1) सफेद कीड़ा(ह्वाइट ग्रब)-यह आलू के गूदे को खाता है, जिससे आलू में सड़न पैदा होने लगती है। इससे बचने के लिए खेत में डी.डी.टी. छिड़कना चाहिए। (2) पत्ती खानेवाला कीड़ा (एपीलैक्ना वीट्ल) पत्तियां चाहिए है। इसे 3-5 प्रतिशत डी.डी.टी छिड़कर मारना चाहिए। (3) पोटैटो मॉथ (थार्मियाँ ओपरक्यूलेला) के कीड़े आलू में छेद करके गूदा खाते हैं। ये गोदाम में अधिक हानि पहुँचाते हैं। गोदाम में आलुओं को बालू या लकड़ी के कोयले के चूर्ण से ढककर रखना चाहिए या पाँच प्रतिशत डी.डी.टी. का छिड़काव करना चाहिए। (4) पोटैटो ब्लाइट एक फफँदी (फगंस) की बीमारी है, जिससे पत्तियों तथा तनों पर काले धब्बे पड जाते हैं। बीमारी का संदेह होते ही बोर्डो मिक्श्चर अथवा बरंगडी मिक्श्चर का एक प्रतिशरत घोल छिड़कना चाहिए।(5) पोटैटो स्कब की बीमारी सूक्ष्म जीवों द्वारा फैलती है, जिससे आलू पर भूरे रंग से धब्बे पड़ जाते हैं। (6) रिंग रॉट की बीमारी फैलाने के प्रधान कारण सूक्ष्म जीवाणु (बैक्टीरिया) हैं। इनसे आलू के भीतर भूरे या काले रंग का वृत्ताकार चिह्न बन जाता है। (7) लीफ रोल में आलू की पत्तियां किनारों की ओर मुड़ जाती हैं। यह एक वायरस का रोग है। (8) पोटैटो मोज़ैइक एक प्रकार का कोढ़ है जो वायरस का रोग है। अन्य रोग, जैसे स्पिटल-स्ट्रीक क्रिंक्ल ड्राइ रॉट ऑव पोटैटो तथा पोटैटो वार्ट इत्यादि भी आलू को अधिक हानि पहुँचा सकते हैं।

बीज के लिए आलू को सर्वदा शुष्क तथा ठंढे स्थान में रखना चाहिए। उसे प्रशीतित घर (कोल्ड स्टोर) में रखना अति उत्तम है। (ज.रा.सिं.)

आलूबुखारा यह आलूचा नामक वृक्ष का फल है, जो गढ़वाल, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, अफगानिस्तान इत्यादि में होता है और वहीं से सुखाकर आता है। बुखारा प्रदेश का फल सबसे अच्छा होता है, इसीलिए इसका उपर्युक्त नाम है। फल नाप में आंवले के बराबर और आकार में आड़ू जैसा तथा स्वाद में खटमीठा होता है।

आयुर्वेद के मनानुसार यह ह्दय को बल देनेवाला, गरम, कफपित्त-नाशक, पाचक, मधुर तथा प्रमेह, गुल्म, बवासीर और रक्तवात में उपयोगी है, दस्तावर है तथा ज्वर को शांत करता है। इसके वृक्ष का गोंद खाँसी तथा फेफड़े और छाती की पीड़ा में लाभदायक तथा गुर्दे और मूत्राशय की पथरो को तोड़कर निकालनेवाली है। इसे भोजन के पहले खाने से पित्तविकार मिटते हैं तथा मुँह में रखने से प्यास कम लगती है। इसका चूर्ण घाव पर भुरभुराने से या इसके पानी से घाव धोने से भी लाभ होता है।

अन्य स्रोतों से:




गुगल मैप (Google Map):

बाहरी कड़ियाँ:
1 -
2 -
3 -

विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia):




संदर्भ:
1 -

2 -