अनियोजित विकास से आती हैं आपदाएं

एन.डी.आर.एफ., बडोदरा किसी भी शहर की बसाहट के नियोजन एवं विकास की योजना बनाते समय अक्सर स्थानीय पारिस्थितिकी की अनदेखी की जाती है। विकास परियोजना से पारिस्थितिकी को हो रहे निरंतर नुकसान की भरपाई का मतलब आमतौर पर मूल प्राकृतिक, मिश्रित प्रजातियों को उगाने की बजाय आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण, तेजी से बढ़ने वाली वनस्पतियों से निकाला जाता है। इसकी वजह से पूरा पारिस्थितिकी तंत्र उलट-पुलट हो जाता है परिणामस्वरूप प्रकृति में असुंतलन उत्पन्न होता है तथा वह दृश्य और अदृश्य गतिविधियों की लंबी श्रृंखला तैयार करता है।

पारिस्थितिकीय कारक जैसे किसी भी स्थान की भौगोलिक स्थिति, आबोहवा, मिट्टी की विविधता, प्राकृतिक झरने, नाले, वनस्पतियां, तालाब-झीलें, चट्टानी सतहों और बंजर भू-भागों को भी समझने की आवश्यकता है। हमारे प्रत्येक शहर की अपनी प्राकृतिक विरासत है। अंधाधुंध विकास, अपनी प्राकृतिक प्रणालियों से असंबद्धता और प्रकृति के विभिन्नि घटकों के आपसी नाजुक बंधन को समझने में भूल करना खतरनाक साबित हो रहा है। यह नासमझी हमारे अस्तित्व का आधार ही नष्ट कर रही है। अनुचित तरीके से विकास के हस्तक्षेपों की वजह से आपदा के जोखिम दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। हमारे रोज़मर्रा के फैसलों और व्यवहार में ये खतरे शामिल हैं। बकौल डेनिस मिलेटी, 'डिजास्टर्स आर डिजाइन्ड' (आपदाएं आकल्पित हैं)। बाढ़ और भूकंप जैसी घटनाएं प्राकृतिक हैं और खतरे मौजूद हैं। बिना तैयारी और बिना सुरक्षा उपाय के कारण व्यक्ति, समुदाय, भवनों को नुकसान ज्यादा होता है। शहरों के नियोजन के समय हमें अपने दिमाग में प्राकृतिक आपदाओं और पारिस्थितिकी का हमेशा रखना चाहिए।

धरती की स्वाभाविक और मौसम संबंधी घटनाएं खतरनाक होती हैं। व्यक्ति का निर्माण या संपत्ति गलत समय, गलत जगह पर मौजूद हो तो इनके कारण उसे अत्यधिक असुविधा, शारीरिक और आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। कई वजहों जैसे- जरूरत, विकल्पों की कमी, अनदेखी, लालच या जानबूझकर खतरे को नजरअंदाज करना, बाढ़ के खतरे वाले इलाके या अविराम नदी के किनारों पर खुदाई या अस्थिर पहाड़ी ढलानों पर जनसंख्या या भवनों की संख्या में इजाफा खतरे के कारण बनते हैं। शहरीकरण, भवनों और सड़कों के निर्माण भूमि की अंत:स्पंदन क्षमता कम करते हैं जिसके कारण कम अंतराल में बाढ़ की स्थिति बनती है। छोटे नाले और उनकी शाखाएं शहरों में नजर ही नहीं आती। ये जलस्रोत भवनों के नीचे दब जाते हैं। यदि निर्माण के दौरान पर्याप्त द्रवणरोधी न बनाया जाए तो जोखिम बड़ा हो जाता है। हमें उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे और कई हादसों के लिए तैयार रहना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की भयानकता से सबक सीख कर जलवायु परिवर्तन पर राज्यों को सुझाई गई कार्ययोजना पर सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए। इससे आपदा मुक्त भारत बनाने में मदद मिल सकेगी।

नए दृष्टिकोण, नई नीति की जरूरत बाढ़ को लेकर बाढ़ प्रभावित देश भारत और चीन के दृष्टिकोणों पर गौर करना चाहिए। चीन ने अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली विकसित कर ली है और भारत अभी भी आपदा के प्रभाव को कम करने के लिए दवाइयों और वैक्सीन की खोज में ही लगा हुआ है- ऐसा क्यों? चीनवासी हजारों साल से अपनी दो बड़ी नदियों-चांग जिआंग और हुआंग हे के प्रकोप को झेलते रहे। इन नदियों पर काबू पाना प्रारंभिक चीनी सभ्यता का मुख्य लक्ष्य था। भारत में बाढ़ प्रबंधन के प्रति दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है। पहाड़ी इलाकों में एकीकृत बाढ़ प्रबंधन के तरीके में बदलाव की आवश्यकता है। जैसा कि पिछले 50 सालों से चीन करता आ रहा है। जम्मू-कश्मीर में चिनाब, तवी नदियां, झीलों और निचली घाटियों के पानी को नियंत्रित कर आपदा से बचाव करती हैं। गर्मियों में सघन और तूफानी बारिश मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ का कारण बनती है। जब हम बाढ़ प्रबंधन और राहत नीतियों की ओर नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि चीन का दृष्टिकोण हमसे बेहतर है।

लेखक आपदा प्रबंधन विशेषज्ञ हैं।

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