‘अंतरराष्ट्रीय बड़े बाँध विरोध दिवस’ पर विष्णुगाड-पीपलकोटी बाँध का विरोध

16 Mar 2013
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राज्य के बांधों में, सुरंगे पहाड़ों को 1500 कि.मी. लम्बाई में खोखला कर रही हैं। पहाड़ी क्षेत्र में मात्र 7 प्रतिशत भूमि खेती योग्य शेष बच रही है। इन पर भी डूब और अन्य बांध कार्यों का खतरा है। खेती कम होने से भविष्य में खाद्य सुरक्षा बड़ा प्रश्न खड़ा होने वाला है। पूरे राज्य में नदी किनारे असुरक्षित हो रहे हैं। नदी में पानी की भी अनिश्चितता हुई है। नदी का पानी अचानक छोड़ा जाता है। धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यों जैसे स्नानपर्व, दाह-संस्कार, नदी-पूजन आदि के लिए भी नदी में पानी नहीं रहा है। जिससे भूस्खलन बढ़े है। पहाड़ की संस्कृति पर बुरा असर पड़ रहा है। आज 14 मार्च को अलकनंदा गंगा घाटी में ‘अंतरराष्ट्रीय बड़े बांध विरोध दिवस’ के दिन बड़े बांधों के खिलाफ प्रर्दशन हुआ। देशभर में बड़े बांधों से उजड़े लोगो का पुनर्वास तक नहीं हो पाया है। पर्यावरण के मानकों का पूर्ण उलंघन हुआ है वही इन बांधों से घोषित बिजली उत्पादन तक नहीं हुआ है। उत्तराखंड में ही बन चुके बांधों की स्थिति खराब है। बांधों से आज ना केवल नदियां खतरे में है बल्कि यह भी सिद्ध हो गया है कि राज्य को आने वाले समय में केवल नुकसान ही मिलेगा। टिहरी बांध के विस्थापितों के लिये उच्चतम न्यायालय तक जाना पड़ा तब जाकर कुछ पुनर्वास हो पाया है। पिछले 21 वर्षो से एन.डी. जुयाल व शेखर सिंह बनाम भारत सरकार केस चालू है। बांध विरोधियों ने ही पुनर्वास की लड़ाई लड़ी है। सरकारों का ध्यान मात्र बांध बनाने में है। पर्यावरण और लोगो पर पड़ रहे नुकसानों की ओर नहीं है।

उत्तराखंड में अलकनंदा गंगा पर निर्माणाधीन विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध क्षेत्र में विभिन्न प्रभावित गांव कौड़िया, दुर्गानगर, हरसारी, नौरख टंगरी आदि से आयी महिलाओं व पुरुषों ने माटू जनसंगठन के बैनर तले विरोध प्रदर्शन किया। हरसारी गांव के नीचे जहां बांध के विद्युतघर के लिये सुरंग निर्माणाधीन है, लोग वहां इकट्ठे हुये और सुरंग काम बंद किया व बांध कंपनी टीएचडीसी के कर्मचारियों का घेराव किया। बाद में जुलुस ने गंगा को अविरल बहने दो, बड़े बांध धोखा है आदि नारे लगाते हुये सियासेण में टीएचडीसी के कार्यालय पर जाकर प्रदर्शन किया। संघर्ष को आगे ले जाने का ऐलान किया।

सभा में नौरख के वन सरपंच बृहषराज तड़ियाल ने कहा की हमारे भविष्य की बर्बादी हम नहीं सहेंगे। हमें बांध नहीं चाहिए। हमने आज तक लड़ाई लड़ी है आगे भी हमारा संघर्ष जारी रहेगा। नरेन्द्र पोखरियाल ने कहा की हम पिछले 9 वर्षों से विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के असरों को झेल रहे है किंतु बांध कंपनी को कोई परवाह नहीं है। हाटगांव के लोग भी अधूरे आश्वासनों में लटक रहे है। रामलाल का कहना था की अभी बांध का काम भी चालू नहीं हुआ है। टीएचडीसी ने बांध के सर्वे के लिये जो नुकसान किये है उनकी भरपाई नहीं कर सकी तो आगे क्या करेगी? यह बात आज सबकी समझ में आ रही है। गीता देवी ने कहा की हम दुर्गापुर वालो की स्थिति भी हरसारी वालो की तरह होने वाली है। हम बांध नहीं बनने देंगे। हरसारी की बिंदी देवी ने कहा की रात को विस्फोटकों के कारण हम सो नहीं पाते और सरकार चैन की नींद सो रही है। विभिन्न गाँवों से आई महिलाओं मसूरी देवी, नंदी देवी, भादी देवी आदि ने भी नदियों पर बांधों का विरोध किया।

विश्वबैंक के अध्यक्ष भारत आकर गंगा जी में गंदगी पर चिंता व्यक्त करते है और दूसरी तरफ गंगा की हत्या करने वाली बांध परियोजनाओं को पैसा देते है। हम उनके मगरमच्छी आसुंओ को समझते हैं यह एक तरीका है गंगा सफाई के लिये और कर्ज देने का। यदि उन्हें वास्तव में गंगा की इतनी चिंता है तो वे विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के लिये कर्जा क्यों दे रहे है?

विष्णुगाड-पीपलकोटी का विरोध करते स्थानीय लोगविष्णुगाड-पीपलकोटी का विरोध करते स्थानीय लोग24 जुलाई व 3 अगस्त 2012 को अस्सी गंगा नदी में बादल फटने के कारण निमार्णाधीन कल्दीगाड व अस्सी गंगा चरण एक व दो जलविद्युत परियोजनाओं ने तबाही मचाई और भागीरथी गंगा में मनेरी भाली चरण दो के कारण बहुत नुकसान हुआ। मारे गये मज़दूरों का कोई रिकार्ड भी नहीं मिला। अस्सी गंगा के गांव बुरी तरह से प्रभावित हुये, छोटे-छोटे रास्ते टूटे, अस्सी गंगा घाटी का पर्यावरण तबाह हुआ जिसकी भरपाई में कई दशक लगेंगे। मनेरी भाली चरण दो के प्रभावितों का भी पुनर्वास नहीं हुआ। ऐसा ही केदार घाटी में भी बादल फटने से ज्यादा वहां बन रहे बांधों के कारण नुकसान हुआ। ‘उत्तराखंड जल विद्युत निगम‘ भी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। बल्कि उनकी सारी ग़लतियों को बाढ़ के साथ बहा दिया गया। सरकारी हो या निजी, दोनो ही तरह की बांध कंपनियां व्यवहार में एक सी है।

राज्य के बांधों में, सुरंगे पहाड़ों को 1500 कि.मी. लम्बाई में खोखला कर रही हैं। पहाड़ी क्षेत्र में मात्र 7 प्रतिशत भूमि खेती योग्य शेष बच रही है। इन पर भी डूब और अन्य बांध कार्यों का खतरा है। खेती कम होने से भविष्य में खाद्य सुरक्षा बड़ा प्रश्न खड़ा होने वाला है। पूरे राज्य में नदी किनारे असुरक्षित हो रहे हैं। नदी में पानी की भी अनिश्चितता हुई है। नदी का पानी अचानक छोड़ा जाता है। धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यों जैसे स्नानपर्व, दाह-संस्कार, नदी-पूजन आदि के लिए भी नदी में पानी नहीं रहा है। जिससे भूस्खलन बढ़े है। पहाड़ की संस्कृति पर बुरा असर पड़ रहा है। सबसे बुरा असर महिलाओं की स्वतंत्रता पर पड़ता है। देवभूमि उत्तराखंड में नदी किनारे के सभी प्रयाग या तो डूब रहे है या सूख रहे हैं। इन सबके बाद भी यदि सरकारें नहीं समझती हैं तो भविष्य में राज्य की तबाही कि वे जिम्मेदार होंगी। पर्यावरण सुरक्षा और जनहक के लिये बड़े बांधों के खिलाफ हमारा संघर्ष जारी रहेगा।

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