आपदा और महिलाएं

12 Jul 2014
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जून माह में आई आपदा के कारण जो त्रासदी हुई, उसकी याद एक दर्द की तरह सालती रहेगी सालों साल! उन सबको जिन्होंने अपनों को खोया, उन औरतों को जिनके पति व बच्चे वापस नहीं आये, उनको जो किस्मत से खुद तो बच गये लेकिन पानी के उफान में जिन्होंने मौत का मंजर देखा। देखा है- सैकड़ों इंसानों को बहते, टूटते-फूटते मिट्टी पत्थरों के साथ, उनको जो भूख प्यास से तड़पते हुए अंतिम श्वांस तक जिंदगी के लिए लड़ते रहे मौत से। याद रहेगा उनको भी जिनकी जिंदगी भर की कमाई, घर, दुकान, गाड़ी, मवेशी, साजो-सामान कुछ ही घंटों में मिट्टी में मिल गया।

रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ मंदिर सहित ऊखीमठ व अगस्त्यमुनि क्षेत्र के गांवों व कस्बों में जो तबाही हुई, वह अकल्पनीय है और उसकी भरपाई करना असंभव है।शायद याद रहे उन भ्रष्टाचारी व मक्कार शासक वर्ग व उनके नुमाइंदों, मठाधीशों, धन्नासेठों को भी जिन्होंने धर्म व पर्यटन के लूटतंत्र को बढ़ावा दिया। बांधों के निर्माण व मुनाफा कमाने के लिए पहाड़, जंगल, नदियों के साथ खिलवाड़ किया। याद तो उनको भी रहेगा जिन दलालों, नेताओं, अधिकारियों व कर्मचारियों ने आपदा राहत सामग्री को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के बजाय उसका दुरुपयोग किया, रास्तों में फेंक दिया, इस आपदा के लिए इकट्ठी की गई करोड़ों की धनराशि के बंदरबांट में इंसानियत व मानवता को दांव पर लगाकर अपने हित साधते रहे।

समय बीतता जा रहा है, जिंदगी ने किसी भी तरह सही गति पकड़ ली है। वैसे भी वक्त हर मरहम की दवा है। जीवन रुकता नहीं, चलता रहता है।

हिमालय में अतिवृष्टि, भूस्खलन, बाढ़ आना सामान्य घटनाएं हैं। भूगर्भ वैज्ञानिकों का मानना है कि चूंकि हिमालय अभी नया व विकसित होता हुआ पहाड़ है, इसलिए इसमें हलचलें होना और प्राकृतिक बदलाव का होना स्वाभाविक है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हिमालय के मध्यवर्ती क्षेत्रों में भूस्खलन, बाढ़, बादल फटना, भूकंप इत्यादि घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं। विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां पहाड़ों को काटने के लिए डाइनामाइट का प्रयोग हो रहा है। धार्मिक तीर्थाटन के कारण पहाड़ों में लाखों की संख्या में मानव का हस्तक्षेप बढ़ा है।

नदी- घाटियों, गाड़-गधेरों, कच्ची पहाड़ियों के आस-पास व्यापक पैमाने पर सड़कों, विशालकाय इमारतों, होटलों, दुकानों व भवनों का निर्माण किया जा रहा है। नदियों में बांध बनाने की संख्या तेज हुई है। पहाड़ों में सुरंगों का निर्माण व रेता-बजरी के खनन ने इन क्षेत्रों को भीतर से खोखला व कमजोर कर दिया है। इसलिए तेज बारिश, भूकंप, बाढ़ व भूस्खलन में भारी पैमाने पर जान-माल का नुकसान हो रहा है।

इस वर्ष की त्रासदी मुख्यतः इन्हीं कारणों से ज्यादा भयानक, खौफनाक हो गई और मौतों की संख्या तो बढ़ी ही संपत्ति का नुकसान भी कई गुना बढ़ गया।

यूं तो 15-17 जून को हुई तेज बारिश ने पूरे उत्तराखंड में तबाही मचाई है और अभी सितंबर तक मानसून जारी है। लेकिन इस तबाही में व्यापक स्तर पर प्रभाव रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ जनपदों पर पड़ा है। कई क्षेत्रों में अभी भी रास्तों, बुनियादी जरूरतों का अभाव बना हुआ है। सरकारी व गैर सरकारी वायदों, योजनाओं व कार्यवाहियों के बीच इन क्षेत्रों की जनता को लुभाया व भरमाया जा रहा है।

रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ मंदिर सहित ऊखीमठ व अगस्त्यमुनि क्षेत्र के गांवों व कस्बों में जो तबाही हुई, वह अकल्पनीय है और उसकी भरपाई करना असंभव है। केदारनाथ से 14 किमी. गौरीकुंड तक और 7 किमी. सोनप्रयाग तक दसियों हजार लोगों की जानें गईं, करोड़ों की संपति नष्ट हुई। सड़कों, पुलों व रास्तों को ठीक करने में अभी लंबा समय लगेगा।

कभी पर्यटकों, तीर्थयात्रियों को मंदाकिनी घाटी में पहाड़ी का सौंदर्य, नदी किनारे लहलहाते खेत, बस्तियां व गांव आकर्षित करते थे। लेकिन आज यह इलाका सबसे बदरंग व डरावना महसूस होता हैं जगह-जगह टूटी सड़कें, टूटे पुल, उजड़ी बस्तियां, मलबा व रेत के टीले, बांध निर्माता कंपनियों की टूटी मशीनें, मृतकों के कपड़े व समान एवं उफनती नदी का फैलाव ही दिखाई देता है चारों तरफ। बांध व सड़क निर्माताओं द्वारा टनों के हिसाब से मिट्टी, पत्थर को नदी में डाला गया। परिणाम, मलबा अपनी ताकत से सब कुछ साथ लेता चला गया और निचले इलाकों में पानी के साथ भरता चला गया। कितने परिवार उजड़ गये, कितनों की मेहनत की कमाई मिट्टी में मिल गई, कितने गांव पुरुष विहीन हो गए, कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई। बूढ़े, माता-पिता के सहारे छिन गये। बहुत कुछ हुआ इस तबाही में, जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो।

रुद्रप्रयाग जिले के 709 व्यक्तियों की मौत हुई है जो केदारनाथ रोजगार के लिए गये थे, लेकिन वापस नहीं आये। कालीमठ क्षेत्र के त्वारा, लवाली, लमगौंड़ी, जालचौमासी, रासीगौंड़ार, बेडूला आदि गांवों की यह स्थिति है, जहां 280 पुरुष व लड़के मारे गये। स्थानीय निवासियों ने बताया कि बडासू गांव के 12-17 वर्ष के लड़के गर्मी की छुट्टियों में केदारनाथ गये थे, जो लौटकर नहीं आये।हालांकि तीर्थयात्रियों के लिए यह त्रासदी बहुत ही दुखदायी रही है। लेकिन रुद्रप्रयाग जिले के 709 (अधिकारिक आंकड़े, वास्तविकता अधिक होगी) व्यक्तियों की मौत हुई है जो केदारनाथ रोजगार के लिए गये थे, लेकिन वापस नहीं आये। उन परिवारों के लिए तो इसकी भयावहता और ज्यादा हो गयी है जहां एक भी पुरुष नहीं बच पाया। कालीमठ क्षेत्र के त्वारा, लवाली, लमगौंड़ी, जालचौमासी, रासीगौंड़ार, बेडूला आदि गांवों की यह स्थिति है, जहां 280 पुरुष व लड़के मारे गये। स्थानीय निवासियों ने बताया कि बडासू गांव के 12-17 वर्ष के लड़के गर्मी की छुट्टियों में केदारनाथ गये थे, जो लौटकर नहीं आये। इस आपदा की सबसे त्रासद स्थिति उन परिवारों की महिलाओं की है जिन्होंने अपने पति व लड़कों को खो दिया। समग्रता में देखें तो महिलाओं को मानसिक रूप से इस तबाही ने सबसे अधिक प्रभावित किया है।

इस क्षेत्र में अधिकांश परिवारों में या तो बूढ़े बच गये या तो लड़कियां या बच्चे। कई परिवारों में तो नवविवाहित बहुओं को वैधव्य का दुख मिला है। इन गांवों में आज भी मरघट की सी शांति है, दुख है अपनों को अंतिम विदाई न दे पाने का!

सरकार की लुटेरी, मुनाफा कमाने वाली, भ्रष्ट जनविरोधी नीतियों व जंगलों, पहाड़ों व नदियों के साथ की जा रही ज्यादती के भयंकर नतीजे होने की संभावना तो पिछले कुछ वर्षों से की जा रही थी। लेकिन घोटालों व भ्रष्टाचार में डूबी सरकारें इस तरफ ध्यान देने के बजाय दलालों, माफिया, पूंजीपतियों की सेवा में मशगूल रहीं। उत्तराखंड में आयी इस मानवकृत आपदा व तबाही को इसी नजरिये से देखने की कोशिश की जानी चाहिए।

सरकार ने आपदा राहत सामग्री पहुंचाकर व मुआवजा बंटवा कर बिना ठोस तहकीकात के सभी समस्याओं को जाने बिना, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। वास्तव में इस पूरे क्षेत्र में जहां भी नुकसान हुआ है, वहां दूरदराज के गांवों में ठीक से रास्ते नहीं बने हैं और जरूरत भर की सामग्री भी कितने परिवारों को नहीं मिल पायी है। मृतकों के परिवारजनों को एक चैक पकड़ा देना ही क्या काफी है? क्या मंत्रियों, नेताओं व अधिकारियों की जिम्मेदारी नहीं बनती कि गांव-गांव तक जायें व उन परिवारों तक संवेदना प्रदर्शित करें? विधवा व मजबूर महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में कुछ ठोस प्रयास किये जायें?

इस क्षेत्र में डाक्टरों, दवाओं की सुविधा न होने के कारण कितनी महिलाएं व बच्चे बीमार हैं। बाढ़ के बाद कितनी तरह की बीमारियां फैली हैं। डाक्टर जो आते हैं, वे गुप्तकाशी तक ही जा पाते हैं। कुछ डाक्टरों का कहना था कि हम लोगों की सहायता करना चाहते हैं लेकिन उन्हें स्थानीय प्रशासन की तरफ से कोई मदद नहीं मिल पाती।

हमारे सामंती पितृसत्तात्मक समाज में आज भी महिला को कमतर माना जाता है। त्रासदी के बाद उनको कई प्रकार की शारीरिक-मानसिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिसकी तरफ ध्यान दिया जाना जरूरी है। समाज में औरत की भूमिका जिस खांचे में फिट की गयी है, उसके अनुरूप ही व्यवहार किया जाता है। पति की मृत्यु के बाद तो महिलाओं का जीवन नारकीय ही हो जाता है।

आज भले ही हम महिला स्वतंत्रता की कितनी बातें करें, व्यवहार के स्तर पर परिवार व समाज में महिलाओं की स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं दिखाई देता है। पुरातन रूढ़ियों व मूल्य-मान्यताओं के अनुरूप ही उसके साथ व्यवहार किया जाता है। पति की मृत्यु के बाद मिलने वाली सहायता राशि या अन्य सहयोग का उपयोग भी, यदि परिवार का मुखिया पुरुष होता है तो, स्त्री अपनी इच्छा के अनुरूप नहीं कर पाती है। स्त्री का वैधव्य उसके शोषण व उत्पीड़न को बढ़ाने की परिस्थितियां तैयार करता है।

डेरा सच्चा सौदा का पाखंडी व ऐय्याश राम-रहीम जब उत्तराखंड की विधवा महिलाओं से अपने शिष्यों के विवाह की बात करता है तो दरअसल वह स्त्री को मात्र उपभोग की वस्तु समझकर उनका अपमान करता है। आपदा राहत सामग्री बांटने के बहाने वह उत्तराखंड में अपनी पैठ बनाना चाहता है। ऐसे झूठे मक्कार धर्म गुरुओं को सबक सिखाने की जरूरत है।

चूंकि हरियाणा में कन्या भ्रूण हत्या इतनी ज्यादा है कि वहां पर वधू मिलना कठिन होता है इसलिए ये महानुभाव वक्त का फायदा उठाना चाहते हैं लेकिन उनको यह भी समझना चाहिए कि उत्तराखंड की महिलायें पहाड़ का साहस व हिम्मत रखती हैं।

आपदाग्रस्त क्षेत्रों में विपदा व परेशानियों के बावजूद महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा आत्मविश्वास व जुझारू तरीके से वक्त का सामना कर रही हैं। एक कमरे में पूरे संयुक्त परिवार की देखभाल करना, रहने-सोने की व्यवस्था करना, राहत सामग्री के लिए सुबह से दोपहर तक मुख्य मार्गों में घंटों लाइन में लगकर परिवार को भुखमरी से बचाना, कपड़ों, दवाइयों व बच्चों की जरूरतों को प्राप्त करने के लिए कठिन पैदल मार्गों से दूर-दराज तक जाना। इन क्षेत्रों में अधिकांश सामग्री जरूरतमंदों तक पहुंचाने, यहां तक कि फंसे तीर्थयात्रियों को खाना खिलाना, रहने की व्यवस्था करना एवं सेवा सुश्रूषा करके उनको मानसिक रूप में धैय बंधाने का काम भी मुख्यतः महिलाओं ने ही किया है।

आज भी कितनी महिलायें हैं जो संस्थाओं से जुड़ी हैं। वे सब एक मिसाल के रूप में काम कर रही हैं। उनकी ईमानदारी और त्याग इतना अधिक है कि यदि इन महिलाओं को राहत सामग्री बंटवाने का जिम्मा दिया जाता तो शायद अंतिम व्यक्ति तक सही प्रकार से सहायता पहुंच जाती। ये सुबह घर की सारी जिम्मेदारी पूरी कर निकल जाती हैं, उन जगहों के लिए जहां शिविर लगे हैं या जहां पर प्रभावित परिवारों ने शरण ली है।

तत्पश्चात् जो भी सहायता के लिए टीमें व संगठन आते हैं उनको पीडि़तों तक पहुंचाने का प्रयास करती हैं। खतरनाक रास्तों को पार करती, स्थानीय भ्रष्ट नेताओं की खिलाफत करतीं और राहत व बचाव में स्वयं शामिल होती हैं। ये महिलाएं विपत्ति में भी जीवटता की एक मिसाल हैं।

वर्तमान आपदा में जो विध्वंस हुआ है, अब धीरे-धीरे लोग उसको स्वीकार कर रहे हैं। परिस्थितियों से समझौता करके या तो अपनी जिंदगी नये सिरे से जीने का प्रयास कर रहे हैं या पहाड़ से पलायन कर मैदानों व शहरों का रुख कर रहे हैं ताकि कुछ रोजगार कर परिवार का पेट पाल सकें। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं रास्ते ठीक करतीं, खेतों को पुनः फसल योग्य बनातीं, टूटे घरों की जगह नये घर बनाने की जुगत लगातीं, बच्चों की पढ़ाई सुचारू करवाने के प्रयास करतीं, पति व परिवारजनों में आत्मविश्वास जगातीं, सहेलियों, पड़ोसियों को सहयोग करतीं व ढाढस बंधातीं, आपदा के विध्वंस के बाद पुनर्निर्माण का सपना देख रही हैं। (यह रिपोर्ट 25 जून से 7 जुलाई 2013 तक केदारघाटी में रहकर वहां से लौटने के बाद लिखी गई।)

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