आपदा प्रबन्धन एक सोच (Thinking on Disaster Management)

इस तरह से एक आपदा आपके सामने विपत्तियों एवं चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर देती है। अत: विवेकपूर्ण बात यही प्रमाणित होती है कि पूर्व तैयारी और आपदा के जोखिम कम करने में पूरी ताकत लगाना उचित प्रबन्धन होगा, जिससे विकास सुरक्षित हो सकेगा और जान-माल का नुकसान भी कम होगा। तभी हम पूरे इत्मीनान से कह सकते हैं कि हम तैयार हैं

हम कितने तैयार हैं? अगर नेपाल में आए भूकम्प जैसी आपदा से हमारा देश पीड़ित होता है तो? इस तरह का प्रश्न हर आपदा के बाद पूछा जाता है और यह एक कठिन प्रश्न है। इसका उत्तर देना सरल नहीं है। प्रश्न का अगर हम सन्दर्भ बदलें तो शायद उत्तर देने में आसानी हो सकती है। जैसे, क्या इतनी बड़ी त्रासदी के सन्दर्भ में हम लोग तैयार हैं? जिन भवनों में हम रहते हैं, उनकी क्षमता कैसी है? क्या ये भवन बड़े भूकम्प की मार सहने में सक्षम हैं? हमारे समुदाय के लोग जब भूकम्प के कम्पन को महसूस करते हैं, तो उस दो मिनट की अवधि में उनकी प्रतिक्रिया कैसी होती है? क्या वे इससे बचाव के लिये तैयारी की बात सोचते हैं? क्या हमारी सड़कें, अस्पताल, स्कूल, संचार व्यवस्था, पॉवर आपूर्ति हेतु बनी संस्थाएँ भी तैयार हैं? फिर बात आती है, सरकार की व्यवस्थाओं की तो क्या वे भी तैयार हैं? पूरी समग्रता में अगर इस पर विचार करें तब हमें थोड़ा डर लगता है। शायद जितनी अपेक्षा हमारी तैयारी की है, तो उन्हें पुन: देखना, जाँचना-परखना होगा। सरकारी तन्त्र अकेले अगर पूरी तरह से तैयार हो तो भी इसके नुकसान को कम करने में सक्षम नहीं हो सकेगा। वर्तमान भूकम्प एक बहुत बड़ी त्रासदी है और इसका स्वरूप ‘दक्षिण एशिया’ का भूकम्प मानें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

विनाशकारी भूकम्प से नेपाल और भारत पीड़ित हुआ है। साथ ही, इसके झटके पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में भी महसूस किये गए। हिमालय में इस बड़े भूकम्प से अब तक की जानकारी के अनुसार 8.1 मिलियन लोग पीड़ित हुए हैं। नेपाल में अकेले 5,000 से ज्यादा जिन्दगी मौत में तब्दील हो गई। भारत में भी लगभग 70-75 लोग अपनी जान गँवा बैठे। अभी नुकसान के आँकड़े आने हैं, आशंका है कि ये अरबों रुपयों में होंगे। नुकसान के जितने आँकड़े बताए जाएँगे, उनमें वास्तविक क्षति 30 से 40 फीसद ज्यादा ही होगी। अगर मान लें कि 100 रुपए का नुकसान हुआ तो लगभग 140-150 रुपए या उससे भी कई गुना ज्यादा की धनराशि फिर से जिन्दगी को अपने पैरों पर खड़े करने में खर्च होगी। इसके चलते विकास की धन राशि प्रभावित होगी और फिर विकास पीछे छूटने लगेगा। एक अनुमानित विकास की दर जो सुनिश्चित की गई थी, इस भूकम्प के कारण उसे प्राप्त करना मुश्किल होगा। तब इसका सीधा असर यहाँ के लोगों पर पड़ेगा। खासकर उन पर जो आर्थिक रूप से सबल नहीं हैं।

मापदण्ड होना जरूरी


विकास के आयाम और मापदण्ड हम आपदाओं के सन्दर्भ में नहीं बनाते। इसमें आर्थिक मूल्य की अहमियत ज्यादा है, जिसका सीधा असर हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर खर्च से जुड़ता है। सुरक्षा पर ध्यान देने से ऐसा प्रतीत होता है कि उस पर खर्च ज्यादा आएगा परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसा लगता है कि अगर हम आने वाले भूकम्प की आशंका के अनुसार विकास की रणनीति तय करते तो जिनकी मौत हो गई, उन्हें बचाया जा सकता था और दूसरे, आर्थिक नुकसान को भी कम किया जा सकता है। आपदा प्रबन्धन एवं विकास में सामंजस्य होना नितान्त आवश्यक है। विकास हो लेकिन सुरक्षित विकास हो। हमारे देश में भी और दक्षिण एशिया के करीब-करीब सभी देशों में अधिनियम बने हैं, संस्थाएं बन रही हैं। ऐसी बड़ी त्रासदी से निबटने के लिये देश में और क्षेत्रीय स्तर पर भी निरन्तर काम हो रहा है। साझा कार्यक्रम भी बनाए गए हैं। सभी देशों ने यह माना है कि इस तरह की बड़ी त्रासदी से सम्भावित नुकसान को हम कम करने की चाह रखते भी हैं, तो इसे अकेले नहीं कर पाएँगे। अत: सार्क देशों ने साझा कार्यक्रम बनाया है, रणनीति बनाई हैं और संस्थाएं भी बनाई हैं।

विश्व बैंक की विभागीय रिपोर्ट 2014 का अगर सन्दर्भ लें तो आप पाएँगे कि पूरा दक्षिण एशिया विभिन्न आपदाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है, और तैयारी के स्तर पर, क्षमता के स्तर पर बहुत पीछे है। यह स्पष्ट करता है कि हम तैयार नहीं हैं। तैयारी एवं क्षमता विकसित करना हरेक देश के लिये जरूरी है अन्यथा इससे बड़ी विभीषिका के लिये भी हमें तैयार होना होगा। मार्च 18, 2015 को विश्व के 185 देशों ने जापान के सेंडी में आपदा जोखिम को कम करने के लिये अपनी कटिबद्धता दोहराई है।

आगे के 15 वर्षों में जोखिम कम करने के लिये अपनी प्राथमिकताएँ तय की हैं। इनमें साझा सहयोग से आपदा के जोखिम को कम करना, रोकी जा सकने वाली मौतों को रोकना, रोजगार एवं स्वास्थ्य को प्राथमिकता के आधार पर लेना आदि मुख्य हैं। नई रणनीति में जो 2015-30 वर्ष तक अमल में लाई जानी है, उसमें सात वैश्विक मसले पर सहमति बनी है। इनमें सबसे प्रमुख हैं जान-माल की क्षति को कम करना, आर्थिक नुकसान को कम करना तथा आपदा से पीड़ित होने वाले लोगों की संख्या को न्यून करना।

नेपाल में राहत कार्य सात-आठ दिनों में समाप्त हो जाने की सम्भावना है, परन्तु अब नई चुनौती सामने खड़ी है। वह है, पुनर्निर्माण की। इन कामों को शुरू करने के लिये आपदा से होने वाले नुकसान का आकलन, भवनों का निरीक्षण कर रहने या न रहने लायक मकानों को चिह्नित करना, संसाधन का इन्तजाम और फिर प्राथमिकता के आधार पर कामों को शुरू करना। रिहाइश एक व्यापक चुनौती होगी। इसमें पुनर्निमाण के काम लिये भवनों के निर्माण में भूकम्प अवरोधी सामग्री की पूर्ती करनी होगी। इसी तरह, तात्कालिक आश्रय केन्द्रों में रहने वाले लोगों को बुनियादी सुविधाओं और सुरक्षा मुहैया करना भी एक चुनौती है। निजी क्षेत्रों की इसमें अहम भूमिका हो सकती है। उन्हें भी इस व्यापक पुनर्मिमाण के कार्य हेतु सामग्री की उपलब्धता के लिये तैयार रहना होगा।

इस तरह से एक आपदा आपके सामने विपत्तियों एवं चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर देती है। अतः विवेकपूर्ण बात यही प्रमाणित होती है कि पूर्व तैयारी और आपदा के जोखिम कम करने में पूरी ताकत लगाना उचित प्रबन्धन होगा, जिससे विकास सुरक्षित हो सकेगा और जान-माल का नुकसान भी कम होगा। तभी हम पूरे इत्मिनान से कह सकते हैं कि हम तैयार हैं।

लेखक - निदेशक, सार्क आपदा प्रबन्धन, केंद्र, दिल्ली

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