आपदा से कम नहीं है सरकारी लापरवाही


प्राकृतिक आपदाओं के दौर में जन-धन हानि की खबरें सुर्खियों में रहती हैं। यह बात सही है कि ऐसी आपदाएँ कभी कहकर नहीं आती लेकिन विभिन्न एजेंसियों में प्रभावी समन्वय हो तो आपदाओं के दुष्प्रभावों पर एक हद तक अंकुश लग सकता है। लेकिन यदि सरकारी एजेंसियाँ ही विफल रहने लगें तो कहा जाएगा कि…

आपदाआपदा एक प्राकृतिक या मानव निर्मित जोखिम का प्रभाव है, जो समाज या पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। आपदा प्रबन्धन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती। पूर्ववर्ती आपदा प्रबंधन को जोखिम प्रबन्धन के रूप में जाना जाता है। आपदा के खतरे, जोखिम एवं शीघ्र चपेट में आने वाली स्थितियों के मेल से पैदा होते हैं। जोखिम प्रबन्धन के तीन घटक, खतरे की पहचान, खतरा कम करना और उत्तरवर्ती आपदा प्रबन्धन है। खतरों की पहचान के लिये, प्रकृति की जानकारी तथा सम्बन्धित खतरों की सीमा को जानना जरूरी है। साथ ही इसमें जोखिम के आकलन से प्राप्त विशिष्ट भौतिक खतरों की प्रकृति की सूचना भी समाविष्ट है। इस प्रकार से ऐसे निर्णय किये जा सकते हैं कि निरन्तर चलने वाली परियोजनाएँ कैसे तैयार की जानी हैं और कहाँ पर धन का निवेश किया जाए? ताकि दुर्दम्य आपदाओं का सामना किया जा सके। पिछले दिनों राजस्थान समेत देश के कई हिस्से बाढ़ की चपेट में आए तो जान-माल का काफी नुकसान हुआ। यह बात सही है कि प्राकृतिक आपदा कहकर नहीं आती लेकिन इससे निपटने के बन्दोबस्त समय पर कर लिये जाएँ तो जान-माल की हानि को एक हद तक कम किया जा सकता है।

हर साल सरकारें आपदा प्रबन्धन के नाम पर करोड़ों रुपए का बजट प्रावधान रखती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर आपदा राहत कोष का गठन भी किया हुआ है। इसके अलावा राज्यों में भी पृथक से आपदा राहत कोष होता है। यहाँ तक कि जिलास्तर पर भी आपदा प्रबन्धन तंत्र की संरचना बनाई हुई है। फिर भी सवाल यह उठता है कि आखिर हम समय रहते क्यों नहीं चेत पाते? राजस्थान के सन्दर्भ में देखें तो जिलास्तर पर आपदा प्रबन्धन को लेकर उदासीनता का भाव उन जिलों में नजर आया जहाँ अतिवृष्टि में इस बार काफी तबाही हुई। सिरोही तथा पाली जिलों में तो आपदा प्रबन्धन को लेकर क्रमशः 2008 व 2012 के बाद ध्यान ही नहीं दिया गया। आपदाओं के रूप में वर्णित तीस से ज्यादा तरह की घटनाओं में यह बात अहम है कि आपात प्रबन्धन का प्रशिक्षण प्रभावी तरीके से दिया जाए। इसके लिये आपदा राहत कार्मिकों के पास निर्धारित मानकों के उपकरणों की उपलब्धता भी जरूरी है।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्राकृतिक आपदाओं के बचाव और उसके नकारात्मक असर को कम करने में सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि सम्बन्धित जोखिम के हर पहलुओं पर गौर किया जाए। मसलन खतरे वाली जगह, सम्पत्ति को होने वाले नुकसान का सर्वेक्षण इसमें अहम भूमिका निभा सकता है। जैसे भूकम्प की आशंका वाले इलाकों में आपदा प्रतिरोधी अर्थात भूकम्परोधी इमारतों के निर्माण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। दूसरी बात बाढ़, भूकम्प, हिमस्खलन, हादसे व महामारियों से निपटने के प्रभावी उपायों की तैयारी रखी जानी चाहिए। जब ऐसी आपदाओं से प्रभावितों की मदद की बात आती है तो उसके लिये भी उचित तत्परता उपायों पर विचार करना होगा। बाढ़ की स्थिति में पानी की निकासी, चेतावनी उपकरण, आश्रय स्थलों का निर्माण, बिजली-पानी, सीवेज और संचार व्यवस्था को बहाल करना ऐसे दौर में चुनौतीपूर्ण काम होता है। ऐसे में पूर्वाभ्यास किया जाए तो ऐसी घटनाओं से निपटने में सहायता मिल सकती है।

यह देखने में आता है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा से निपटने का काम जब भी शुरू होता है प्रयास यह रहता है कि जनहानि को कम-से-कम किया जाए। यह होना भी चाहिए। वस्तुतः आपदा राहत प्रबन्धन में आपदा आपूर्ति किट की व्यवस्था भी होती है जिसमें भोजन, दवाइयाँ, टॉर्च, मोमबत्तियाँ पहले से ही उपलब्ध हो। जनहानि को रोकने के प्रयासों के साथ पशुधन और अन्य कीमती वस्तुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने की व्यवस्था भी करनी होती है। दरअसल, किसी भी आपदा की प्रतिक्रिया खोज और बचाव के साथ शुरू होती है। लेकिन अक्सर सबसे पहले ध्यान प्रभावित आबादी बुनियादी सुविधाएँ बहाल करने की ओर चला जाता है। ऐसे काम में आपदा प्रबन्धन से जुड़ी एजेन्सियों के साथ सरकार के दूसरे महकमों का समन्वय ही कार्य को गति दे सकता है। बचाव कार्य के लिये विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका प्रभावी रहती है यह हमने समय-समय पर देखा भी है।

यह भी एक तथ्य है कि बचाव कार्य की दक्षता के बावजूद सरकारी पक्ष की शिथिलता नजर आए तो यह जरूरत की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकती। दक्षता जरूरत की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। हाल के वर्षों में आपातकालीन प्रबन्धन की निरन्तर आवश्यकता पड़ती रही है। आपातकालीन प्रबन्धन सूचना सिस्टम (ईएमआईएस) की अवधारणा अपनाकर गुजरात, ओडिशा, आन्ध्र प्रदेश आदि ने आपदा प्रबन्धन की प्रभावी व्यवस्था बनाई भी है। लेकिन राजस्थान जैसे प्रदेशों में हम सेना की ओर ताकते दिखते हैं। आपदा जनित समस्याओं से पीड़ितों को खुद ही उबरना पड़ता है। प्रकोप से निपटने में सरकारी लापरवाही भी किसी आपदा से कम नहीं। शैक्षणिक ज्ञान और वैज्ञानिक विशेषज्ञता को शामिल कर उचित व्यवस्था कायम नहीं की गई तो कभी आम जनता डूब कर मरेगी तो कभी प्यासी।

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