आपदाओं से चुनौतियाँ : सक्षमता पर सवाल


ग्लोबल वार्मिंग को हम ऋतुओं में परिवर्तन का कारण मानते हैं। अच्छा है हमारा प्राचीन धार्मिक साहित्य विज्ञानदाताओं ने नहीं पढ़ा है, अन्यथा अचानक मौसम परिवर्तन की घटनाओं से उन्हें प्रेरित होकर ग्लोबल वार्मिंग की तिथि को पीछे खिसकाना पड़ता। अगर ऐसा होता तो संभव है इस क्षेत्र में इतने प्रोजेक्ट वैज्ञानिकों को नहीं मिलते।

15-16 जून, 2013 को उत्तराखण्ड में जल प्रलय ने पूरे देश को बुरी तरह से झकझोर दिया कि विनाश का आकार किसी भी बड़े से बड़े स्तर का हो सकता है। पृथ्वी पर यूँ तो हर वक्त कहीं न कहीं विनाश होता रहता है परन्तु केदारनाथ में हुआ विनाश ऐसा संकेत बन कर उभरा जो पूरे समाज अथवा देश को प्रकृति के आगे मनुष्य की बेबसी का दयनीय चित्रण प्रस्तुत करता है। बेबसी का यह रेखांकन भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के हर देश में कमोबेश एक जैसा ही है। कहीं पर अधिक तो कहीं पर कम। बेबसी प्रदत्त विनाश को मनुष्य आज भी सर झुकाकर वैसे ही स्वीकार कर लेता है जैसे दशकों अथवा शताब्दियों पहले। कल और आज में बहुत अधिक अन्तर नहीं आया है। देश चाहे विकसित हो अथवा अविकसित। रह-रह कर प्रश्न यही उठता रहता है कि क्या हमारी प्रौद्योगिकी अथवा विज्ञान आपदाओं जनित चुनौतियों का सामना नहीं कर सकती है। आज के मनुष्य को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से बहुत अधिक अपेक्षा है और अपेक्षाएं भी उसी गति से बढ़ रही हैं जिस गति से विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकसित हो रहे हैं।

प्रौद्योगिकी से उत्पन्न सुख का अनुभव मनुष्य जीवन के हर क्षेत्र में अनुभव कर रहा है चाहे वह चिकित्सा का हो या संचार का, यातायात का हो या मनोरंजन का। इसी सुख ने मनुष्य के अन्दर एक आत्मविश्वास उत्पन्न कर दिया कि विपरीत परिस्थिति में समस्या का कुछ-न-कुछ समाधान अवश्य निकाल लेंगे। यह इसलिए भी कि हमें अब लगने लगा है कि प्रौद्योगिकी की ताकत समस्या अथवा संभावित समस्या से अधिक बलशाली है। प्रौद्योगिकी की लाचारी का स्पष्ट दर्शन तो हमें या तो केदारनाथ अथवा उत्तरी अमेरिका का असहनीय तीक्ष्ण जाड़ा कराता है। तीक्ष्ण जाड़ा तो शायद ग्लोबल वार्मिंग की खिल्ली उड़ाने के लिये ही आया हो, साथ ही यह सन्देश भी देने की कोशिश कर रहा था कि अब तो बेवकूफ बनाना बंद करो।

केदारनाथ के संदर्भ में अगर विचार करें तो प्रश्न उठता है कि कहाँ से विचार करना शुरू करें। हर ओर भ्रम ही भ्रम का मायाजाल अपनी असफलता को छुपाने के लिये फैलाया गया है। सरकार यह कहती है इस आपदा में मानवीय कारणों का भी योगदान था। वैज्ञानिक भी इसे मनुष्य जनित बताने की कोशिश कर रहे थे। सरकार और वैज्ञानिक क्या यह दावा कर सकते हैं कि अकल्पनीय वर्षा मानव द्वारा जनित थी। बड़ी मुश्किल से फुहारें गिराने लायक वैज्ञानिक संसाधन रहित आदमी को वर्षा का कारण बता रहे हैं। मनुष्य है तो कहीं तो रहेगा ही, क्या उसका पृथ्वी पर रहना गुनाह है, अगर गुनाह है तो 45,000 मीटर की ऊँचाई पर हुई भारी बारिश के लिये जिम्मेदार वहाँ की मिट्टी और पहाड़ ही हो सकते हैं और कोई नहीं, थोड़ी कम ऊँचाई पर उतरें तो घास-फूस अथवा झाड़ियाँ होंगी और नीचे उतरें तो वृक्ष और वन्य जीव जन्तु होंगे इसके बाद मनुष्य का नम्बर आयेगा। अगर मनुष्य गुनाहगार है तो ऊपर वर्णित भी सह-गुनहगार होंगे ही। कुछ पीछे चलें तो 2006 में मुम्बई में हुई भारी बारिश के लिये भी मनुष्य और मनुष्य निर्मित भवन ही होंगे।

हम क्यों नहीं मानते कि यह एक प्राकृतिक क्रिया जो मनुष्य के प्रभाव से परे थी और इस प्राकृतिक क्रिया ने समय और स्थल ऐसा चुना जब वहाँ पर मनुष्यों की संख्या अधिक थी। अगर यही क्रिया दिसम्बर अथवा जनवरी में होती तो हानि का क्या स्वरूप होता? निश्चित रूप से हम अपनी तकदीर को सराहते हैं कि अच्छा हुआ बारिश ऐसे समय हुई जब वहाँ पर कोई नहीं था। नेपाल से हिमाचल प्रदेश के मध्य करीब 40,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में भारी वर्षा 48 घण्टे से भी अधिक समय तक होना कौतूहल उत्पन्न करता है कि भारी वर्षा वह भी विशाल क्षेत्र में? कौन सी ऐसी मौसम की प्रक्रिया है जो कुछ ही घण्टों में बन कर लम्बे समय तक कहर बरपा सकती है। कोई जवाब दे। इतनी बड़ी वर्षा का तंत्र बनने में घंटों नहीं बल्कि कई दिनों अथवा सप्ताहों का समय लगा होगा। कहाँ चूक थी जो हम इस तंत्र को पकड़ नहीं पाए। पकड़ने की कोशिश भी नहीं करेंगे अन्यथा लेने के देने पड़ जाएंगे।

वर्षा होनी थी हो गई। भारी वर्षा अकेले केदारनाथ के आस-पास 6-7 लाख घन मीटर मलवा ऊपर से फिसलाकर नीचे लाई। अधर में स्थित मलवा हमारी भूवैज्ञानिक ऐजेन्सियों की निगाह से कैसे बच गया? स्कूली बच्चे की तरह यह बोला जा सकता है कि शायद एकाएक प्रकृति ने बनाया होगा, बच्चे की बात गले उतरने लायक नहीं है, तो फिर। गांधी सरोवर के फूटने का कारण उसकी तलहटी से निकला। कुछ सौ वर्ग मीटर का गांधी सरोवर, कुछ मीटर मलवे की मोटाई। मन तो नहीं करता कि सरोवर जिसका नाम राष्ट्र की महान विभूति पर हो उसे बदनाम किया जाए। भूस्खलन को भी दोषी करार नहीं दिया जा सकता है क्योंकि केदारनाथ के आस-पास मामूली से भूस्खलन के चिन्ह ही फोटो में दिखते हैं सैकड़ों वर्षों की जटिल भूवैज्ञानिक क्रियाओं द्वारा जनित स्थिर टाइम बम मलवा क्षेत्र के भूवैज्ञानिक परिदृश्य को बदल दे, आखिरकार आँखों से ओझल ही रहा था। किसकी आँखों से, जो केदारनाथ में भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करने जाते हैं अथवा वो भूवैज्ञानिक जो इन गतिविधियों के रखवाले हैं।

कभी हम पर्यावरण को केदारनाथ के लिये दोषी बनाते हैं तो कभी ग्लोबल वार्मिंग को। 4-5000 मीटर के ऊपर के क्षेत्र में किस पर्यावरण की अपेक्षा करेंगे और कौन सा मनुष्य का प्रभाव ? ग्लेशियरों के सिकुड़ने को भी ढूँढकर दोष देते हैं। ग्लेश्यिर आज से तो सिकुड़ नहीं रहे हैं, वातावरण हम ऐसा खड़ा कर देते हैं कि ग्लेशियरों के सिकुड़ने की घटना जैसे अभी-अभी शुरू हुई हो। सिकुड़ने से मलवा अथवा जिसे भूविज्ञानी मोरेन कहते हैं वह निकलता है। हिमालय के ग्लेशियर छोटे-छोटे होते हैं, कितना मोरेन उनसे निकल सकता है? मोटी-मोटी गणना करने के लिये केलकूलेटर की भी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। ग्लोबल वार्मिंग को हम ऋतुओं में परिवर्तन का कारण मानते हैं। अच्छा है हमारा प्राचीन धार्मिक साहित्य विज्ञानदाताओं ने नहीं पढ़ा है, अन्यथा अचानक मौसम परिवर्तन की घटनाओं से उन्हें प्रेरित होकर ग्लोबल वार्मिंग की तिथि को पीछे खिसकाना पड़ता। अगर ऐसा होता तो संभव है इस क्षेत्र में इतने प्रोजेक्ट वैज्ञानिकों को नहीं मिलते।

विज्ञान और प्रकृति को अगर ‘क्लीनचिट’ दे दें तो फिर प्रश्न उठता है हमारी वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था एक ‘सुविधा’ में एडजस्ट हो चुके समाज की। विकास की मांग की मशाल को शाश्वत बुलन्द रखने की मनोवृत्ति ने पहाड़ पर हर उपलब्ध इंच जमीन पर निमार्ण करवाया है। जमीन किसी-न-किसी तरह अनुकूल बनाई गई। मांग को ध्यान में रखते हुए हर तरह की सुविधा सम्पन्न स्थिति निर्मित करी गई। आभासी अनुकूल का प्रतिकूलनात्मक विश्लेषण करने की आवश्यकता न सरकार ने समझी और न ही समाज ने। पहाड़ी ढाल पर स्थिर से दिखने वाले मलवे पर निमार्ण परिणाम तो भयावह होने ही थे, आज नहीं तो कल। परिणाम की चिन्ता करने लगेंगे तो कुछ कर ही नहीं पाएंगे ऐसी मनोवृत्ति ‘बोल्ड’ तो बना देती है पर अपनी फसल अपने को ही काटनी पड़ती है। मूक दर्शक शासन और प्रशासन तथा हम और हमारी प्रबल भावना एक अच्छा ‘सरूर’ उत्पन्न करता है। सरूर कब जख्म में परिवर्तित हो जाएगा इसको जानना तो दूर, सोचने की भी आवश्यकता हम नहीं समझते हैं। ज्यादा सोचने से तो अच्छा विद्योत्तमा से पहले का कालीदास बन कर रहना है। इसी में सभी की भलाई है।

प्राकृतिक आपदाओं को रोका जाना संभव नहीं है, यह तथ्य हमें भारी मन से स्वीकार करना पड़ेगा। कुछ आपदाएं अचानक होती हैं, यथा भूकम्प और कुछ आने के पहले आगाह कर देती हैं जैसे उड़ीसा में कुछ समय पूर्व आये तूफान के वक्त सारा क्षेत्र खाली कर दिया गया था। अगर कहीं प्रयत्न करे जाएं तो आपदा से उत्पन्न होने वाले नुकसान को बहुत कुछ कम करा जा सकता है बशर्ते कि हर जगह का आकलन सक्षमता से हो तथा आकलन के पश्चात समुचित कार्यवाही करी जाए। ऐसा ही कुछ केदारनाथ में होता अगर कठिन और दुर्गम क्षेत्रों का व्यापक सर्वेक्षण सही होता। सन 2009 में इटली के ल-अकीला क्षेत्र में एक भूकम्प आया था जिसमें 100 से अधिक व्यक्ति भूवैज्ञानिक तंत्र की उदासीनता एवं अन्वेषण की लापरवाही के कारण मारे गए थे। जागरूक समाज ने लापरवाही के लिये दोषी अधिकारियों पर मुकदमा चला कर उन्हें जेल में बैठाने के लिये मजबूर कर दिया।

सम्पर्क


अजय कुमार बियानी
भूगर्भविज्ञान विभाग, डीबीएस कालेज, देहरादून


Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading