आपदाओं से निपटने की आधी-अधूरी तैयारियां

4 Aug 2014
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पिछले साल उत्तराखंड की केदार घाटी में आई बाढ़, फैलिन और तूफान ने देश में आपदा प्रबंधन की हमारी तैयारियों की पोल पट्टी खोलकर रख दी थी। केदारघाटी की घटना को लगभग एक साल हो चुका है और आधी-अधूरी तैयारियों के बीच उत्तराखंड सरकार प्रदेश में चार धाम यात्रा की तैयारियों में जुटी हुई है। वहीं फैलिन और पायलिन की तबाही का सबक भी हमें याद नहीं है। फैलिन तूफान के समय पूर्व चेतावनी प्रणाली के बेहतर उपयोग से जान-माल की काफी हद तक बचाव हो सका, लेकिन यह कहना कि हम आपदाओं से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार हैं या फिर आपदाओं से निपटने का पुख्ता प्रबंधन देश में मौजूद है तो यह सच्चाई नहीं है। राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर आपदा से निपटने का आधारभूत ढांचा ही पूरी तरह खड़ा नहीं हो पाया है। प्रकृति से बढ़ती छेड़-छाड़, जनसंख्या का दबाव, प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट, ओजोन परत का क्षरण, वैश्विक तापमान का बढ़ता पारा, औद्योगिक क्रियाकलाप, मौसम चक्र में तेजी से आता परिवर्तन, कचरे के बढ़ते ढेर और प्रदूषण तमाम ऐसे कारण है जो आपदाओं को निमंत्रण दे रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि हर साल बाढ़ से करोड़ों के जान-माल के नुकसान के बाद भी हमारी तैयारियां आधी-अधूरी ही दिखाई देती हैं। हालात आग लगने पर कुआं खोदने वाले हैं। अगले दो-तीन महीने में देश में मानसून का मौसम अपने रंग दिखाने लगेगा, लेकिन इन सबसे बेपरवाह सरकारी तंत्र आपदा आने पर उससे निपटने के उपायों पर चर्चा और मीटिंग करेगा। आपदा एक असामान्य घटना है जो थोड़े ही समय के लिए आती है और अपने विनाश के चिह्न लंबे समय के लिए छोड़ जाती है।

जिस देश में हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें लील जाती हो, पिछले 270 वर्षो में जिस भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस मुल्क की 59 फीसदी जमीन कभी भी थरथरा सकती हो और पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों, वहां आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है। सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है। भारत का आपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है।

केदारघाटी में मलबा हटने के साथ तबाही का जो मंजर सामने आ रहा है, उससे प्राकृतिक विपदाओं से निपटने की हमारी तैयारी की असलियत भी उजागर हो रही है। 2004 में दक्षिण भारत में आए सुनामी और इससे हुई भयानक तबाही के बाद अचानक आने वाली प्राकृतिक आपदा से निबटने के लिए पूरे देश में एक मजबूत सिस्टम बनाने की जरूरत महसूस हुई। 2005 में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का गठन किया गया। इसकी अहम जिम्मेदारी थी- सभी राज्यों में मजबूत आपदा प्रबंधन केंद्र विकसित करना, आपदा संभावित क्षेत्रों की पहचान करके वहां एहतियाती कदम उठाना और आपदा की स्थिति में प्रभावित लोगों तक बिना वक्त गंवाए प्रभावी राहत पहुंचाना। नौ रिटायर सीनियर ऑफिसर इसके सदस्य बनाए गए।

आपदा प्रबंधन और इससे जुड़े सिस्टम को लेकर सरकार कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कई दिनों से खाली पड़ी डायरेक्टर जनरल पोस्ट पर नियुक्ति उत्तराखंड त्रासदी के बाद हुई। अन्य विकसित देशों ने हर तबाही से कुछ सीख ली और आगे खुद को इससे निबटने के काबिल बनाया। अमेरिका में तूफान की आशंका वाले इलाके से लोगों को किस तरह सुरक्षित निकाला जाए, इसके लिए हर साल बड़े पैमाने पर ट्रेनिंग दी जाती है। इसके लिए खास कमांडो तैयार किए जाते हैं। वहां इसका सकारात्मक प्रभाव भी दिखा है..मौजूदा सिस्टम में आपदा प्रबंधन से लगभग 1500 लोग जुड़े हैं। सीएजी रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन साल में सभी राज्यों में एनडीएमए की अगुवाई में एक-एक आपदा प्रबंधन केंद्र बनाने थे, इसके लिए अलग से लगभग 35 हजार करोड़ रुपए भी दिए गए, लेकिन सिर्फ छह राज्यों को छोड़कर कहीं ऐसा नहीं हुआ। उत्तराखंड तक में इस पर काम नहीं हुआ। आपदा से निबटने की तैयारी का जायजा लेने के लिए 2010 के बाद इनकी एक कोऑर्डिनेशन मीटिंग तक नहीं हुई। आपदा के वक्त तमाम एजेंसियों के बीच किस तरह तालमेल होगा, इसकी कोई योजना नहीं। उत्तराखंड हादसे के वक्त गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने राहत कार्य के दौरान संयोजन की कमी को तो स्वीकारा लेकिन ऐसा क्यों हुआ, इस बारे में कुछ बोलने से बचते रहे।

भूस्खलन और भारी वर्षा जैसी आपदा का पता लगाने के लिए सेटेलाइट का उपयोग करने और इसके सटीक पूर्वानुमान के लिए योजना बनाने को कहा गया, लेकिन तीन साल तक उस पर रिसर्च ही होता रहा। उत्तराखंड में भी भूस्खलन वाले इलाके की पहचान कर वहां खतरनाक हालत से निबटने के उपाय सुझाने का काम भी इन्हें दिया गया था, लेकिन इसकी शुरुआत ही नहीं हो सकी। मौसम संबंधी जानकारियां समय पर देने के लिए सेटेलाइट की मदद से आपदा प्रबंधन को इसरो और नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर से जोड़ने की योजना बनाई गई, लेकिन अब तक इनमें आपसी तालमेल नहीं बन पाया है। अधिकारियों ने इस काम को पार्ट टाइम जॉब की तरह लिया। रही-सही कसर आपदा प्रबंधन की ओर से भेजे कुछ प्रस्तावों को सरकार द्वारा डंप किए जाने से पूरी हो गई। 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजना में भी उत्तराखंड के खतरनाक गांवों की पहचान कर वहां एहतियाती कदम उठाने की योजना बनी, लेकिन हकीकत में कुछ अमल नहीं हुआ। ऐसा तब हो रहा है जब हर साल पूरी दुनिया में बाढ़ से मरने वाले लोगों में 20 फीसदी भारत के होते हैं।

जब से आपदा प्रबंधन का गठन हुआ है, तब से लेकर उत्तराखंड की ताजी विपदा तक कोई पांच हजार मौतें प्राकृतिक आपदा से हो चुकी हैं, लेकिन इससे निबटने के लिए बना यह सिस्टम तैयारी और योजना के अभाव में हर बार इसके असर को कम करने में विफल रहा। आपदा प्रबंधन और इससे जुड़े सिस्टम को लेकर सरकाैआपदा प्रबंधन और इससे जुड़े सिस्टम को लेकर सरकार कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कई दिनों से खाली पड़ी डायरेक्टर जनरल पोस्ट पर नियुक्ति उत्तराखंड त्रासदी के बाद हुई। अन्य विकसित देशों ने हर तबाही से कुछ सीख ली और आगे खुद को इससे निबटने के काबिल बनाया। अमेरिका में तूफान की आशंका वाले इलाके से लोगों को किस तरह सुरक्षित निकाला जाए, इसके लिए हर साल बड़े पैमाने पर ट्रेनिंग दी जाती है। इसके लिए खास कमांडो तैयार किए जाते हैं। वहां इसका सकारात्मक प्रभाव भी दिखा है। तूफान अब भी आते हैं, लेकिन जान का नुकसान बहुत कम होने लगा है। तूफान आने से पहले लोग सुरक्षित निकाल लिए जाते हैं, हालांकि दूसरे फैक्टर भी इनकी मदद करते हैं।

मौसम की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के सिस्टम के साथ सरकार का सही कोऑर्डिनेशन लोगों की हिफाजत करने और उन्हें वक्त पर संदेश देने में मदद करता है। हालत यह है कि हम अपने देश में बैठे अमेरिका में आने वाले तूफान की तीव्रता की जानकारी पा लेते हैं, लेकिन देश के अंदर चंद किलोमीटर दूर मौसम के बदलते तेवर और इससे जुड़ी प्राकृतिक हलचलों से अनजान रहते हैं। उत्तराखंड की ही मिसाल लें। मौसम विभाग ने भारी वर्षा के बीच लोगों को प्रभावित इलाकों में न जाने की सलाह दी लेकिन सरकार ने इस पर कान तक नहीं दिया। बाद में कहा गया कि ऐसी भविष्यवाणी तो रस्म की तरह हर बार ही आती है, इस बार इतनी तबाही का अंदाजा नहीं था।

अब तक का इतिहास बताता है कि आपदाओं से हमने कुछ नहीं सीखा है। जो भी इतिहास को भूलता है, वह उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होता है। सरकार के लिए त्रासदी तब होती है, जब यह आ जाती है। हमने न भूकंप से कुछ सीखा, न सुनामी से और न इस बार की बाढ़ से। जब तक हमारा यह रवैया नहीं सुधरता तब तक हमें कुदरती ताकतों से ही करिश्में की उम्मीद रहेगी। आपदा प्रबंधन सीखना अति आवश्यक है। इसका बकायदा अनिवार्य पाठ्यक्रम होना चाहिए और प्रत्येक नागरिक के लिए इसका प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए।

ईमेल - avjournalist@gmail.com

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