अपना घाट पाटकर पानी की तलाश

14 Jul 2009
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हमारे बड़े शहरों की बसावट और उसके नागरिकों का चरित्र भी बड़ा अजीब है. जो जितना बड़ा महानगर वहां उतने ही गैर जिम्मेदार नागरिकों का जमावड़ा. दिल्ली को ही लीजिए. दिल्ली की कुल आबादी 1.75 करोड़ के आसपास है. इसे रोजाना 90 करोड़ गैलन पानी की जरूरत है. लेकिन यहां के नागरिक मानते हैं कि उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी यही है कि वे महानगर में रहते हैं. बाकी का सारा काम सरकार करे. इसका ही नतीजा है कि असाढ़ के मौसम में भी राजधानी दिल्ली में पानी के टैंकरों के पास भारी भीड़ देखी जा सकती है। वजह है आबादी के मुकाबले कम पानी, जिसे पूरा करने के लिए दिल्ली को दूसरे राज्यों की तरफ देखना पड़ता है। पानी की इस कमी को देखते हुए महानगर और उसके नागरिकों की चिंताओं को समर्पित संस्था `नागरिक परिषद´ ने पिछले दिनों आर्य अनाथालय के बाराखंभा रोड परिसर में `क्लाइमेट चेंज एंड वाटर क्राइसिस इन डेलही´ विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की।

संगोष्ठी में आये पर्यावरणविदों का कहना था कि दिल्ली सरकार अपनी जनता को पानी पिलाने के लिए चाहे लाख प्रयास करे, लेकिन जब तक वह अपने राज्य में पड़ने वाली यमुना नदी और तालाबों की रक्षा नहीं करेगी तब तक पानी की समस्या से निजात नहीं मिल सकती। सरकार लाखों रुपए खर्च कर प्लांट तो लगा सकती है लेकिन उसमें पानी नहीं ला सकती। परिचर्चा के आरंभ में संयोजक बाबूलाल शर्मा ने विषय की स्थापना करते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक संकट है जबकि दिल्ली का जल संकट एक स्थानीय समस्या है। लेकिन इसका आपसी संबंध बहुत ही गहरा है। प्राकृतिक संसाधनों पर जलवायु समेत हमारी विकास की गतिविधियों से भी खतरा बढ़ रहा है। गोष्ठी में तरूण भारत संघ से जुड़े राजेंद्र सिंह ने कहा 'दिल्ली की सीमा में बहने वाली यमुना नदी का अस्तित्व अब खत्म हो चुका है। यह नदी एक नाले में तब्दील हो चुकी है। यहां के लोग भी अब यमुना को एक नदी के रूप में नहीं, बल्कि एक नाले के रूप में देखते हैं। दूसरी तरफ यमुना को बचाने के नाम पर सरकार करोड़ो रुपए खर्च कर चुकी है। लेकिन सच्चाई यमुना को देखने से पता चलती है। नदी के इस बदले रूप का खामियाजा सबसे अधिक यहां की आबादी को भुगतना होगा।'

भारत के बांध विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर ने कहा कि राष्ट्रमंडल खेलों को देखते हुए दिल्ली में पानी की आपूर्ति करने के लिए जल बोर्ड के इंजीनियर रेणुका डैम बनाना चाहते हैं। लेकिन वे डैम बनाने की बात करते हुए गंगा, नर्मदा आदि नदियों की दुर्दशा को भूल जाते हैं। खेद की बात है कि हमारे नीति-निर्माता जल नियोजन संबंधी नीतियां केवल सतही पानी को ध्यान में रखकर बनाते और लागू करते हैं। भूमिगत विशाल जल स्रोतों की उपेक्षा कर दी जाती है। हमारे योजनाकार और इंजीनियर ब्रिटिश राज की दो सौ साल पुरानी द्विआयामी जल नीतियों का आंख मूंदकर अनुकरण कर रहे हैं। ऐसा करते हुए वे इस बात पर ध्यान नहीं देते कि ब्रिटिश राज में भी इस बात की सावधानी बरती जाती थी कि नदियों में पर्याप्त जल रहे। उन्होंने कहा कि अभी जल संकट से जूझ रही दिल्ली की जरूरत का 60 फीसदी पानी बाहर से आता है। गंगा, टिहरी बांध और सतलुज नदियों से दिल्ली को पानी मिलता है, लेकिन पूरा नहीं पड़ता। अब रेणुका डैम तैयार किया जाएगा और वहां से पानी आएगा। यदि फिर भी पूरा नहीं पड़ा तो हम कहीं और डैम बना लेंगे? डैम बनाकर पानी खींच लाना यह दिल्ली की पानी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। टिहरी और रेणुका जैसे बांध बनाने में समय और धन तो लगेगा ही, साथ-साथ एक बड़ी आबादी को विस्थापन की समस्या से भी जूझना पड़ेगा। वन संपदा का विनाश और पर्यावरण का क्षरण भी होगा। बांधों के निर्माण में जितना व्यय होगा, उससे बहुत कम खर्च में दिल्ली की पानी की समस्या खत्म हो सकती है। यदि हम विचारपूर्वक दिल्ली के जल-संकट के कारणों को समझें और राज्य के अपने जल-स्रोतों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करें तो इस जल संकट का स्थायी समाधान हो सकता है। सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी भूरेलाल का कहना था कि भारत की तरह विश्व के अन्य देशों में भी पानी का संकट विद्यमान है।

आज के समय में ग्लोबल वार्मिंग एक वैश्विक समस्या है। इसकी एक वजह है पेड़ों की अंधाधुंध कटाई। दूसरी तरफ पिछले 35 वर्षों में नदियों के जल स्तर में कमी आई है। वहीं वर्षा के 15 प्रतिशत पानी का ही हम उपयोग कर पाते हैं। बाकी पानी बर्बाद हो जाता है। उन्होंने कहा कि दिल्ली में 50 प्रतिशत इलाकों में ही सीवेज फिटमेंट की व्यवस्था है। दिल्ली में आधे इलाके ऐसे हैं जहां सीवेज की व्यवस्था नहीं है। सीवेज फिटमेंट के तहत जो जल की सफाई की जाती है वह भी ठीक ढंग से नहीं होती और सीवेज का जल सीधे यमुना में चला जाता है। यही कारण है कि वजीराबाद से ओखला तक यमुना नदी एक गंदे नाले में परिणत हो गई है। इसमें मछली नहीं है। गैस के बुलबुले निकलते हैं। गंदगी बराबर बढ़ रही है। ऐसे में यमुना से स्वच्छ जल की उम्मीद कैसे की जा सकती है। परिचर्चा में हिस्सा ले रहे डीडीए के एडीशनल कमिश्नर बीएन चक्रवर्ती ने कहा, 'अगर हमने पानी का ठीक ढंग से उपयोग नहीं किया तो अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा।' `यमुना जिए´ आंदोलन से जुड़े मनोज मिश्र ने कहा कि नदी का धर्म है बहना। वजीराबाद में बैराज बनाकर हमने यमुना के बहाव को रोक दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो वजीराबाद से ओखला तक 22 किलोमीटर में यमुना मर गई है। मिश्र ने कहा, 'दिल्ली के विकास की अंधी दौड़ ने यमुना नदी को लील गई। मसलन यमुना किनारे सचिवालय और अक्षरधाम मंदिर बन गए हैं। अब खेलगांव बन रहा है। इसलिए दिल्ली वासियों को सिर्फ सरकार के भरोसे न रहकर जागरूक होना चाहिए। यमुना में गिरने वाले गंदे नालों को उसमें गिरने से रोका जाए। यमुना की सफाई की जाए। इसके किनारे वृक्षारोपण किया जाए। यमुना खादर में कोई निर्माण कार्य न होने दिया जाए। सभी बैराज हटाकर यमुना की धारा को गतिमयता प्रदान की जाए।´´

संगोष्ठी में वरिष्ठ वैज्ञानिक प्रो. विक्रम सोनी ने एक स्लाइड प्रस्तुति के माध्यम से बताया कि ``यमुना नदी का जो क्षेत्र खादर कहलाता है वहां की मोटी रेत वाली मिट्टी की जल संग्रहण क्षमता गजब की है। इसी तरह अरावली क्षेत्र में स्वच्छ जल का अपार भंडार था। दिल्ली में सैकड़ों गांव हैं। उन सभी गांवों में एक या अधिक तालाब भी थे। इसके अलावा कुंए और बावरियां भी थीं। लेकिन आज जागरूकता के अभाव में इनमें से अधिकांश का नामोनिशान नहीं है। बचे-खुचे तालाबों पर भी भू-माफिया ने नजरें गड़ा रखी हैं और उनपर कब्जा करने की जुगत में हैं। दिल्ली में अमूमन 60 सेंटीमीटर वर्षा होती है, जिसमें से 42 सेंटीमीटर मानसून के दौरान होती है। वर्षा के जल का रख-रखाव अर्थात जल संचयन न होने से यह पानी बर्बाद हो जाता है। दिल्ली में यमुना की अनेक सहायक नदियां थीं, जिनका आज कोई नाम भी नहीं जानता। ये सभी नदियां विलुप्त हो गई हैं या नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं। इन्हें पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।´´ सामाजिक कार्यकर्ता अनुपम मिश्र ने कहा, 'दिल्ली एक नगर तो है, लेकिन यहां के लोग इसके नागरिक नहीं हैं।' उन्होंने कहा कि यदि यहां पर बसने वाले दिल्ली के ही नागरिक होते तो शायद यमुना का यह हाल नहीं होता। इसलिए यह जरूरी है कि हम यहां अपने में नागरपन और समाज बोध को पैदा करें। अपने नागरिक होने की जिम्मेदारी को समझें। विशेषज्ञ वक्ताओं के वक्तव्यों से समस्या के विविध आयाम परिलक्षित हुए। परिचर्चा से यह स्पष्ट हुआ कि जलवायु में परिवर्तन तथा शुद्ध पेयजल का अभाव आज एक वैश्विक समस्या है। औद्योगिक क्रांति से पूर्व इन संकटों का अस्तित्व प्राय: नगण्य था, किंतु औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप तेजी से औद्योगिककरण हुआ, जो अब भी जारी है। इससे विकास तो हुआ, लेकिन प्रदूषण भी फैला। वायुमंडल में हानिकारक गैसों को उत्सर्जन हुआ। ओजोन परत का भी निरंतर क्षय हो रहा है। इससे पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग के चपेट में आ गया है। औद्योगिक क्रांति की वजह से प्राकृतिक संपदा का आवश्यकता से अधिक दोहन हुआ और वनों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण का पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ा। इस प्रकार प्राकृतिक संपदा के दोहन और जंगल के विनाश के कारण हमने पर्यावरण और पारिस्थितिकी को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। ग्लोबल वार्मिंग के रूप में उसी की सजा हम भुगत रहे हैं। यदि अब भी हम नहीं चेते तो सर्वनाश निश्चित है।

नागरिक परिषद दिल्ली की ओर से आयोजित इस गोष्ठी में यह बात साफ हो गई कि दिल्ली में पानी का सबसे बड़ा स्रोत वर्षा ही है। लेकिन जल प्रबंधन के समय कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। दिल्ली में ऐसे 476 तलाब हैं जहां वर्षा के जल को जमा किया जा सकता है। हमारे देश में भूजल महत्वपूर्ण संपदा है। इसका संक्षरण जरूरी है। इससे भूजल का स्तर ऊपर लाया जा सकता है, लेकिन यह तभी होगा जब हमारी नदियों में पर्याप्त जल प्रवाह रहे। हम अपने नदियों के स्रोतों की रक्षा करें तथा प्रक‘ति प्रदत्त इन उपहारों को श्रध्दा से देखें और इन्हें साफ रखें। इसलिए अनुपम मिश्र ने कहा-'साल में एक बार नहीं, साल भर यमुना के बारे में बात करिए।' शायद इसके अलावा दिल्ली के सामने और कोई रास्ता भी नहीं है.
 
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