अपना न रहा पानी

22 Feb 2015
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संसाधनों के उपयोग और विकास सम्बन्धी गतिविधियों ने मौजूदा विकास मॉडल की उपयोगिता पर गम्भीर चिन्ताएँ पैदा की हैं। जब बिजली क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया था, तब कोई बहस या चर्चा नहीं हुई थी। देश के सामने इसे एक निर्विवाद तथ्य की तरह परोसा गया था। बड़े पैमाने पर बिजली गुल होने का डर दिखाकर निजीकरण को आगे बढ़ाया गया। लेकिन, अब पानी के क्षेत्र में ऐसे ही निजीकरण की राह पकड़ी जा रही है तो चिन्ताएँ बढ़ गई हैं और किसी भी निर्णय के पहले इस मुद्दे पर व्यापक आम बहस की माँग बढ़ती जा रही है।

मध्य प्रदेश के खण्डवा और शिवपुरी जिले में पानी के निजीकरण को लेकर लम्बे समय से चल रहा आन्दोलन पूरी तरह थमा भी नहीं है कि होशंगाबाद, पिपरिया और इटारसी जिले के नागरिकों पर पानी के निजीकरण का खतरा मँडराने लगा है।

मन्थन अध्ययन केन्द्र से जुड़े जल क्षेत्र के शोधार्थी रहमत बताते हैं कि नगरीय जल प्रदाय परिदृश्य उतना बुरा नहीं है, जितना पानी के निजीकरण की पैरवी करने वाले बता रहे हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि भारत में पानी काफी पहले से निजी वस्तु के रूप में रहा है।

व्यावहारिक तौर पर भूमिगत पानी निजी सम्पत्ति ही है। जमीन जिसकी होती है, वही उसके नीचे के पानी का मालिक होता है। भूस्वामी को इस पानी को पम्प के जरिए लेने का असीमित अधिकार होता है, जबकि हो सकता है कि यह भूमिगत पानी उस व्यक्ति की जमीन की सीमा से बाहर तक फैला हो।

लेकिन आज जिस तरह का निजीकरण हो रहा है, वह विश्व बैंक-आइएमएफ द्वारा थोपे गए ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम के तहत है। वर्ष 1991 से शुरू हुई निजीकरण की प्रक्रिया एक के बाद दूसरे क्षेत्रों से होते हुए अब जल क्षेत्र तक पहुँच चुकी है। इसके लिए तर्क यह दिया जा रहा है कि आक्रामक प्रतिस्पर्धा से कीमतें खतरनाक स्तर तक नीचे गिर सकती हैं। लेकिन इससे विकासशील देशों के गरीब बड़े घाटे में रहेंगे। वे व्यापारिक जल सेवाओं की पहुँच के दायरे से बाहर फेंक दिए जाएँगे। दरअसल, ज्यादा निवेश हासिल करने के लिए जल व्यापार को और ज्यादा आकर्षक बनाने की तैयारी का खेल चल रहा है।

इटारसी जिले में पानी के निजीकरण की योजना पर चर्चा करते हुए रहमत ने कहा कि इसका डीपीआर ही गड़बड़ियों से भरा है। वर्तमान जल प्रदाय तन्त्र को बहुत पुराना और अप्रभावी बताते हुए सम्पूर्ण नई योजना के निर्माण की वकालत की गई है। इस योजना के कंसलटेंट ने 25 नवम्बर 2005 को डीपीआर नगरपालिका को प्रस्तुत किया था, जिसका नगरपालिका के अधिकारियों द्वारा करीब 2 माह तक अध्ययन करने के बाद 27 जनवरी, 2006 में आयोजित नगरपालिका के व्यापक सम्मेलन में स्वीकृति दी।

डीपीआर में इटारसी की अगले 30 वर्षों की जरूरत के हिसाब से योजना का खाका तैयार किया गया है, लेकिन ये 30 वर्ष कब होंगे इस बारे में अलग-अलग पृष्ठों पर अलग-अलग जानकारी है। डीपीआर के मुख्य पृष्ठ पर योजना रूपांकन वर्ष 2037-38 है, जबकि पृष्ठ संख्या 1 पर वर्ष 2040 अंकित है। इसी तरह पृष्ठ संख्या 2 और 3 पर क्रमशः 2038 एवं 2035 है। पृष्ठ संख्या 7 में और 9 पर फिर योजना का रूपांकन वर्ष 2040 दिया गया है।

लागत राशि पर गौर करें, तो मुख्य पृष्ठ पर 1529.29 लाख का उल्लेख है, जबकि पृष्ठ- 7 पर यही लागत 1607.39 लाख बताई गई है। इसी तरह पृष्ठ संख्या 11 पर योजना के पहले चरण की पम्पिंग क्षमता 16 एमएलडी है, तो पृष्ठ -5 पर 20.50 एमएलडी बताई गई है। दूसरी चरण की पम्पिंग क्षमता कहीं 27 एमएलडी तो कहीं 35 एमएलडी दर्शाई गई। रूपांकन वर्ष की जनसंख्या कहीं 2 लाख 20 हजार तो कहीं 2 लाख 25 हजार दी गई है।

इसी तरह डीपीआर के शुरुआती पृष्ठों में योजना के तहत् सम्पूर्ण जल प्रदाय आवर्धन तवा नदी (मेहरघाट) से करने की बात कही गई है। पृष्ठ -3 पर वर्तमान जल प्रदाय तन्त्र को बहुत ही पुराना और अप्रभावी बताते हुए सम्पूर्ण नई योजना के निर्माण की वकालत की गई है। दो चरणोें में किए जाने वाला सम्पूर्ण जल आवर्धन तवा नदी से ही करने का उल्लेख है। लेकिन पृष्ठ-7 में दूसरे पैरे तक पहुँचने तक योजना की क्षमता सहित पूरी योजना ही बदल जाती है।

आज जिस तरह का निजीकरण हो रहा है, वह विश्व बैंक-आइएमएफ द्वारा थोपे गए ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम के तहत है। वर्ष 1991 से शुरू हुई निजीकरण की प्रक्रिया एक के बाद दूसरे क्षेत्रों से होते हुए अब जल क्षेत्र तक पहुँच चुकी है। इसके लिए तर्क यह दिया जा रहा है कि आक्रामक प्रतिस्पर्धा से कीमतें खतरनाक स्तर तक नीचे गिर सकती हैं। लेकिन इससे विकासशील देशों के गरीब बड़े घाटे में रहेंगे। वे व्यापारिक जल सेवाओं की पहुँच के दायरे से बाहर फेंक दिए जाएँगे।

इस योजना में 27 एमएलडी जल आवर्धन तवा नदी से तथा शेष 8 एमएलडी आवर्धन उसी वर्तमान तन्त्र से पूरे योजनाकाल यानी 30 वर्षों तक जारी रखने का उल्लेख किया गया है, जिसे कंसलटेंट ने मृतप्रायः बताते हुए पूरी तरह खारिज कर दिया था। पृष्ठ संख्या 11 पर योजना में केवल 5 किमी नई वितरण लाइन का प्रावधान किया गया है तथा शेष वर्तमान वितरण लाइनों के ही उपयोग का उल्लेख है जबकि पृष्ठ संख्या-3 पर वर्तमान लाइनों को बहुत पुरानी बताते हुए बदलने की बात कही गई है।

इस डीपीआर में केन्द्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण इंजीनियरिंग संस्था के दिशा-निर्देशों की भी अनदेखी की गई है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि योजना कब आकार लेगी, इस बारे में सभी अनभिज्ञ हैं।

हालांकि मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमन्त्री पेयजल योजना के तहत् अगले 30 वर्षों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए योजना निर्धारित समय-सीमा के भीतर पूरा करने का निर्देश दिया है। चौहान ने कहा है कि स्वच्छ पेयजल जीवन की बुनियादी आवश्यकता है, इसलिए इसकी उपलब्धता शासन की सर्वोच्च प्राथमिकता है।

हद तो तब हो गई जब किसी ने यह तक देखना जरूरी नहीं समझा कि डीपीआर पर तैयार करने वाली फर्म के किसी प्रतिनिधि के हस्ताक्षर हैं या नहीं? योजना के लिए सलाहकार की नियुक्ति और निविदा प्रक्रिया में भी गड़बड़ी है। निविदा में दोशियन लिमिटेड (अहमदाबाद) एवं हाईड्रोटेक इंटरप्राइजेज (नई दिल्ली) की निविदाएँ प्राप्त हुई थीं, जिसमें 26.12 करोड़ की न्यूनतम निविदा दोशियन लिमिटेड ने प्रस्तुत की थी। लिहाजा, उसे यह जिम्मेदारी दी गई।

इस बीच तापी प्रि-स्ट्रेस्ड और किर्लोस्कर ब्रदर्स लिमिटेड ने दोशियन के खिलाफ आपत्तियाँ दर्ज करवाई, लेकिन दोशियन का टेण्डर निरस्त नहीं किया गया। गौरतलब है, कि इसी दोशियन कम्पनी को शिवपुरी का ठेका भी मिला है, जो आज विवाद में फँसा है और काम पूरा नहीं हुआ है। प्रदेश के नागरिकों को यह सब जानने का हक है कि संविधान का उल्लंघन कर पानी को कॉमोडिटी बनाने के सुनियोजित षड्यन्त्र के पीछे आखिर कौन जिम्मेदार है और आम जनता को किस हद तक इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है।

होशंगाबाद के योगेश दीवान बताते हैं कि कई प्रामाणिक संस्थाओं के अध्ययन में यह बताया गया है कि नर्मदा में जल स्तर लगातार कम हो रहा है। वाशिंगटन डीसी ने दुनिया की 6 सबसे संकटग्रस्त नदियों में नर्मदा का उल्लेख किया है। ऐसे में नर्मदा का पानी घर-घर तक पहुँचाने का सरकार का नारा कहाँ तक सही है? इस पर भी गहन अध्ययन होना चाहिए। नर्मदा अपनी सहायक नदियों पर निर्भर है और ये नदियाँ लगातार सुखती जा रही हैं।

दरअसल, निजीकरण की शर्त ही यह है कि निजी कम्पनी के कार्य सम्पन्न होना तथा भविष्य में उसका संचालन और वितरण का खर्च नागरिकों से वसूल करना। प्रो. कश्मीर उप्पल नागरिकों से संविधान में प्रदत्त पानी के अधिकार पर कायम रहने की अपील करते हैं। इस बीच बाम्बे हाइकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित जीने के अधिकार में पानी का अधिकार अन्तर्निहित है। एक जनहित याचिका पर यह फैसला जस्टिस अभय एस ओका एवं जस्टिस एएस गडकरी की युगलपीठ ने सुनाया।

याचिकाकर्ता सीताराम शेलार ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि पानी और जीवन के अधिकार के बीच स्वाभाविक सम्बन्ध पुनर्स्थापित करने वाले इस फैसले से इस बार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि पानी का अधिकार जीने के अधिकार की तरह ही बुनियादी अधिकार है।

पानी के सन्दर्भ में इस आदेश के दूरगामी असर न सिर्फ मुम्बई की बस्तियों के निवासियों पर होंगे बल्कि इससे देशभर करोड़ों गरीबों को भी लाभ मिलेगा। बाम्बे हाइकोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए इलाके के लोग कह रहे हैं कि पानी और समय हाथ से जाता है तो फिर वापस नहीं आता है। इसलिए पानी और समय दोनों को हमें बचाना है।

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