अर्णव का आमंत्रण

22 Feb 2011
0 mins read
समुद्र या सागर जैसा परिचित शब्द छोड़कर मैंने अर्णव शब्द केवल आमंत्रण के साथ अनुप्रास के लोभ से ही नहीं पसन्द किया। अर्णव शब्द के पीछे ऊंची-ऊंची लहरों का अखंड तांडव सूचित है। तूफान, अस्वस्थता, अशांति, वेग, प्रवाह और हर तरह के बंधन के प्रति अमर्ष आदि सारे भाव अर्णव शब्दों में आ जाते हैं। अर्णव शब्द का धात्वर्थ और उसका उच्चारण, दोनों इन भावों में मदद करते हैं। इसीलिए वेदों में कई बार अर्णव शब्द का उपयोग समुद्र के विशेषण के तौर पर किया गया है। खास तौर से वेद के विख्यात अघमर्षण सूत्र में जो अर्णव-समुद्र का जिक्र है, वह उसकी भव्यता को सूचित करता है।

ऐसे अर्णव का संदेश आज के हमारे संसार के सामने पेश करने की शक्ति मुझे प्राप्त हो, इसलिए वैदिक देवता सागर सम्राट वरुण की मैं वंदना करता हूं।

जहां रास्ता नहीं है वहां रास्ता बनाने वाला देव है वरुण। प्रभंजन के तांडव से जब रेगिस्तान में बालू की लहरे उछलती हैं, तब वहां भी यात्रियों को दिशा-दर्शन कराने वाला वरुण ही है। और अनंत आकाश में अपने पंखों की शक्ति आजमाने त्रिखंड के यात्री पक्षियों का व्योममार्ग दिखानेवाला भी वरूण ही है। और वेदकाल के भुज्यु से लेकर कल ही जिसकी मुछें उगी हैं ऐसे खलासी तक हरेक को समुद्र का रास्ता दिखाने वाला जैसे वरुण है, वैसे ही नये-नये अज्ञात क्षेत्रों में प्रवेश करके नये नये रास्ते बनाने वाले यमराज या अगस्ति को हिम्मत और प्रेरणा देनेवाला दीक्षा गुरु भी वरुण ही है।

वरुण जिस प्रकार यात्रियों का पथ-प्रदर्शक है, उसी प्रकार वह मनुष्य-जाति के लिए न्याय और व्यवस्था का देवता है। ‘ऋतम’ और ‘सत्यम्’ का पूर्ण साक्षात्कार उसे हुआ है; इसलिए वह हरेक आत्मा को सत्य के रास्ते पर जाने की प्रेरणा देता है। न्याय के अनुसार चलने में जो सौंदर्य है, समाधान है और जो अंतिम सफलता है, वह वरुण से सीख लीजिये। और यदि कोई लोभी, अदूरदृष्टि मनुष्य वरुण की इस न्यायनिष्ठा का अनादर करता है, तो वरुण उसको जलोदर से सताता है, जिससे मनुष्य यह समझ ले कि लोभ का फल कभी भी अच्छा नहीं होता।

अपना मूल्य घट न जाये इस ख्याल से जिस प्रकार परम-मंगल, कल्याणकारी, सदाशिव रुद्ररूप धारण करते हैं, उसी प्रकार रत्नाकर समुद्र भी डरपोक मनुष्य को अट्टहास्य करने वाली लहरों से दूर रखता है। कोमल वनस्पति और गृह-लंपट मनुष्य अपने किनारे पर आकर स्थिर न हो जायें, इसलिए ज्वार-भाटा चलाकर वह सब लोगों को समझाता है कि तुम लोगों को मुझसे अमुक अंतर पर ही रहना चाहिये।

समुद्र के किनारे खड़े रहकर जब लहरों को आते और जाते देखा, अमावस्या और पूर्णिमा के ज्वार को आते और जाते देखा, और बुद्धि कोई जवाब नहीं दे सकी तब दिल बोल उठा, ‘क्या इतना भी समझ में नहीं आता? तुम्हारे श्वासोच्छवास की वजह से जिस प्रकार तुम्हारी छाती फूलती है और बैठती है, उसी प्रकार विराट सागर के श्वासोच्छवास की यह धड़कन है; उसका यह आवेग है। जमीन पर रहने वाले मनुष्यों नें जो पाप किये और उत्पात मचाये हैं, उनको क्षमा करने की शक्ति प्राप्त हो इसीलिए महासागर को इतना हृदय का व्यायाम करना पड़ता है।’

जो लहरें दुर्बल लोगों को डराकर दूर रखती हैं, वही लहरें विक्रम के रसियों को स्नेहपूर्ण और फेनिल निमंत्रण देती हैं और कहती हैं: ‘चलिये! इस स्थिर जमीन पर क्यों खड़ें हैं? इस तरह खड़े रहेंगे तो आप पर जंग चढ़ने लगेगा। लीजिये, एक नाव हो जाइये उस पर सवार, फैला दीजिये उसके पाल और चलिए वहां जहां पवन का प्राण आपको ले जाय। हम सब हैं तो सागर के बच्चे, किन्तु हमारा शिक्षा गुरु है पवन। वह जैसे नचाये हम वैसे नाचते हैं। आप भी यही व्रत लीजिये, और चलिये हमारे साथ।’ जिस दिल में उमंग होती है, वह ऐसे निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता।

बचपन में सिंदबाद की कहानी आपने नहीं पढ़ी? सिंदबाद के पास विपुल धन था, जमीन-जागीर आदि सब कुछ था। अपने प्रेम से उसका जीवन भर देने वाले स्वजन भी उसके आसपास बहुत थे। फिर भी जब समुद्र की गर्जना वह सुनता था तब उससे घर में रहा नहीं जाता था। लहरों के झूले को छोड़कर पलंग पर सोने वाला पामर है। दिल ने कहाः ‘चलो!’ और सिंदबाद समुद्र की यात्रा के लिए चल पड़ा। उसमें काफी हैरान हुआ। उसे मीठे अनुभवों की अपेक्षा कड़वे अनुभव अधिक हुए। अतः सही-सलामत वापस लौटने पर उसने सौगंध खाई कि अब मैं समु्द्र यात्रा का नाम तक नहीं लूंगा।

किन्तु अंत में यह था तो मानवी संकल्प। इस संकल्प को सम्राट वरुण का आशीर्वाद थोड़े ही मिला था! कुछ दिन बीते। गृहस्थी जीवन उसे फीका मालूम होने लगा। रात को वह सोता था, किन्तु नींद नहीं आती थी। लहरें उसके साथ लगातार बातें किया करती थीं। उत्तर-रात्रि में जरा नींद का झोंका आ जाता तो स्वप्न में भी लहरें ही उछलतीं और अपनी अंगुलियां हिलाकर उसे पुकारती। बेचारा कहां तक जिद पकड़कर रहे? अनमना होकर जरा-सा घूमने जाता, तो उसके पैर उसे बगीचे का रास्ता छोड़कर समुद्र की सफेद और चमकीली बालू की ओर ही ले जाते। अंत में उसने अच्छे-अच्छे जहाज खरीदें, मजबूत दिलवाले खलासियों को नौकरी पर रखा, तरह-तरह का माल साथ में लिया और ‘जय दरिया पीर’ कहकर सब जहाज समुद्र में आगे बढ़ा दिये।

यह तो हुई काल्पनिक सिंदबाद की कहानी किन्तु हमारे यहां का सिंहपुत्र विजय तो ऐतिहासिक पुरुष था। पिता उसे कहीं जाने नहीं देता था। उसने बहुत आग्रह भरी विनती की, किन्तु सफल नहीं हुआ। अंत में ऊबकर उसने शरारत शुरू की प्रजात्रस्त हुई और राजा के पास जाकर कहने लगीः ‘राजन्’ या तो अपने लड़के को देशनिकाला दे दीजिये या हम आपका देश छोड़कर बाहर चले जाते हैं। पिता बड़े-बड़े जहाज लाया। उसमें अपने लड़के को और उसके शरारती साथियों को बिठा दिया और कहा, ‘अब जहां जा सकते हो, जाओ। फिर यहां अपना मुंह नहीं दिखाना।’ वे चले। उन्होंने सौराष्ट्र का किनारा छोड़ा, भृगुकच्छ छोड़ा, सोपारा छोड़ा, दाभोल छोड़ा; ठेठ मंगलापुरी तक गये। वहां पर भी वे रह नहीं सके। अतः हिम्मत के साथ आगे बढ़े और ताम्रद्वीप में जाकर बसे। वहां के राजा बने। विजय के पिता ने अपने लड़के को वापस आने के लिए मना किया था; किन्तु उसके पीछे कोई न जाये, ऐसा हुक्म नहीं निकाला था। अतः अनेक समुद्र-वीर विजय के रास्ते जाकर नयी-नयी विजय प्राप्त करने लगे। वे जावा और बालिद्वीप तक गये। वहां की समृद्धि, वहां की आबोहवा और प्राकृतिक सौंदर्य देखने के बाद वापस लौटने की इच्छा भला किसे होती? फिर तो घोघा का लड़का सारा पश्चिम किनारा पार करके लंका की कन्या से विवाह करे यह लगभग नियम-सा बन गया।

इधर बंगाल के नदी पुत्र नदी-मुखेन समुद्र में प्रवेश करने लगे। जिस बंदरगाह से निकलकर ताम्रद्वीप जाया जा सकता था, उस बंदरगाह का नाम ही उन लोगों ने ताम्रलिप्ति रख दिया। इस प्रकार ताम्रद्वीप-लंका में अंग-बंग के बंगाली, उड़ीसा के कलिंग और पश्चिम के गुजराती एकत्र हुए। मद्रास की ओर के द्रविड़ तो वहां कब के पहुंच चुके थे। इस प्रकार पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत अब अपने-अपने अर्णवों के आमंत्रण के कारण लंका में एक हुआ।

भगवान बुद्ध ने निर्वाण का रास्ता ढूंढ़ निकाला और अपने शिष्यों को आदेश दिया कि ‘इस आष्टांगिक धर्मतत्त्व का प्रचार दसों दिशाओं में करो।’ खुद उन्होंने उत्तर भारत में चालीस साल तक प्रचार-कार्य किया। अपना राज्य आसेतु-हिमाचल फैलाने के लिए निकले हुए सम्राट् अशोक को दिग्विजय छोड़कर धर्म-विजय करने की सूझी। धर्म-विजय का मतलब आज की तरह धर्म के नाम पर देश-देशांतर की प्रजा को लूटकर, गुलाम बनाकर, भ्रष्ट करना नहीं था, बल्कि लोगों को कल्याण का मार्ग दिखाकर अपना जीवन कृतार्थ करने का अष्टांगिक मार्ग दिखाना था। जो भगवान बुद्ध खुद गैंडे की तरह अकुतोभय होकर जंगल में घूमते थे, उनके साहसिक शिष्य अर्णव का आमंत्रण सुनकर देश-विदेश में जाने लगे। कुछ पुर्व की ओर गये, कुछ पश्चिम की ओर। आज भी पूर्व और पश्चिम समुद्र के किनारों पर इन भिक्षुओं के विहार पहाड़ों में खुदे हुए मिलते हैं। सोपारा, कान्हेरी, धारापुरी आदि स्थल बौद्ध मिशनरियों की विदेश-यात्रा के सूचक हैं। उड़ीसा की खंड-गिरि और उदयगिरि की गुफाएं भी इसी बात का सबूत दे रही हैं।

इन्हीं बौद्ध-धर्मी प्रचारकों से प्रेरणा पाकर प्राचीन काल के ईसाई भी अर्णव मार्ग से चले और उन्होंने अनेक देशों में भगवद्भक्त ब्रह्मचारी ईशु का संदेश फैलाया।

जो स्वार्थवश समुद्र-यात्रा करते हैं, उन्हें भी अर्णव सहायता देता है किन्तु वरुण कहता है, “स्वार्थी लोगों को मेरी मनाही है, निषेध है। किन्तु जो केवल शुद्ध धर्म-प्रचार के लिए निकलेंगे, उन्हें तो मेरे आशीर्वाद ही मिलेंगे। फिर वे महिन्द या संघमित्ता हों या विवेकानंद हों। सेंट फ्रांसिस जेवियर हों या उनके गुरु इग्नेशियस लोयला हों।”

अब अर्णव की मदद लेने वाले स्वार्थी लोगों के हाल देखें। मकरानी लोग बलूचिस्तान के दक्षिण में रहकर पश्चिम सागर के तट की यात्रा करते थे। इसलिए हिन्दुस्तान की तिजारत उन्हीं के हाथ में थी। आग्रह के साथ वे उसको अपने ही हाथों में रखना चाहते थे। अतः एक वरुणपुत्र को लगा कि हमें दूसरा दरियायी रास्ता ढूंढ निकालना चाहिये। वरुण ने उससे कहा कि अमुक महीने में अरबस्तान से तुम्हारा जहाज भर-समुद्र में छोड़ेगे तो सीधे कालिकट तक पहुंच जाओगे। एक-दो महीनों तक तुम हिन्दुस्तान में व्यापार करना और वापस लौटने के लिए तैयार रहना इतने में मैं अपने पवन को उलटा बहाकर जिस रास्ते तुम आये उसी रास्ते से तुम्हें वापस स्वदेश में पहुंचा दूंगा। यह किस्सा ई. स.पूर्व 50 साल का है।

प्राचीन काल में दूर-दूर पश्चिम में वाइकिंग नामक समुद्री डाकू रहते थे। वे वरुण के प्यारे थे। ग्रीनलैंड, आइसलैंड, ब्रिटेन और स्कैन्डिनेविया के बीच के ठंडे और शरारती समुद्र में वे यात्रा करते थे। आज के अंग्रेज लोग उन्हीं के वंशज है। समुद्र किनारे पर स्थित नार्वे, ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल देशों ने बारी-बारी से समुद्र की यात्रा की। इन सब लोगों को हिन्दुस्तान आना था। बीच में पूर्व की ओर मुसलमानों के राज्य थे। उन्हें पारकर या टालकर हिन्दुस्तान का रास्ता ढूंढना था। सबने वरुण की उपासना शुरू की और अर्णव के रास्ते से चले। कोई गये उत्तर ध्रुव की ओर, कोई गये अमरीका की ओर। चंद लोगों ने अफ्रीका की उलटी प्रदक्षिणा की और अंत में सब हिन्दुस्तान पहुंचे। समुद्र यानी लक्ष्मी का पिता। उसमें जो यात्रा करे वह लक्ष्मी का कृपापात्र अवश्य होगा। इन सब लोगों ने नये-नये देश जीत लिये, धन-दौलत जमा की। किन्तु वरुण देव का न्यायासन वे भूल गये। वरुणदेव न्याय का देवता है। उसके पास धीरज भी है, पुण्यप्रकोप भी है। जब उसने देखा कि मैंने इनको समुद्र का राज्य दिया, किन्तु इन लोगों ने राजा के उचित न्याय-धर्म का पालन नहीं किया, तब वरुणराजा ने अपना आशीर्वाद वापिस ले लिया और इन सब लोगों को जलोदर की सजा दी। अब ये देश हिन्दुस्तान और अफ्रीका से जो संपत्ति लाये थे, उसका उपयोग आपस में लड़ने के लिए करने लगे हैं और अपने प्राणों के साथ वह सारी संपत्ति जल के उदर में पहुंचा रहे हैं। समुद्र-यान हो या आकाश-यान हो, अंत में उसे समुद्र के जल के उदर में पहुंचना ही है। अब वरुण राजा क्रुद्ध हुए हैं। उन्हें अब विश्वास हो गया है कि सागर से सेवा लेने वालों में यदि सात्विकता न हो तो वे संसार में उत्पात मचाने वाले हो जाते हैं। अब तक उन्होंने विज्ञानशास्त्रियों और ज्योतिषशास्त्रियों को, विद्यार्थियों और लोकसेवकों को समुद्र-यात्रा की प्रेरणा दी थी। अब वे हिन्दुस्तान को नये ही किस्म की प्रेरणा देना चाहतें हैं: हिन्तुस्तान के सामने एक नया ‘मिशन’ रखना चाहते हैं। क्या उसे सुनने के लिए हम तैयार हैं।

हम पश्चिम समुद्र के किनारे पर रहते हैं। दिन-रात पश्चिम सागर का निमंत्रण सुनते हैं। अब तक हम बहरे थे। यह संदेश हमारे कानों पर जरूर पड़ता था; किन्तु अदंर तक नहीं पहुंच पाता था। अब यहा हालत नहीं रही है। यूरोप की महा प्रजा ने हमारे ऊपर राज्य जमाकर हमें मोहिनी में डाल रखा था। अब यह मोहिनी उतर गयी है। अब हमारे कान खुल गये हैं। संसार के नक्शे की ओर हम नयी दृष्टि से देखने लगे हैं। अब हम समझने लगे हैं कि महासागर भूखंडों को तोड़ते नहीं, बल्कि जोड़ते हैं। अफ्रीका का सारा पूर्व किनारा और कलकत्ता से लेकर सिंगापुर आल्बनी (आस्ट्रेलिया) तक का पूर्व की ओर का पश्चिम किनारा हमें निमंत्रण देता है कि “ईश्वर ने तुम्हे जो ज्ञान, चारित्र्य और वैभव दिया है, उसका लाभ यहां के लोगों को भी पहुंचाओ।” एक ओर अफ्रीका है, दुसरी ओर जावा है, बाली है, ऑस्ट्रेलिया है, टास्मानिया है और प्रशांत महासागर के असंख्य टापू हैं। ये सब अर्णव की वाणी से हमें पुकार रहे हैं। इन सब स्थानों में सागर से प्रेरणा लेकर अनेक मिशनरी गये थे। किन्तु वे अपने साथ सब जगह शराब ले गये, वंश-वंश के बीच का ऊंच-नीच भाव ले गये। ईसा मसीह को भूलकर सिर्फ उनका उनका बायबल ले गये और इस बायबल के साथ उन्होंने अपने-अपने देश का व्यापार चलाया। अर्णव उन्हें जरूर ले गया था। किन्तु वरुण उन पर नाराज हुआ है। हम भारतवासी प्राचीन काल में चीन गये, यवनों के देश ग्रीस तक गये, जावा और बाली की ओर गये। हमने ‘सर्वे सन्तु निरामयाः’ की संस्कृति का विस्तार किया। किन्तु हमने उन स्थानों में अपने साम्राज्य की स्थापना करने की दुर्बुद्धि नहीं रखी। दूसरों के मुकाबले में हमारे हाथ साफ हैं। अतः वरुण का हमें आदेश हुआ है-अर्णव हमें आमंत्रण दे रहा है। और कह रहा है, “दूसरे लोग विजय-पताका लेकर गये; तुम अहिंसा धर्म की तिरंगी अभय-पताका लेकर जाओ और जहां जाओ वहां सेवा की सुगंध फैलाते रहो। शोषण के लिए नहीं, बल्कि पिछड़े हुए लोगों के पोषण और शिक्षण के लिए जाओ। अफ्रीका के शालिग्राम वर्ण के तुम्हारे भाई तुम्हें पुकार रहे हं। पूर्व की ओर के केतकी सुवर्ण वर्ण के तुम्हारे भाई तुम्हारी राह देख रहे हैं। इन सब लोगों की सेवा करने के लिए जाओं और सब लोगों से कहो कि अहिंसा ही परम धर्म है। ऊंच-नीच भाव, अभिमान, अहंकार जैसी हीन वृत्तियों को इस धर्म में स्थान नहीं हो सकता। भोग और ऐश्वर्य, दोनों जीवन के जंग हैं (जीवन को दूषित करने वाले हैं) संयम और सेवा, त्याग और बलिदान, यही जीवन की कृतार्थता है। यह धर्म जिन लोगों ने समझा है, वे सब निकल पड़ो। पूर्व सागर और पश्चिम सागर के बीच में दक्षिण की ओर घुसने वाला हजारों मील का किनारा तैयार करके हिन्दुस्तान को हिन्द महासागर में जो स्थान दिया गया है, वह समुद्र विमुख होने के लिए हरगिज नहीं है। वह तो अहिंसा के विश्वधर्म का परिचय सारे विश्व को कराने के लिए हैं।”

यूरोप के महायुद्ध के अंत में दुनिया का रूप जैसा बदलने वाला होगा वैसा बदलेगा। किन्तु असंख्य भारतीय प्रवास-वीर अर्णव का आमंत्रण सुनकर, वरुण से दीक्षा लेकर, धीरे-धीरे देश-विदेश में फैलेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। सागर के पृष्ठ पर हमारे अनेकानेक जहाज डोलते हुए देख रहा हूं। उनकी अभय-पताकाओं को आकाश में लहराते देख रहा हूं और मेरा दिल उछल रहा है। अर्णव के आमंत्रण को अब मैं खुद शायद स्वीकार नहीं कर सकता, फिर भी नौजवानों के दिलों तक उसे पहुंचा सकता हूं, यही मेरा अहोभाग्य है। वरुण राज को मेरा नमस्कार है! जय वरुणराज की जय!!

अक्टूबर, 1940

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading