आर्सेनिक के खिलाफ बंगाल ने शुरू किया वार

आर्सेनिक
आर्सेनिक

बांग्लादेश और कम्बोडिया में इसी तकनीक के आधार पर प्लांट स्थापित की गई हैं जो सफलतापूर्वक संचालित हो रही हैं। इसके तहत बिजली की मदद से आयरन के बेहत छोटे कणों को पानी में घोला जाता है। आयरन के छोटे-छोटे कणों में आर्सेनिक चिपक जाते हैं जिससे कणों का आकार बढ़ जाता है। इसके बाद फिल्टर के जरिए पानी से आर्सेनिक चिपके आयरन के कण निकाल दिये जाते हैं। पश्चिम बंगाल के आर्सेनिक ग्रस्त मुर्शिदाबाद में वर्ष 2009 में प्रायोगिक तौर पर इसी तकनीक पर 100 लीटर की क्षमता वाला प्लांट स्थापित किया गया था जो सफल रहा। इसके बाद ही बारुईपुर में काम शुरू किया गया। पश्चिम बंगाल देश के उन राज्यों में शुमार है जहाँ आर्सेनिक का कहर सबसे ज्यादा बरपा है। पश्चिम बंगाल के कम-से-कम 9 जिलों में आर्सेनिक का दुष्प्रभाव ज्यादा है, जिसकी वजह से अब तक कई जानें जा चुकी हैं।

पश्चिम बंगाल में पानी में आर्सेनिक का पता पहली बार वर्ष 1983 में चला था। दक्षिण 24 परगना जिले के बारुईपुर में पहली बार आर्सेनिक की शिनाख्त हुई थी और इसके बाद जब जाँच की गई तो पता चला कि 9 जिले आर्सेनिक की जद में हैं। इन 9 जिलों के 2500 से ज्यादा गाँव आर्सेनिक ग्रस्त हैं।

सुलभ इंटरनेशनल समेत अन्य संस्थाओं ने स्थानीय लोगों की मदद से आर्सेनिक प्रभावित लोगों को राहत पहुँचाने की कोशिश की है लेकिन सरकारी स्तर पर अब तक ठोस प्रयास नहीं हुए थे, लेकिन अब पश्चिम बंगाल सरकार ने भी इस समस्या को गम्भीरता से लिया है।

पश्चिम बंगाल सरकार 1332.81 करोड़ रुपए की लागत से दक्षिण 24 परगना जिले के फलता-मथुरापुर में एक प्लांट स्थापित कर रही है, जो आकार के लिहाज से एशिया का दूसरा सबसे बड़ा प्लांट होगा।

प्लांट की स्थापना राज्य के जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की ओर से की जा रही है। सूत्रों का कहना है कि इस प्लांट से दक्षिण 24 परगना जिले के आर्सेनिक प्रभावित 902 गाँव के लोगों को शुद्ध पेयजल मुहैया होगा। अनुमानतः इस परियोजना से रोजाना 32.89 लाख लोगों को शुद्ध जल मिल सकेगा।

गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग की वेबसाइट के अनुसार पश्चिम बंगाल के कुल 9 जिलों के 79 ब्लॉकों में रहने वाले लगभग 1 करोड़ 66 लाख 54 हजार लोग आर्सेनिक के शिकंजे में हैं। इन ब्लॉकों में राज्य सरकार की ओर से कुछ खास काम नहीं किया गया है। बताया जाता है कि आर्सेनिक का सबसे अधिक दुष्प्रभाव उत्तर और दक्षिण 24 परगना जिले में है। उत्तर 24 परगना जिले के हाबरा-गायघाटा ब्लॉक में आर्सेनिक के कारण अब तक कई लोग मारे जा चुके हैं।

राज्य सरकार के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के आला अफसरों के मुताबिक हाबरा-गायघाटा ब्लॉक (जिसके अन्तर्गत मधुसूदन काठी, तेघरिया व अन्य प्रभावित गाँव आते हैं) के आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में सतह के पानी को परिशुद्ध कर लोगों तक पहुँचाने के लिये 578.94 करोड़ रुपए की परियोजना हाथ में ली गई थी।

इस परियोजना के अन्तर्गत ब्लॉक के 327 मौजा में रहने वाले 18.04 लाख लोगों तक शुद्ध पेयजल मुफ्त मुहैया करवाना था लेकिन इस भारी-भरकम राशि का 5 प्रतिशत हिस्सा भी उन तक नहीं पहुँच सका।

यही हाल दक्षिण 24 परगना जिले का भी है। वर्षों से यह जिला भी अवहेलित रहा लेकिन अब राज्य सरकार की नींद खुली है, जो सराहनीय है।

उधर, शैक्षणिक संस्थानों की तरफ से भी आर्सेनिक से निबटने के लिये कई तरह की योजनाओं पर काम हो रहा है।

पश्चिम बंगाल की जादवपुर यूनिवर्सिटी ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के साथ मिलकर दक्षिण 24 परगना जिले के बारुईपुर में एक प्लांट स्थापित किया है, जहाँ से रोज लगभग 10 हजार लीटर परिशोधित पानी निकलता है। इस प्लांट में आर्सेनिक युक्त पानी से आर्सेनिक को दूर किया जाता है। बताया जाता है कि जादवपुर यूनिवर्सिटी के सिविल इंजीनियरों ने इस प्लांट की स्थापना की है। उक्त प्रोजेक्ट से जुड़ी प्रोफेसर जयश्री रॉय कहती हैं, ‘पानी से आर्सेनिक दूर करने के लिये इलेक्ट्रो-केमिकल आर्सेनिक रेमिडिएशन (ईसीएआर) तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तकनीक से न केवल पानी से आर्सेनिक बल्कि दूसरे हानिकारक तत्व भी हटाए जा सकते हैं। इसके लिये 15 से 20 लाख रुपए खर्च किये गए हैं।’

प्लांट से परिशोधित होने वाले पानी की जाँच की गई और जब पाया गया कि सारे हानिकारक तत्व पानी से हटा दिये गए हैं, तब इसे लोगों को दिया जाने लगा। इस अत्याधुनिक तकनीक के तहत बिजली की मदद से पानी का परिशोधन किया जाता है और इसे विकसित करने का श्रेय प्रवासी भारतीय विज्ञानी अशोक गडगिल को जाता है।

प्रो. जयश्री रॉय कहती हैं, ‘हालांकि इस तकनीक को विकसित करने में प्रवासी भारतीय विज्ञानी अशोक गडगिल का अहम रोल है लेकिन प्लांट की स्थापना विशुद्ध रूप से स्वदेशी तकनीकी से की गई है।’ प्रो. रॉय बताती हैं, ‘जादवपुर यूनिवर्सिटी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर विदेश गए हुए थे। हम लोग ऐसी तकनीक तलाश कर रहे थे जिसकी मदद से आर्सेनिक युक्त पानी को परिशोधित किया जा सके। इसी क्रम में प्रो. गडगिल से मुलाकात हो गई और बात आगे बढ़ी।’

यहाँ यह भी बता दें कि बांग्लादेश और कम्बोडिया में इसी तकनीक के आधार पर प्लांट स्थापित की गई हैं जो सफलतापूर्वक संचालित हो रही हैं। इसके तहत बिजली की मदद से आयरन के बेहत छोटे कणों को पानी में घोला जाता है। आयरन के छोटे-छोटे कणों में आर्सेनिक चिपक जाते हैं जिससे कणों का आकार बढ़ जाता है। इसके बाद फिल्टर के जरिए पानी से आर्सेनिक चिपके आयरन के कण निकाल दिये जाते हैं।

पश्चिम बंगाल के आर्सेनिक ग्रस्त मुर्शिदाबाद में वर्ष 2009 में प्रायोगिक तौर पर इसी तकनीक पर 100 लीटर की क्षमता वाला प्लांट स्थापित किया गया था जो सफल रहा। इसके बाद ही बारुईपुर में काम शुरू किया गया।

प्रो. जयश्री राय ने कहा, ‘यह तकनीक कम खर्चीली है और इसमें ऐसी व्यवस्था है कि बिना बिजली के भी प्लांट चल सकता है। इस तकनीक से एक लीटर पानी को परिशोधित करने में एक रुपया से भी कम खर्च होता है।’

10 हजार लीटर क्षमता वाले उक्त प्लांट के कॉमर्शियल ऑपरेशन के लिये लाइसेंस की जरूरत पड़ती है, क्योंकि यह तकनीक गडगिल लैब, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया द्वारा विकसित की गई है।

हालांकि इस तकनीक से बने प्लांट के साथ कई दिक्कतें भी हैं। इसके रख-रखाव में काफी खर्च आएगा और साथ ही प्लांट से जो स्लज (आर्सेनिक व दूसरे हानिकारक तत्व) आएगा से डम्प करना भी एक चुनौती होगी।

जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रो. तरित रायचौधरी कहते हैं, ‘इस तकनीक के रख-रखाव पर विशेष ध्यान देना पड़ता है, अन्यथा यह बहुत जल्दी खराब हो जाएगी। दूसरी सबसे बड़ी चुनौती इससे निकलने वाले आर्सेनिक व अन्य हानिकारण तत्वों की डम्पिंग है क्योंकि यत्र-तत्र इन्हें फेंक देने से यह वापस भूजल में मिल जाएँगे और पानी को गन्दा करेंगे।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading