आर्सेनिक : खामोश कातिल (Arsenic : Silent Killer)

समस्या


वर्ष 2000 से पहले आर्सेनिक के मामले बांग्लादेश, भारत और चीन से ही सामने आते थे। मगर पिछले दशक के शुरुआती सालों में आर्सेनिक प्रदूषण का फैलाव दूसरे एशियाई मुल्कों जैसे मंगोलिया, नेपाल, कम्बोडिया, म्यांमार, अफगानिस्तान, कोरिया, पाकिस्तान आदि में भी दिखने लगा है। साथ ही बांग्लादेश, भारत और चीन में भी आर्सेनिक की अधिक मात्रा के मामले कई और नए इलाकों में भी सामने आने लगे हैं। महज कुछ दशक पहले तक आर्सेनिक का जिक्र पानी के मुद्दों में अमूमन नहीं होता था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से आर्सेनिक प्रदूषण के मामले चर्चा के केन्द्र में आ गए हैं। दुनिया भर में 20 से भी ज्यादा मुल्कों के भूजल में आर्सेनिक होने के मामले सामने आये हैं (बोरडोलोई, 2012)। खासतौर पर हमारे दक्षिण एशियाई देशों में लगातार पेयजल में आर्सेनिक के मामले प्रकाश में आ रहे हैं और बड़ी संख्या में लोगों के इससे पीड़ित होने का पता चल रहा है और अब इसे वृहद जनस्वास्थ्य समस्या के रूप में देखा जाने लगा है।

हालांकि भूजल में आर्सेनिक की उपस्थिति भूगर्भ में होने की वजह से होता है। पर कई और वजहें भी हैं भूजल में आर्सेनिक की सान्द्रता बढ़ने की। इनमें से कुछ प्राकृतिक वजहें हैं, जैसे, आर्सेनिक चट्टानों के टूटने और सेडिमेंटरी डिपोजीशन (रेजा एट एल., 2010), मानवजनित वजहें जैसे धात्विक खनन, खेती में आर्सेनिकयुक्त उर्वरकों का इस्तेमाल (स्मेडली एट एल., 1996), फर्नीचर आदि के आर्सेनिकयुक्त प्रीजरवेटिव्स और कीटनाशकों के इस्तेमाल (एफएक्यू, 2011) और भूजल में आर्सेनिक का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण सतही जल के मुकाबले भूजल का अत्यधिक दोहन और प्रयोग।

वर्ष 2000 से पहले आर्सेनिक के मामले बांग्लादेश, भारत और चीन से ही सामने आते थे। मगर पिछले दशक के शुरुआती सालों में आर्सेनिक प्रदूषण का फैलाव दूसरे एशियाई मुल्कों जैसे मंगोलिया, नेपाल, कम्बोडिया, म्यांमार, अफगानिस्तान, कोरिया, पाकिस्तान आदि में भी दिखने लगा है। साथ ही बांग्लादेश, भारत और चीन में भी आर्सेनिक की अधिक मात्रा के मामले कई और नए इलाकों में भी सामने आने लगे हैं (मुखर्जी एट एल., 2006)। इनमें से बांग्लादेश और इससे सटे भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के इलाकों की स्थिति सबसे अधिक चिन्ताजनक है, क्योंकि आर्सेनिक प्रदूषण के साथ-साथ इन्हें सामाजिक आर्थिक विषमता की मार भी झेलनी पड़ रही है (सफीउद्दीन एंड करीम, 2001)।

1970 के दशक से पहले बांग्लादेश में शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक थी और जल जनित रोग जैसे डायरिया, डिसेंट्री और टाइफाइड बीमारियाँ मुख्य कारण थीं इससे बचने के लिये उस दौरान यूनिसेफ ने सलाह दी थी कि सतही जल की बजाय स्वच्छ पेयजल के लिये ट्यूबवेल का इस्तेमाल करना चाहिए और उनकी सलाह का पालन करते हुए यूनिसेफ के साथ-साथ जन स्वास्थ्य विभाग (पीएचई) ने देश में बड़े पैमाने पर ट्यूबवेल खुदवाए। चूँकि तब तक आर्सेनिक का मसला बहुत अधिक प्रकाश में नहीं आया था लिहाजा इन ट्यूबवेलों के पानी की आर्सेनिक के लिहाज से जाँच भी नहीं की गई।

इसका नतीजा हुआ कि अनजाने में बड़ी आबादी आर्सेनिक युक्त जल का सेवन करती रही। अध्ययन बताते हैं कि बांग्लादेश में जिन ट्यूबवेलों के पानी की जाँच हुई है उनमें से 35 फीसदी में आर्सेनिक की सान्द्रता बांग्लादेश के मानक 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक और विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से काफी अधिक थी (स्मिथ एट एल., 2000)।

असम, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार और मणिपुर आदि भी हैं जो आर्सेनिक प्रदूषण से काफी प्रभावित हैं, इनके क्षेत्र मुख्यतः गंगा, मेघना, ब्रह्मपुत्र का मैदानी इलाका है।

सबसे चिन्ताजनक बात तो यह है कि आर्सेनिक हमारे शरीर में पेयजल के जरिए तो जाता ही है, लेकिन अब तो खाद्य और अनाजों के इस्तेमाल से भी शरीर में जा रहा है। आर्सेनिक ने मिट्टी में भी अपना ठिकाना बना लिया है, लिहाजा अब यह मानव के भोजन-चक्र में शामिल हो गया है और प्रभावित होने वाली बड़ी आबादी की सेहत के लिये बड़ा खतरा साबित हो रहा है।

इससे निबटने के उपाय भी अभी प्रायोगिक स्थिति में ही हैं और इन उपायों को कम खर्चीला बनाने का काम होना अभी बहुत दूर है। जहाँ एक ओर कुछ लोग स्थानीय तरीकों से भी इसका समाधान तलाश रहे हैं, वहीं लोगों और सरकारी तंत्र के बीच जानकारी का अभाव इस समस्या का समयबद्ध और सटीक निदान तलाश नहीं पाने की एक बड़ी वजह है।

जागरुकता के अभाव की वजह से आर्सेनिक प्रदूषण के समाधान की दिशा में किसी नीति का अभाव साफ नजर आता है। अगर कोई नीति है भी तो वह राष्ट्र सापेक्ष है। उदाहरण के तौर पर बांग्लादेश ने 2004 में नेशनल आर्सेनिक पॉलिसी तैयार की है।

विभिन्न संस्थान और शोधकर्ता लगातार आर्सेनिक के मुद्दे पर काम कर रहे हैं और उन लोगों ने कुछ उल्लेखनीय काम भी किया है। फिर भी अकादमिक ज्ञान को जमीनी हकीकत में तब्दील कर पाने में सफलता अब तक नहीं मिल पाई है। सहयोग का अभाव, प्रयासों का दुहराव और प्रतिस्पर्धा की वजह से विरोधाभाषी बातें सामने आती हैं और इसी वजह से सामाजिक-आर्थिक तौर पर ये स्वीकार्य नहीं हो पाये हैं। सरकार तात्कालिक समाधानों में काफी पैसा खर्च कर दे रही है और यह पैसा अधिकतर मामलों में बर्बाद होता जा रहा है।

ऐसे में इस मसले पर एक अखिल भारतीय ज्ञान तंत्र की आवश्यकता है ताकि हम बेहतर और सक्षम समाधान की दिशा में बढ़ सकें। लिहाजा आर्सेनिक के मुद्दे पर केन्द्रित एक नेटवर्क का गठन ‘आर्सेनिक नॉलेज नेटवर्क’ के नाम से किया गया है। इसे एक प्लेटफार्म के रूप में विकसित किया जा रहा है, जहाँ विशेषज्ञ और दूसरे सम्बन्धित लोग साथ आएँ।

आशा है आर्सेनिक नॉलेज नेटवर्क सूचनाओं को साझा करने के लिये एक प्रभावी माध्यम साबित होगा, भारत में भी और इस पूरे उप महाद्वीप के लिये भी। यह आर्सेनिक उन्मूलन की दिशा में मददगार साबित होगा।

गंभीर मसले


भूजल में आर्सेनिक


भारत में पहला मामला पश्चिम बंगाल में 1983 में पहचान में आया। तब से गंगा-मेघना-ब्रह्मपुत्र जोन के राज्य जैसे पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, असम और मणिपुर में भूजल में आर्सेनिक की अधिक सान्द्रता कई जगह पाई गई है ( घोष एंड सिंह, एनडी)।

शोधकर्ताओं ने इन राज्यों में आर्सेनिक प्रदूषण के स्तर का विश्लेषण किया और पाया कि परिस्थितियाँ काफी गम्भीर हैं। पश्चिम बंगाल के नौ जिलें में सान्द्रता 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई है और पाँच जिलों में 10 से 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर के बीच।

उत्तर प्रदेश में भी कुछ जिलों में सान्द्रता 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई है। असम के कुछ जिलें में तो यह 100-200 माइक्रोग्राम प्रति लीटर दर्ज की गई है। अरुणाचल प्रदेश के छह जिलों में तो अधिकतम स्तर 618 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक स्तर पहुँच गया है। और मणिपुर के थौबल जिले में सान्द्रता 798-986 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक दर्ज की गई है (मुखर्जी एट एल., 2006)।

हालिया अध्ययन के मुताबिक बिहार के पश्चिम चम्पारण जिले में जाँच किये गए 50 फीसदी सैम्पल में आर्सेनिक की सान्द्रता 200 माइक्रोग्राम प्रति लीटर और दस फीसदी नमूनों में 300 माइक्रोग्राम प्रति लीटर दर्ज की गई है। सरकारी तंत्र के बीच मान्यता है कि आर्सेनिक की मौजूदगी गंगा के दोनों किनारों की पट्टी तक ही सीमित है, लिहाजा शोध भी इन्हीं इलाकों तक सीमित रहते हैं और जन स्वास्थ्य विभाग की ओर से गंगा-पट्टी के बाहर के इलाकों पर ध्यान नहीं दिया जाता है (भाटिया, 2013)।

कुछ अध्ययनों से यह जानकारी भी मिलती है कि ट्यूबवेल की गहराई बढ़ने के साथ आर्सेनिक की सान्द्रता घटने लगती है (चक्रवती एट एल., 2009) मगर इसके बावजूद आर्सेनिक के प्रसार और स्थानीय मसलों के सन्दर्भ में जानकारी का घोर अभाव है। इसके अलावा उन इलाकों तक भी नहीं पहुँचा जा सका है जो पारम्परिक तौर पर आर्सेनिक प्रभावित नहीं माने जाते हैं और जो गंगा पट्टी से दूर हैं।

भोजन चक्र में आर्सेनिक


आर्सेनिक का खतरा इसलिये भी गम्भीर हो गया है क्योंकि इसका प्रसार सिर्फ पेयजल के जरिए सेवन तक ही सीमित नहीं है बल्कि भूजल के जरिए होने वाली सिंचाई के रास्ते भी इसने अपने प्रसार का मार्ग प्रशस्त कर लिया है। इस तरह प्रभावित जल के जरिए सिंचित खाद्यान्नों के रास्ते यह भोजन चक्र में शामिल हो जाता है साथ ही यह दूध और मांस में भी अपना रास्ता बना लेता है। आर्सेनिक दूषित जल से भोजन पकाने की वजह से भी यह शरीर में प्रवेश कर रहा है।

आर्सेनिक वैसे तो सामान्यतः मूत्र के रास्ते निकल जाता है, मगर उच्च सान्द्रता वाले पानी का लम्बे समय तक इस्तेमाल करने से यह खतरनाक हो जाता है। पीया हुआ आर्सेनिक रक्त धमनियों के जरिए त्वचा, नाखून और बाल में जमा हो जाता है इसकी वजह से पेट दर्द, उल्टी, डायरिया, हथेली और तलवे का अनियंत्रित विकास होने लगता है। पिग्मेंशिया, लिवर को नुकसान पहुँचाने वाला क्रॉनिक विषैलापन, वयस्कों में हृदयरोग और कैंसर जैसे रोगों का भी खतरा रहता है।आर्सेनिक प्रभावित इलाकों के बड़े हिस्से में, लोग पूरी तरह भूजल पर निर्भर हैं, हर काम के लिये पीने से लेकर खाना पकाने तक और खेती तक चूँकि उन इलाकों में पाइप के जरिए पेयजल आपूर्ति या सतही जल उपलब्ध नहीं है। पश्चिम बंगाल, बिहार और बांग्लादेश के इलाकों में समुदाय पूरी तरह भूजल पर आश्रित है, वहाँ आर्सेनिक मिट्टी तक पहुँच जाता है और स्थायी रूप से जम जाता है।

2006 में फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) द्वारा बांग्लादेश में की गई एक समीक्षा के मुताबिक पानी और मिट्टी में आर्सेनिक की मौजूदगी की वजह से खाद्यान्नों खासतौर पर धान के उत्पादन में कमी पाई गई है। चावल दक्षिणी एशिया की प्रमुख फसल है और पानी व मिट्टी में आर्सेनिक की मौजूदगी इस इलाके में खाद्य सुरक्षा के मसले पर गम्भीर खतरा साबित हो सकती है।

पालक जैसी पत्तीदार सब्जियों में आर्सेनिक की उच्च सान्द्रता पाई गई है (एफएओ, 2006)। यह भी देखा गया है कि एक ही फसल में आर्सेनिक की मात्रा अलग-अलग पाई जाती है और अलग-अलग खेतिहरों की फसल में भी आर्सेनिक की अलग-अलग मात्रा मिलती है। फसल के अतिरिक्त आर्सेनिकयुक्त जल में भोजन पकाने से भी शरीर में आर्सेनिक का प्रवेश होता है और रिपोर्टों से पता चला है कि पॉल्ट्री और डेयरी उत्पादों में भी आर्सेनिक की मौजूदगी पाई गई है (एफएओ, 2011)।

सेहत पर प्रभाव


आर्सेनिक एक यूबीक्यूटस मेटलॉयड है। यह एक गन्धहीन और स्वादहीन सेमी-मेटल है जो चट्टानों और मिट्टी में प्राकृतिक रूप से मौजूद रहता है। यह दूसरे तत्वों के साथ संयोग करके ऑर्गेनिक एवं इनऑर्गेनिक आर्सेनिकल का निर्माण करता है। इनऑर्गेनिक आर्सेनिक सामान्य तौर पर अधिक विषैला होता है और पानी में इसकी अधिक प्रबलता होती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक लम्बे समय तक 10 माइकोग्राम प्रति लीटर से अधिक आर्सेनिक वाले पेयजल का सेवन करने से आर्सेनिकोसिस होने की आशंका रहती है। यह एक गम्भीर बीमारी है, जिसकी वजह से त्वचा सम्बन्धित विकृतियाँ, गैंगरीन और किडनी व ब्लैडर के कैंसर होने की आशंका रहती है। आर्सेनिक के कार्सिनोजेनिक प्रभाव का पता 1887 में हचिंसन के शोध से चला था (हचिंसन, 1887)। आर्सेनिक के स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभाव से सम्बन्धित दुनिया भर में किये गए विभिन्न अध्ययनों से साबित हुआ है कि पानी में आर्सेनिक होना एक गम्भीर जन स्वास्थ्य समस्या है।

आर्सेनिक वैसे तो सामान्यतः मूत्र के रास्ते निकल जाता है, मगर उच्च सान्द्रता वाले पानी का लम्बे समय तक इस्तेमाल करने से यह खतरनाक हो जाता है। पीया हुआ आर्सेनिक रक्त धमनियों के जरिए त्वचा, नाखून और बाल में जमा हो जाता है इसकी वजह से पेट दर्द, उल्टी, डायरिया, हथेली और तलवे का अनियंत्रित विकास होने लगता है। पिग्मेंशिया, लिवर को नुकसान पहुँचाने वाला क्रॉनिक विषैलापन, वयस्कों में हृदयरोग और कैंसर जैसे रोगों का भी खतरा रहता है।

बच्चों में पिग्मेंशियेशन, केराटोसिस और त्वचा के खुरदरेपन जैसे रोगों का खतरा रहता है। आर्सेनिक विष की वजह से गर्भवती महिलाओं में गर्भपात के मामले भी देखे गए हैं (यूएसइपीए, 2007)। आर्सेनिक के खतरनाक प्रभाव की वजह से लोगों का शारिरिक और मानसिक विकास भी अवरुद्ध होता है और बौद्धिक क्षमता पर भी नकारात्मक असर पड़ता है (ब्रिंकेल एट एल., 2009)।

दुर्भाग्यवश, गरीबी और अशिक्षा अधिकतर लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधा लेने से रोकती है। सरकारी अस्पताल भी सुविधाहीन हैं, वे इस समस्या का मुकाबला नहीं कर सकते। इसके अतिरिक्त स्किन पिगमेंटेशन और खुरदरापन की वजह से रोगी सामाजिक तौर पर भी बहिष्कृत हो जाता है और इस रोग का महंगा इलाज उसे फिर से गरीबी की ओर ढकेलता है। इन दोनों वजहों से युवा पीड़ित को शिक्षा और दूसरे सामाजिक सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है।

हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आर्सेनिक की मानक सीमा 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तय की है, भारत और बांग्लादेश 50 माइक्रोग्राम प्रति लीटर की पुरानी सीमा का ही पालन कर रहे हैं। लाखों लोग इस समस्या से पीड़ित हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है जैसे-जैसे नए इलाकों की जानकारी मिल रही है। ऐसे में लोगों के बीच आर्सेनिकोसिस के बारे में जागरुकता के प्रसार की जरूरत महसूस होती है। इस मुद्दे के समाधान के लिये सभी सम्बन्धित लोगों को एकजुट होने की जरूरत है।

समाधान के उपाय


समाधान के उपायों को दो प्रमुख शीर्षों के अन्तर्गत दर्ज किया जाता है, इन-सिटू और एक्स सिटू। एसएआर (सबटेरेनियन आर्सेनिक रिमूवल) जैसी इन-सिटू तकनीक के तहत पश्चिम बंगाल में 6 एसएआर प्लांट स्थापित किये गए हैं। यह तकनीक अमूमन सफल साबित होती है, मगर उन्हीं इलाकों में जहाँ पाइपलाइन के जरिए पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था है। खासतौर पर उन इलाकों में जहाँ प्रभावित लोगों की बड़ी आबादी निवास करती है। बांग्लादेश और भारत की सरकारें आर्सेनिक रिमूवल टेक्नोलॉजी को विकसित करने के लिये लाखों डॉलर खर्च कर चुकी हैं, हालांकि इन प्रयासों में उन्हें बहुत सीमित सफलता मिली है।

वर्षाजल संचयन, तालाब, कुएँ और नदियों जैसे सतही जल के स्रोत प्राकृतिक समाधान के उपाय हैं। कुएँ भारत में आर्सेनिक मुक्त जल के बेहतरीन स्रोत माने जाते हैं, इसके बावजूद उनमें कभी-कभी आर्सेनिक के अंश पाये गए हैं। बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल में कुएँ के पानी में विश्व स्वास्थ्य केन्द्र के मानक 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक आर्सेनिक पाये गए हैं (आलम एंड रहमान, 2011)।

गहरे एक्विफायर में माना जाना है कि आर्सेनिक की सान्द्रता अमूमन कम होती है, हालांकि ऐसे मामलों में भी कई दफा कुछ स्थितियाँ भिन्न होती हैं कि आर्सेनिक की मात्रा अधिक हो जाती है। पश्चिमी बांग्लादेश के चापई नवाबगंज में महानन्दा नदी के कई सैंपलों में भी आर्सेनिक की मात्रा पाई गई है और मौसमी परिवर्तन भी देखा गया है।

विभिन्न स्थानों में आर्सेनिक मुक्तिकरण की अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, इनकी सफलता की डिग्रियाँ अलग-अलग होती हैं। इन तकनीकों में ऑक्सीडेशन/रिडक्शन, प्रिसिपिटेशन एंड कॉगुलेशन, आयन एक्सचेंज आदि हैं। बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले में 6 एसएआर प्लांट स्थापित किये गए हैं, जो छह गाँवों की 5000 की आबादी को आर्सेनिकमुक्त जल उपलब्ध करा रहे हैं, यह कुछ सफल उदाहरणों में से है (आर्सेनिकफ्रीवाटर.कॉम)।

उत्तरी 24 परगना जिले के काशीमपुर गाँव में यूरोपियन और भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम एफई और एमएन को हटाने के ऑक्सीडेशन और फिल्टरेशन के सिद्धान्त पर आधारित सबटेरेनियन ट्रीटमेंट की एक केमिकल फ्री विधि विकसित की है। इस विधि के जरिए महज एक डॉलर में 2000 लीटर पानी को शुद्ध कर उसका आर्सेनिक स्तर 10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक लाया जा रहा है (सेनगुप्त एट एल., 2009)।

एक्स-सिटू उपचार विधि के तहत शोध संस्थाओं द्वारा विभिन्न किस्म के आर्सेनिक फिल्टर विकसित किये गए हैं, जैसे डेवलपमेंट अल्टर्नेटिव (डीए एनडी) ने जल-तारा फिल्टर तैयार किया है। इसके बावजूद कृषि खाद्य पदार्थों के जरिए आर्सेनिक के शरीर में प्रवेश करने के मसले पर अब तक ढंग से काम नहीं किया गया है और इसकी रोकथाम के लिये अलग से उपाय की जरूरत है। इस मामले में जागरुकता का प्रसार काफी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है और खेती के दौरान की जाने वाली सिंचाई के वक्त भी यह जाँच करने की जरूरत है कि कहीं पानी में आर्सेनिक की मात्रा मानक सीमा से अधिक तो नहीं।

हालांकि समाधान और मुक्तिकरण की प्रक्रिया परिस्थितिजन्य होती हैं और स्थानीय स्थितियों के आधार पर इसमें बदलाव हो सकते हैं। इसके बावजूद बेहतर तकनीक विकसित करने की दिशा में शोध और आयोजन होते रहने चाहिये ताकि इन्हें नए इलाके में लागू कराया जा सके। इससे भी इस बात की ही पुष्टि होती है कि इस दिशा में एक पैन इण्डिया नॉलेज सिस्टम और आर्सेनिक के मसले पर कार्यरत सभी लोगों के गठजोड़ की जरूरत है।

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