आर्थिक विकास का पर्यावरणीय मूल्यांकन (Environmental Assessment of Economic Growth and Green Audit)

इस अध्ययन में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया में पारिस्थितिकीय आधुनिकीकरण का कार्यक्रम अपनाने की अनिवार्यता रेखांकित की गई है। लेखकों का कहना है कि सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि से देश स्थाई आर्थिक विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकता। अतः उनका विचार है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान और भावी स्वरूप के बारे में राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।

स्थाई विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें संसाधनों के उपयोग, निवेश की दिशा, तकनीकी विकास के झुकाव और संस्थागत बदलाव का वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं के साथ तालमेल कायम किया जाता है। स्थाई विकास की बुनियादी शर्तें इस प्रकार हैं:

- उपभोक्ता मानव जाति तथा उत्पादक प्राकृतिक प्रणाली के बीच सहजीविता संबंध, और
- पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बीच पूरक संबंध।

स्थाई विकास की पूर्व शर्तें ये हैं:


- समानता और सामाजिक न्याय
- अंतर्जात विकल्प
- आर्थिक कार्यकुशलता
- पारिस्थितिकीय तालमेल

पर्यावरण संबंधी वर्तमान समस्याएं सरकारी प्रयासों में कमी के कारण उतनी नहीं हैं जितनी इसलिए कि इन प्रयासों की दिशा ठीक नहीं है जिसके कारण कानूनी, क्षेत्रीय, जनसंचार माध्यम संबंधी और पुनर्निर्माण मूलक योजनाओं तथा प्रबंध में पर्यावरण और विकास की पारस्परिक निर्भरता के तथ्य की उपेक्षा की गई है। इसलिए इसमें बदलाव का अर्थ है पारिस्थितिकीय सिद्धान्तों के आधार पर अर्थव्यवस्था का पुर्नगठन।

विकास के उपलब्ध सूचकों से अर्थव्यस्था के ढांचे के पर्यावरणीय पहलुओं की समुचित जानकारी प्राप्त नहीं होती। इस लेख में प्रचलित आर्थिक सूचकों का विश्लेषण किया गया है और आर्थिक लेखे-जोखे की प्रक्रिया में पर्यावरण और संसाधनों के नुकसान की लागत को भी शामिल करने की प्रक्रिया सुझाई गई है। 1980-95 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है ताकि भारत के स्थाई विकास के लिए सूझ-बूझ से नीतियां बनाने की आवश्यकता रेखांकित की जा सके।

आर्थिक सूचक


राष्ट्रीय आय और खर्च के खातों से परम्परागत रूप से दो उद्देश्य पूरे होते हैं:
- आर्थिक गतिविधियों के स्तर, परिमाण और प्रकृति की गणना।
- उत्पादन के कारकों और जीवन-स्तर के सूचकों का निर्धारण।

आमदनी और मानवीय हित (कल्याण) के उपायों के बीच संबंध संदेहास्पद है क्योंकि आय के खातों से जीवन स्तर में भिन्नता, पर्यावरण संबंधी दबाव और पर्यावरण संबंधी गिरावट का पता नहीं चलता जबकि ये सब मानव कलयाण की दृष्टि से प्रासंगिक हैं। लेखांकन प्रक्रिया में एक और कमी स्पष्ट रूप से नजर आती है। अनौपचारिक (असंगठित) क्षेत्र में उत्पादित सामग्री का कोई हिसाब नहीं रख जाता। इसी तरह अर्थव्यवस्था के निर्माण में संसाधनों के ह्रास, काम-काज की स्थिति, जीवन स्तर तािा पर्यवरण में गिरावट और दुर्घटनाओं से होने वाले नुकसान का भी हिसाब नहीं लगाया जाता।

1970 के दशक में जब आर्थिक विकास में बढ़ोत्तरी और जीवन स्तर में गिरावट के बीच का अंतर बढ़ने लगा तो सकल घरेलू उत्पाद को सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक संकेतक मानने की आलोचना और मुखर हो गई हालांकि यह आलोचना तभी से हो रही थी जब से सकल घरेलू उत्पाद की अवधारणा शुरू हुई थी।

1950 के दशक में बोल्डिंग और 1970 के दशक में ‘डाले’ के जमाने में ही इस तरह की आलोचना होने लगी थी। ‘रोम क्लब’ की ताजा रिपोर्ट में जहां सकल घरेलू उत्पाद का मापक मानने की आलोचना की गई है, वहीं आर्थिक कल्याण और पर्यावरणीय गुणवत्ता के नये पैमाने भी प्रस्तुत किए गए हैं और उनके आधार पर अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने की बात कही गई है।

यह आवश्यक है कि आर्थिक कल्याण के पैमाने राष्ट्रीय लेखांकन प्रणाली (एसएनए) में वर्णित ‘शास्त्रीय’ भौतिक कल्याण के साथ-साथ निम्नलिखित बातों की भी जानकारी दें:-

- गैर-बाजार उत्पादन,
- उत्पादन के ऐसे विभिन्न उपादान जो उपभोग से संबंधित नहीं हैं मगर आर्थिक प्रणाली (प्रतिरक्षात्मक लागत) की ही वजह से हुए नुकसान की भरपाई के लिए जरूरी हैं;
- पर्यावरण संबंधी ऐसा नुकसान जिसकी भरपाई संभव नहीं है;
- वर्तमान उत्पादन/उपभोग की वजह से भावी कल्याण में कटौती;
- (आमदनी के) वितरण का प्रश्न।

आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण में आई गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिए आर्थिक गतिविधियों में होने वाले मूल्य संवर्द्धन को यदि सकल घरेलू उत्पाद से घटा दिया जाए तो अर्थव्यवस्था के विकास का सही संकेतक प्राप्त किया जा सकता है। सकल घरेलू उत्पाद में से जो चीजें घटाई जानी चाहिए वे इस प्रकार हैं:

- पर्यावरणीय दृष्टि से असुरक्षित तरीकों से जमीन पर खेती करने की लागत; प्राकृतिक क्षेत्रों का ह्रास; वायु प्रदूषण नियंत्रण की लागत; ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण की लागत; जलप्रदूषण नियंत्रण की लागत; पर्यावरण संबंधी दीर्घकालिक क्षति; पर्यावरण संबंधी रक्षात्मक उपायों पर खर्च; स्वास्थ्य संबंधी रक्षात्मक उपायों पर खर्च; रक्षात्मक सामाजिक लागत; आर्थिक कल्याण में भारी कटौती; ऊर्जा के पुनरुपयोग में न आ सकने वाले संसाधनों का ह्रास।

पृथ्वी सम्मेलन के ‘एजेंडा-21’ के आठवें अध्याय में सरकारों से कहा गया है कि वे ‘‘....राष्ट्रीय आर्थिक लेखा की वर्तमान प्रणाली का विस्तार करें ताकि लेखांकन ढांचे में पर्यावरणीय और सामाजिक पहलुओं के साथ-साथ कम से कम सभी सदस्य राष्ट्रों की प्राकृतिक संसाधन प्रणाली को शामिल किया जा सके।’’

सांख्यिकीय कार्यालय इस वचनबद्धता के प्रति धीरे-धीरे सजग हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र ने हाल ही में राष्ट्रीय लेखा प्रणाली में संशोधन करके समन्वित पर्यावरण और आर्थिक लेखांकन प्रणाली के रूप में नई समग्र व्यवस्था का लक्ष्य रखा है। इसमें भौतिक और मौद्रिक दोनों तरह के आंकड़े संकलित करने के लिए ढांचा उपलब्ध होगा जो राष्ट्रीय लेखा प्रणाली के अनुरूप होगा।

पर्यावरण लेखांकन के बारे में इस गतिशील दृष्टिकोण का विकल्प संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकीय अनुभाग और विश्व बैंक ने संयुक्त रूप से किया है। इसे मैक्सिको और पापुआ न्यू गिनी में आजमाया भी जा चुका है। पर्यावरण और आर्थिक लेखांकन के अंतर्गत दो बातें- प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास और पर्यावरण संबंधी लागत शामिल की गई हैं जिससे ‘पर्यावरण संबंधी लागत को समायोजित कर सकल घरेलू उत्पाद’ की गणना में मदद मिलती है। गणना करते समय पर्यावरण संबंधी ह्रास की क्षतिपूर्ति की लागत भी शामिल कर ली जाती है। मगर आंकड़ों को व्यवस्थित कर कुछ संकेतकों का निर्धारण किया जा सकता है। इनमें संरचनात्मक समायोजन की आवश्यकता, सुरक्षित टेक्नोलॉजी संबंधी विकल्प, क्षय होने वाले संसाधनों के स्थान पर अक्षय संसाधनों का उपयोग और सकल पर्यावरण उत्पाद जैसे उपाय शामिल किए जा सकते हैं। इनसे सामाजिक आर्थिक फैसले की प्रक्रिया में पर्यावरण संबंधी चिंताओं को शामिल करने में मदद मिल सकती है।

इन बातों को राष्ट्रीय खाते में शामिल करने के बारे में एक दशक के अनुसंधान के बाद मोटे तौर पर दो दृष्टिकोण सामने आए हैं:

- परम्परागत लेखे के साथ गैर-मौद्रिक इकाइयों में संसाधन और पर्यावरण संबंधी लेखा-जोखा दिया जाए या फिर इसे अलग से अनुषांगिक लेखे के रूप में दिखाया जाए।
- परम्परागत सकल राष्ट्रीय उत्पाद/सकल घरेलू उत्पाद में संसाधनों के उपयोग और पर्यावरण संबंधी ह्रास का मौद्रिक समायोजन किया जाए।

हालांकि पर्यावरण संबंधी लेखों (ग्रीन एकाउंट) की उपयोगिता या उद्देश्य के बारे में कोई अंतरराष्ट्रीय समझौता नहीं है परन्तु कई देशों ने निम्न कारणों से पर्यावरण लेखांकन का सहारा लिया है:

-स्थायी विकास के संकेतक के रूप में,
-उत्प्रेरण के उद्देश्य से,
-पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त क्षेत्रीय नीति बनाने के लिए।

पर्यावरण की दृष्टि से स्थायी निकास के एकपक्षीय संकेतक जैसे सकल पारिस्थितिकीय उत्पाद या पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद में पर्यावरण और संसाधन संबंधी ह्रास के परिमाण शामिल किए जाते हैं जो आर्थिक खातों में हिसाब में नहीं लिए जाते। उनकी समय-शृंखला से अर्थव्यवस्था की दिशा, यानी यह स्थायी विकास की ओर बढ़ रही है या उससे दूर हट रही है, का पता चल जाता है। सकल पारिस्थिकीय उत्पाद अथवा पर्यावरणीय दृष्टिकोण से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद में पर्यावरण मूल्यांकन भी शामिल रहता है जिसको लेकर पर्यावरणविदों और अर्थशास्त्रियों के बीच विवाद और अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है दूसरा संकेतक, अर्थात अर्थव्यस्था का विकास स्थायित्व की ओर हो रहा है या वह उससे दूर हट रही है, गणना पर आधारित है। तुलनात्मक क्षेत्रीय विकास दर, संसाधन-उपयोग और उत्सर्जन तीव्रता की गणना करके अनिश्चितता काफी कम की जा सकती है।

प्राकृतिक संसाधन लेखा


भारत में समन्वित आर्थिक और पर्यावरण लेखांकन प्रणाली को लेकर पिछले दशक से बहस छिड़ी हुई है। पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा प्रायोजित तथा राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान द्वारा संचालित एक परीक्षण अध्ययन 1985 में शुरू किया गया जिसका उद्देश्य भारत के लिए प्राकृतिक संसाधनों के लेखांकन का ढांचा तैयार करना और यमुना नदी के थाले में इसका प्रदर्शन करना था। एक अन्य अध्ययन पूरे देश को आधार बनाकर किया गया जिसका उद्देश्य पिछले डेढ़ दशक में पर्यावरण तथा संसाधन संबंधी ह्रास का आकलन करना था ताकि नीतिगत निर्णय करने वालों को इस बारे में आगाह किया जा सके। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान द्वारा कराए गए इस अध्ययन का एक और उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल ऐसी व्यवस्था के महत्व पर जोर देना भी था जिससे लोगों के जीवनस्तर में भिन्नता समाप्त हो और पारिस्थितिकीय बोझ तथा पर्यावरण ह्रास कम से कम हो। इस अध्ययन के कुछ निष्कर्ष यहां दिए जा रहे हैं।

भारत के संदर्भ में निर्धारित आर्थिक और पर्यावरण संबंधी लेखे सारणी-1 में दिए गए हैं जिनमें ये बातें शामिल हैंः

- हवा की गुणवत्ता में ह्रास और उससे स्वास्थ्य तथा पारिस्थितिकीय नुकसान।
- भूमिगत जल-संसाधनों का पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक उपयोग और भूतलीय जल का प्रदूषण।
- भू-क्षरण, क्षारता और पानी के जमाव की वजह से जमीन का बिगड़ना।
- वनाच्छादित क्षेत्र का ह्रास।

जैव-विविधता, पेड़-पौधों और वनस्पतियों का ह्रास, एवं स्वच्छ जलीय पारिस्थितकीय संसाधनों तथा तटवर्ती क्षय होने वाले संसाधनों के ह्रास को गणना में शामिल नहीं किया गया है। लेखांकन अवधि (1980-95) का चयन इसलिए किया गया है कि इस अवधि के लिए संसाधनों के ह्रास के आंकड़े उपलब्ध हैं।

आर्थिक लेखा


1980-90 के दौरान स्थिर मूल्यों के आधार पर देश के सकल घरेलू उत्पाद में 2,02,354 करोड़ रुपये यानी 73.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई 1991-95 के दौरान 87,721 करोड़ रुपये यानी 21 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।

पर्यावरण संबंधी लेखा


वातावरण: 1980-90 और 1991-95 के दौरान वायु प्रदूषण के कारण मानव स्वास्थ्य और वनस्पतियों की पारिस्थितिकीय गतिविधियों को संयुक्त रूप से क्रमशः 26,772 करोड़ रुपये और 11,308 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।

जलीय पर्यावरण: भूमिगत जल के लिए खुदाई करने से भूमिगत जल संसाधनों की गुणवत्ता और मात्रा में कमी आई है। भूमिगत जल में कमी (खुदाई) और इसकी गुणवत्ता में गिरावट से बचाव की लागत 1980-90 के दौरान क्रमशः 96,900 करोड़ रुपये और 24,985 करोड़ रुपये और 1991-95 के दौरान क्रमशः 48,877 करोड़ रुपये तथा 13,386 करोड़ रुपये आंकी गई है। इसी अवधि में भूतलीय जल के प्रदूषण से बचाव की लागत क्रमशः 1,014 करोड़ रुपये और 512 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।

भू-पर्यावरण: जमीन के बिगड़ने से उत्पादकता और पारिस्थितिकीय गतिविधियों का ह्रास तथा खराब हुई जमीन को पुनरुपयोगी बनाने की लागत 1980-90 और 1991-95 के दौरान क्रमशः 1,38,750 करोड़ रुपये और 24,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया है।

जैव पर्यावरण: 1980-90 और 1991-95 के दौरान वनाच्छादित क्षेत्र में कमी से उत्पादकता तथा वनों से प्राप्त पारिस्थितिकीय सेवाओं में हुई कमी से क्रमशः 2,704 करोड़ रुपये और 1,337 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।

सकल घरेलू उत्पाद की समायोजित वृद्धि दर की गणना में सारणी-1 में जो महत्वपूर्ण मुद्दे रेखांकित किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं:

सारणी-1
समन्वित पर्यावरण और आर्थिक लेखा (1980-90, -1991-95)

मद

1980-90 के

दौरान परिवर्तन

(करोड़ रु. में)

वार्षिक वृद्धि दर (प्रतिशत में)

1991-95

के दौरान परिवर्तन (करोड़ रु. में)

वार्षिक वृद्धि दर

(प्रतिशत में)

आर्थिक लेखे

सकल घरेलू उत्पाद

+2,02354

+5.66 प्रतिशत

(पर्यावरण संबंधी ह्रास को शामिल किए बिना)

+87,721

+4.43 प्रतिशत

(पर्यावरण संबंधी ह्रास को शामिल किए बिना)

पर्यावरण लेखे

    

वायु पर्यावरण

(वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य और पारिस्थितिकी को नुकसान)

-16,772

 

-11,308

 

- जलीय पर्यावरण

(भूमिगत जल के लिए खुदाई)

  

-संख्यात्मक गिरावट

-96,900

 

-48,877

 

-गुणात्मक गिरावट

-24,985

 

-13,386

 

भूतलीय जल

-प्रदूषण निवारण लागत

-1,014

 

-512

 

- भूमि प्रदूषण

  

-जमीन खराब होने से उत्पादकता में कमी

-1,38,750

 

-61,768

 

-जमीन को फिर से उपजाऊ बनाने की लागत

-24,000

 

-10,668

 

- वनाच्छादित क्षेत्र में ह्रास सेवाओं/कीमतों में गिरावट

-2,704

 

-1,337

 

पर्यावरण और पारिस्थितिकीय ह्रास की लागत

-3,15,125

 

-1,47,856

 

घरेलू उत्पाद में समायोजित वृद्धि

(पर्यावरण ह्रास के लिए लेखांकन)

-1,12,771

-4.92

-60,135

-4.74       

आंकड़ों का स्रोतः

1.नेशलन अकाउंट्स स्टेटिस्टिक्स, 1995, केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन।

2.भारत के नेशनल इनकम स्टेटिस्टिक्स, अक्तूबर, 1996, सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकोनामी।

 



इन सारणी के बारे में कुछ स्पष्टीकरण
- वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान की लागत जनसंख्या पर पड़ने वाले असर पर आधारित तथा मृत्यु दर संबंधी आंकड़े सांस की बीमारियों से संबंधित हैं।
- वायु प्रदूषण के कारण पारिस्थितिकीय हानि में वनस्पतियों का ह्रास, भूमिगत जल में क्षति का फिर से पूरा न हो पाना और भू-क्षरण भी शामिल हैं।
- बहुत अधिक पानी निकाले जाने से भूमिगत जल की मात्रा में कमी तथा उसकी गुणवत्ता का ह्रास और भूमिगत जल के प्रदूषित होने से होने वाले नुकसान अनुमानित है।
- उद्योगों और घरों से निकलने वाले गन्दे पानी से भूजल को प्रदूषित होने से बचाने में आने वाली लागत अनुमानित है।
- जमीन के खराब होने से खेती योग्य भूमि की उत्पादकता में कमी की लागत समग्र फसल प्रणाली पर आधारित है। जल संभर क्षेत्रों में भू-क्षरण नियंत्रण कार्यक्रम के जरिए जमीन को फिर से उपजाऊ बनाने के लिए तीन साल की अनुमानित अवधि निर्धारित की गई है।
- वन सेवाओं/लागत में नुकसान का अनुमान वनाच्छादित क्षेत्र में परिवर्तन पर आधारित है जो पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा वन भूमि के अन्य कार्यों में उपयोग होने वाले लाभ के मूल्यांकन के लिए निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुरूप है।
- पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी संबंधी कुल नुकसान में जैव विविधता की हानि को शामिल नहीं किया गया है।
- पर्यावरण लेखे से संबंधित गणना में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के लिए प्राकृतिक संसाधनों के मौद्रिक मूल्य को शामिल नहीं किया गया है।
कुछ देशों की सकल घरेलू उतपाद की वार्षिक विकास दर और पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित सकल घरेलू उत्पाद दर सारणी-2 में दी गई है।

सारणी 2
1980-90 और 1991-95 के दौरान विभिन्न देशों में सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) और पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद (ईडीपी) की वार्षिक वृद्धि दर

देश

1980-90 के दौरान वृद्धि दर (प्रतिशत)

1991-95 के दौरान वृद्धि दर (प्रतिशत)

टिप्पणी

 

सकल घरेलू उत्पाद

पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद

सकल घरेलू उत्पाद

पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद

 

भारत

5.66

4.92

4.43

4.74

अनौपचारिक क्षेत्र की वजह से संसाधनों और पर्यावरण संबंधी ह्रास (उपभोग संबंधी गतिविधियाँ) भी शामिल हैं

पापुआ न्यू गिनी

4.52

4.32

-

-

उत्पादन गतिविधियों में सिर्फ संसाधनों का उपयोग तथा इस्तेमाल की गई पर्यावरण संबंधी सेवाएं हिसाब में ली गई हैं।

आस्ट्रिया   

2.26

0.70

1.0

0.41

1991-95 के आंकड़े 1993 तक के आंकड़ों का उपयोग कर प्राप्त किए गए हैं।

पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के आंकड़े स्थायी आर्थिक कल्याण सूचकांक से संबंधित हैं

नोट: अन्य देशों के बारे में संबंधित समय शृंखला आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। मैक्सिको के 1986 के समन्वित पर्यावरण तथा आर्थिक लेखे से पता चलता है कि वानिकी और तेल क्षेत्रों का योगदान सकल घरेलू उत्पाद का 0.54 प्रतिशत और 3.50 प्रतिशत तथा पर्यावरण की दृष्टि से समायोजित शुद्ध घरेलू उत्पाद का -0.08 प्रतिशत और -0.20 प्रतिशत था। अर्थव्यवस्था का पूंजी उत्पादन अनुपात संशोधनों को शामिल करने के बाद 37.05 से घटकर 9.69 हो गया। संसाधनों और पर्यावरण ह्रास संबंधी संशोधन सकल घरेलू उत्पाद का 48.8 प्रतिशत था।

 



नीति संबंधी परिणाम
सारणी-1 से नीति निर्माण की प्रक्रिया से संबंधित निम्नलिखित बातों का पता चलता है:

- 1980-90 के मुकाबले 1991-95 में पर्यावरण संबंधी हानि बढ़ी है।
- 1991-95 के दौरान आर्थिक गतिविधियों की एक विशेषता यह रही है कि जल और वायु प्रदूषण संबंधी पर्यावरण लागत में ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है जबकि भूमि का ह्रास और वनाच्छादित क्षेत्र में कमी 1980-90 की अवधि जैसी ही रही है।

जमीन की पर्यावरण संबंधी नुकसान की रफ्तार कृषि उत्पादन में सुधार की रफ्तार से अधिक रही है। इसके साथ-साथ शहरों के विस्तार के लिए खेती योग्य भूमि के उपयोग से देश की खाद्यान्न उत्पादन क्षमता पर बुरा असर पड़ा है।

इस विश्लेषण के आर्थिक उदारीकरण के प्रक्रिया के तहत पारिस्थितिकीय आधुनिकीकरण के कार्यक्रम पर अमल करने की सख्त जरूरत उजागर हो गई है। सिर्फ विकास के लक्ष्यों को पूरा करने के प्रयासों से देश अर्थव्यवस्था के स्थाई विकास के मार्ग से दूर हो जाएगा और भावी पीढ़़ी के विकास पर बुरा असर पड़ेगा।

पारिस्थितिकीय आधुनिकीकरण
पारिस्थितिकीय आधुनिकीकरण का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की लागत को स्वीकार्य सीमा में रखते हुए पर्यावरण संरक्षण के खर्च का कम से कम तथा उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया में सामग्री एवं ऊर्जा के कारगर इस्तेमाल से आर्थिक एवं पारिस्थितिकीय कार्यकुशलता के स्तर में बढ़ोत्तरी करना रहा है। कुल मिलाकर पारिस्थितिकीय आधुनिकीकरण का उद्देश्य पारिस्थितिकी के सिद्धान्तों के आधार पर अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन करना है। पारिस्थितिकीय आधुनिकीकरण के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैंः-

औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र: ऐसी उत्पादन प्रक्रियाओं को अपनाना जिसमें कच्चे माल और ऊर्जा की किफायत होती है और बेकार सामग्री को रीसाइक्लिंग के जरिए फिर काम में लाया जाता है; पारिस्थितिकी की दृष्टि से हानिकारक उत्पादों के स्थान पर सुरक्षित पदार्थों का उपयोग; फिर से काम में न लाए जा सकने वाले संसाधनों के विकल्पों की खोज के कार्य में बायोटेक्नोलाजी का उपयोग, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिए क्षमता पर आधारित आयोजन और उद्योगों का पारिस्थितिकी पर आधारित वर्गीकरण।

ऊर्जा क्षेत्र: प्राथमिक ऊर्जा का युक्तिसंगत उपयोग; ऊर्जा के अक्षय स्रोतों का अधिकाधिक उपयोग, अपूर्ति का विकेन्द्रीकरण और दहन प्रक्रिया में सुधार।

कृषि क्षेत्र : पारिस्थितिकीय खेती और उसमें बायोटेक्नोलॉजी संबंधी सुधार, कार्बनिक खाद और जीवनाशकों को बढ़ावा, विभिन्न प्रजातियों के लिए उपयुक्त भूमि उपयोग योजनाओं तथा पारिस्थितिकीय प्रणालियों का विकास।

भवन निर्माण उद्योग: फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले और पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त भवन निर्माण सामग्री का उपयोग; भूमि तथा ऊर्जा की बचत करने वाले डिजाइनों का विकास; श्रम प्रधान डिजाइनों का उपयोग।

परिवहन क्षेत्र: खास तरह के मोटर वाहनों की ऊर्जा की खपत में कमी करना; कारगर स्राव सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का विकास और वाहनों को चलाने की कुल सीमा (मोटर किलोमीटरों) में कमी।

हमारे वर्तमान संकट के सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों की जड़ें वैज्ञानिक भौतिकवाद तथा आर्थिक निर्धारण के सिद्धांतों पर आधारित हैं।

इन सिद्धांतों में आर्थिक गतिविधियों पर पारिस्थितिकीय प्रणालियों द्वारा लगाए जाने वाले प्रतिबंधों को महत्व नहीं दिया गया। अर्थव्यवस्थाओं को पारिस्थितिकीय प्रणालियों के भीतर ही अपना विस्तार करना चाहिए क्योंकि इन प्रणालियों की पुनरुत्पादन क्षमताएं सीमित होती हैं। अनवरत भौतिक विकास के नव-शास्त्रीय सिद्धांत के विपरीत आर्थिक गतिविधियों से विकास क्षमता पर सीधे तौर पर बुरा असर पड़ता है। नतीजा यह होता है कि प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जाता है। औद्योगिक अपशिष्ट को छोड़े जाने से भावी उत्पादन पर अप्रत्यक्ष रूप से बुरा असर पड़ता है। सामाजिक नीति के महत्वपूर्ण कारक के रूप में आर्थिक प्रगति और संख्यात्मक विकास को एक साथ रखने से विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होती हैं।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि भारत की अर्थव्यवस्था के वर्तमान तथा भावी परिदृश्य के बारे में देशव्यापी बहस हो ताकि नीतिगत बदलाव के लिए जल्द से जल्द नए कार्यक्रम बनाए जा सकें।

(लेखक द्वय राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान, नागपुर में क्रमशः निदेशक और उप-निदेशक हैं।)

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