अस्वच्छ सर्वेक्षण

17 Aug 2018
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स्वच्छ सर्वेक्षण 2018
स्वच्छ सर्वेक्षण 2018
हाल ही में आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय ने स्वच्छ सर्वेक्षण-2018 जारी किया। इस रिपोर्ट में 4,203 शहरों को सफाई और नगरीय ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन (एसडब्ल्यूएम) के आधार पर रैंकिंग दी गई है। मुझे रैंकिंग और साथ अपशिष्ट प्रबन्धन के आधार पर शहरों और नागरिकों को दिये जाने वाले सन्देश पर सख्त आपत्ति है। मेरे पास इसकी वाजिब वजह हैं।

दरअसल, सर्वेक्षण ने साफ-सफाई को पुरस्कृत किया लेकिन टिकाऊ कूड़ा प्रबन्धन के व्यवहार की पहचान नहीं की। इसके अलावा नागरिकों द्वारा की गई विभिन्न पहलों को यह पुरस्कृत करने में असफल रहा है। देश में जो 50 बड़े शहर हैं उनकी सफाई तो दिख सकती है लेकिन वहाँ पर्याप्त निपटान और प्रक्रियागत व्यवस्था ही नहीं है। वहाँ कूड़ा को इकट्ठा करते हैं और खराब तरीके से ढलावघरों और लैंडफिल में डाल देते हैं। मसलन, चंडीगढ़ को देखें जो सबसे अच्छे शहरों की श्रेणी में तीसरे नम्बर पर है। यह कूड़ा को प्रारम्भिक तौर पर पृथक करने की कोई व्यवस्था नहीं है।

कूड़े का निपटान तो हो रहा है लेकिन वह कानूनी उलझनों में फँसा हुआ है। नई दिल्ली नगरपालिका परिषद को चौथा स्थान मिला है और दक्षिणी दिल्ली नगर निगम 32वें पायदान पर है। यहाँ स्रोत से कचरे को एकत्रित और अलग नहीं किया जाता। 80 प्रतिशत कूड़ा ओखला के कूड़ा से ऊर्जा बनाने के बेहद खराब रख-रखाव वाले प्लांट में निपटान की प्रक्रिया में लगा दिया जाता है। यह प्लांट प्रदूषण फैलाने की वजह से गहन निगरानी में है। इसी तरह तिरुपति, अलीगढ़, वाराणसी और गाजियाबाद जिन्हें उच्च श्रेणी में रखा गया है, के पास कूड़ा निपटान और प्रसंस्करण की कोई उपयुक्त व्यवस्था नहीं है।

यह हैरान करने वाली बात है कि सर्वेक्षण में उन शहरों को निम्न रैंकिंग दी गई है जहाँ कूड़ा प्रबन्धन की नियमित और टिकाऊ व्यवस्था है। ये शहर कूड़ा निपटान प्रबन्धन के लिये उच्च स्तर की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था बनाए हुए हैं और नगर निगमों द्वारा घर-घर जाकर कूड़ा इकट्ठा करने पर निर्भर नहीं हैं।

उदाहरण के लिये केरल के अलप्पूजा को देखें जिसे 219वाँ स्थान मिला है अथवा 286वाँ स्थान हासिल करने वाले तिरुअनंतपुरम को देखें। इन शहरों को निचला स्थान दिया गया क्योंकि इन शहरों ने कूड़ा प्रबन्धन व्यवस्था में घर-परिवार और सामुदाय को शामिल कर लिया। इन शहरों में ज्यादातर कूड़े को खाद या बायोगैस में बदल दिया जाता है और ये काम घर या समुदाय के स्तर पर हो जाता है।

अजैविक कूड़ा जैसे प्लास्टिक और सीसा रीसाइकल के लिये भेज दिया जाता है। कूड़ा एकत्रित करने और उसे लैंडफिल साइट के लिये करोड़ों रुपए खर्च करने के बजाय यहाँ कचरे से पैसा कमाया जा रहा है। ये शहर साफ-सुथरे भी हैं। अतः इस बात को पचाना बहुत मुश्किल है कि वाराणसी तिरुअंनतपुरम से ज्यादा साफ है।

ऐसे में सवाल है कि स्वच्छ सर्वेक्षण किस तरह के मॉडल को प्रचारित कर रहा है? क्या यह मॉडल पूँजी केन्द्रित है और जो एक-एक घर से कूड़ा उठाने, उसे पृथक करने और केन्द्रीयकृत प्रसंस्करण व लैंडफिल में निपटान के तरीके की वकालत करता है? या यह कम-से-कम लागत पर अलप्पूजा या छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर के मॉडल को प्रोत्साहित करता है जिसमें विकेन्द्रीकृत तरीके से कूड़े को पृथक, प्रसंस्करण और पुनःप्रयोग पर जोर दिया गया है? इन जगहों पर कूड़े का कोई पहाड़ नहीं है और न ही कूड़े के पहाड़ों के विरोध में यहाँ नोएडा के लोगों जैसा प्रदर्शन हो रहा है।

दुर्भाग्य से सर्वेक्षण ने दिखने वाली सफाई का सन्देश प्रसारित किया है और उन शहरों को नजरअन्दाज किया है जहाँ कूड़ा प्रबन्धन के टिकाऊ व्यवहार को अपनाया जा रहा है। सच्चाई यह भी है कि ज्यादातर शहर और कस्बे बहुत ज्यादा पूँजी निवेश और केन्द्रीकृत लैंडफिल मॉडल को वहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। यहाँ कम निवेश वाली नियमित व्यवस्था की जरूरत है। पैसा बनाने वाली अपशिष्ट प्रबन्धन व्यवस्था पैसा बहाने वाली नगर निगमों की व्यवस्था से बहुत बेहतर और टिकाऊ है। स्वच्छ सर्वेक्षण-2019 को इन बातों का ख्याल रखना होगा।

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