औद्योगिकीकरण, जनजातीय सरोकार और मीडिया

आदिवासी
आदिवासी

 

बात 5 नवम्बर, 2009 की है, जब 37 गैर-सरकारी संगठनों से जुड़े झारखण्ड के दूर-दराज के जनजातीय इलाकों से आए सैकड़ों आदिवासियों ने राँची रेलवे स्टेशन से लेकर राजभवन तक पैदल मार्च किया था। वे यहाँ विकास परियोजनाओं में न तो अपनी हिस्सेदारी की माँग करने के लिए आए थे और न ही उनकी मंशा राजनीतिक तकत बटोरने की थी। बल्कि वे लोग सैकड़ों कि.मी. का सफर तय करके झारखण्ड की राजधानी राँची में सरकार से अपनी जमीन पर अधिकार की माँग को लेकर यहाँ पहुँचे थे, यह ऐसी जमीन थी जो औद्योगिक अथवा खनन परियोजनाओं के चलते उनसे छीनी जा रही थीं।

वर्ष 2006 में वनवासी जनजातियों को भूमि अधिकार देने के लिए वनाधिकार अधिनियम बनाया गया था, जिस पर आज तक ठीक से अमल नहीं हो सका है। प्राकृतिक सम्पदा के बड़े पैमाने पर हो रहे दोहन के बावजूद, आज भी हमारे जंगलों में अकूत खनिज सम्पदा और जैव-विविधता भरी पड़ी है, जिस पर विदेशी कम्पनियों की नजरें गड़ी हुई हैं। औद्योगिक विस्तार के लिए ये कम्पनियाँ स्थानीय लोगों को उनके आवास और खेती-बाड़ी से बेदखल कर रही हैं। प्रस्तुत शोध-पत्र में इस बात को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि जागरुकता के प्रचार-प्रसार, विभिन्न मुद्दों पर जनस्वीकृति, जनमत निर्माण और नीति निर्धारण में मीडिया की भूमिका काफी अहम हो सकती हैउल्लेखनीय है कि इस घटना से ठीक एक दिन पहले प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने मुख्यमन्त्रियों के सम्मेलन में आदिवासियों की भूमि एवं वनाधिकार की रक्षा की अपील की थी। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि गत छह दशकों में भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था से आदिवासियों को कुछ हासिल हुआ तो वह शोषण, भेदभाव, वंचना एवं पीढि़यों से भूमि को जोतने और बोने से बेदखली के रूप में मिला है। आदिवासियों ने वनों के स्वाभाविक निवासी होने के नाते अपने अधिकारों की जब भी माँग की तो उसे सभी सरकारें खारिज करती रहीं और जब भी जनजातीय समुदायों ने स्वयं के परम्परागत वनवासी होने का दावा पेश किया तो उन्हें आधिकारिक तौर पर विभिन्न कानूनी प्रावधानों की आड़ में पेड़ों, नदियों, पहाड़ों और जंगली जानवरों का दुश्मन ठहराकर जंगल से बाहर खदेड़ने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी गई। इतने पर भी जब आदिवासियों ने अपनी जमीनों को तथाकथित विकास परियोजनाओं के लिए देने से इंकार कर दिया तो उन पर विभिन्न प्रकार के आपराधिक मामले दर्ज कर लिए गए और उन्हें अपने देश की ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था के रक्षक कही जाने वाली पुलिस की गोलियों का भी शिकार बनना पड़ा।

उपनिवेशवादी हुकूमत ने संसाधनों के दोहन के लिए जिस तरह का ढाँचा बनाया था, आजादी के बाद भी कानून एवं नीतियों की आड़ में संसाधनों की लूट का यह सिलसिला ठीक उसी तरह से चलता रहा। भारतीय संविधान ने औपनिवेशिक नीति का अनुसरण करते हुए जनजातीय इलाकों पर अधिकार शासन व्यवस्था को देकर वनों के स्वाभाविक निवासियों को उनके परम्परागत आवास से कानूनी तौर पर बेदखल कर दिया गया। बाद में जब संरक्षित वन और अभयारण्यों की अवधारणा का जन्म हुआ तो मामला और भी पेंचीदा हो गया। इस तरह वनोत्पादों पर परस्पर आश्रित समूचे जनजातीय समाज को हाशिये पर और गरीबी के दलदल में धकेल दिया गया, जहाँ न तो आजीविका थी, न आवास और न ही आत्मसम्मानपूर्ण एवं आत्म-निर्भर जीवन का अहसास ही बचा रह सका था।

जानी-मानी पर्यावरणविद सुनीता नारायण ने इस बात को भली-भाँति समझाया है। भारत के नक्शे पर सबसे पहले उन इलाकों को चिह्नित कीजिए जो सबसे अधिक खनिज और प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न हैं। फिर एक नक्शे पर ऊपर से नीचे की ओर नजर दौड़ाइए और उन जिलों को चिह्नित कीजिए जो देश के सबसे गरीब जिले हैं। फिर उन जिलों को चिह्नित कीजिए जहाँ सबसे अधिक औद्योगिक परियोजनाएँ, बड़े बाँध एवं सिंचाई परियोजनाएँ स्थापित की गई हैं। अन्त में पता चलेगा कि देश की सबसे गरीब आबादी वाले जिले वही हैं जो खनिज संसाधनों से सम्पन्न हैं। उद्योगीकरण और अन्य विकास परियोजनाओं ने भी यहीं पर अपनी जड़ें जमाई हैं।

सवाल यह है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद देश के सबसे सम्पन्न जिलों की आबादी सबसे गरीब, अशिक्षित, कुपोषित और पिछड़ी क्यों बनी हुई है? संविधान की धारा-342 के मुताबिक, अनुसूचित जनजातियाँ वे जनजातीय समुदाय हैं जिन्हें सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा उनके परम्परागत जीवन के संरक्षण, उत्थान के लिए और शोषण एवं भेदभाव से मुक्त रखने के लिए संविधान में सूचीबद्ध किया गया है। सवाल यह है कि क्या इस तरह के संवैधानिक प्रावधान के बावजूद जनजातीय समुदायों के मूल अधिकारों का संरक्षण सम्भव हो सका है? वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में अनुसूचित जनजातियों की आबादी आठ करोड़ 43 लाख है, जो पूरे देश की जनसंख्या के 8.2 प्रतिशत के बराबर है।

अगर इस बात का विश्लेषण किया जाए कि अब तक औद्योगीकरण, उत्खनन और बड़े बाँधों से जुड़ी परियोजनाओं ने आखिर स्थानीय निवासियों को दिया क्या है तो रोंगटे खड़े हो जाएँगे। अकेले बड़े बाँधों से तीन करोड़ से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें अधिसंख्य आबादी जनजातीय समुदायों की है। लाखों लोगों को अब तक इस कथित विकास की बेदी पर अपने घर, खेत-खलिहान और सामाजिक ताने-बाने की बलि चढ़ानी पड़ी है। झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ जैसे जनजातीय प्रदेशों की बात हो या फिर मामला हरसूद और टिहरी का हो। स्थानीय आबादी को इस कथित विकास की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। बड़ी संख्या में लोगों को निराश्रय होना पड़ा है। ऐसे में लोगों के जीवनयापन के स्रोत और मानव जीवन एवं उसके विकास की आधारभूत जरूरतें मसलन- भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, स्वच्छ पर्यावरण और सुरक्षित वातावरण भी ऐसे में छिन जाते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता रमणिका गुप्ता के मुताबिक- ‘‘औद्योगीकरण के नाम पर विस्थापन और विनाश की गाथा लिखी जा रही है। स्थानीय लोगों को उनके आवास से बेदखल करने वाला यह विकास आखिर किसके लिए है? इस विकास से न तो रोजगार मिलता है और न ही पुनर्वास, यदि कुछ मिलता है तो सिर्फ विस्थापन! दूसरी ओर राजनीतिज्ञ और कॉर्पोरेट कम्पनियाँ इस मामले पर जनता का विश्वास अर्जित नहीं कर पा रहे हैं। विडम्बना तो यह है कि कोई सामूहिक आन्दोलन भी नहीं खड़ा हो पा रहा है।’’

दूसरी ओर सरकार और संविधान ने भी अनुसूचित जनजातियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय की बात को स्वीकार किया है। वनाधिकार अधिनियम-2006 को इसी तरह के सवालों के जवाब के तौर पर ईजाद किया गया था। इसके बावजूद यह सवाल जस का तस बना हुआ है और इस अधिनियम का क्रियान्वयन अब भी अधर में लटका हुआ है।

 

 

औद्योगीकरण और नक्सलवाद के निहितार्थ


नक्सलवादियों का आरोप है कि सरकार कम्पनियों की पैरोकार बनकर औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जल, जंगल, जमीन और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की खुली छूट देने में जुटी हुई है। वर्ष 1990 की शुरुआत से भारत सरकार ने उदारीकरण की ओर कदम बढ़ाया। इसी के साथ जल, जंगल, जमीन ही नहीं ग्रामीण जलधाराएँ, चरागाह आदि वन सम्पदाओं पर बचे-खुचे जनाधिकारों और विशेष आर्थिक क्षेत्र, खनिज उत्खनन, औद्योगीकरण तथा सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र जैसे प्रकल्पों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष द्वंद्व शुरू हो गया। सरकार पर विकास के नाम पर औद्योगीकरण के प्रति उदारवादी रवैया अपनाने के आरोप लगते रहे हैं। क्या कारण है कि सरकार अब तक विस्थापन और पुनर्वास से जुड़ी कोई ठोस नीति नहीं बना पाई है! बाँध निर्माण, सिंचाई परियोजनाएँ, बिजली उत्पादन, सेज और औद्योगीकरण को विकास की अनिवार्य आवश्यकता के तौर पर महिमामण्डित किया जाता है। इसी धारणा का प्रचार-प्रसार करते हुए औद्योगिक समूह और विनिर्माण क्षेत्र दशकों से चाँदी कूटते रहे हैं।

सरकार विस्थापन एवं पुनर्वास से जुड़ी कोई ठोस नीति तो नहीं बनाती, लेकिन उद्योग जगत को जनता द्वारा चुकाये गए करों के पैसे से तमाम तरह की सब्सिडी देकर निर्यात वृद्धि का मार्ग प्रशस्त करना चाहती है। सवाल यह है कि इस निर्यात वृद्धि से कालाहाँडी या फिर बस्तर के जनजातीय समुदाय को क्या लाभ मिलेगा? सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय का कथन उल्लेखनीय है कि- ‘‘खनिजों से समृद्ध जनजातीय क्षेत्रों में औद्योगिक परियोजनाओं के लिए लोगों के मशविरे के बिना जरूरत से ज्यादा भूमि ली जा रही है।’’ पिछले कुछेक वर्षों के दौरान छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने कॉर्पोरेट घरानों के साथ कई खरब डॉलर के सैकड़ों समझौतों पर दस्तखत किए हैं। इनमें स्टील प्लाण्ट, स्पंज आयरन फैक्टरी, पावर प्लाण्ट, एल्युमीनियम रिफाइनरी, बाँधों और खदानों के लिए सैकड़ों एमओयू प्रदेश सरकारों ने किए हैं। इन परियोजनाओं को विकास का कीर्ति-स्तम्भ बताया जाता है, जो शायद 10 फीसदी की विकास दर हासिल करने के सरकार के लक्ष्य में मददगार साबित हो सकती हैं।

निश्चित तौर पर इस तरह के आँकड़ों से सरकार का रिपोर्ट-कार्ड बेहतर बनता है, भले ही जमीनी स्तर पर किसी को फायदा न हो। शायद तभी केन्द्र सरकार इन परियोजनाओं की स्थापना के लिए पूँजीपतियों को करों में रियायत देती है। कर्नाटक के लोकायुक्त की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक निजी कम्पनी द्वारा खोदे गए एक टन लौह अयस्क के लिए सरकार को 27 रुपए की रॉयल्टी मिलती है जबकि खनन कम्पनी 5000 रुपए का मुनाफा कमाती है। बॉक्साइट और एल्युमीनियम के क्षेत्र में और भी अधिक बुरे हालात बताए जाते हैं। मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरून्धती रॉय के मुताबिक- ‘‘ये अरबों डॉलर की दिनदहाड़े लूट की दास्तानें हैं, जो चुनावों, सरकारों, जजों, अखबारों, टी.वी.चैनलों, एनजीओ और अनुदान एजेंसियों को खरीद लेने के लिए काफी है।’’

हालाँकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नक्सलवाद औद्योगिक साम्राज्यवाद के प्रतिरोध को जायज ठहराते हुए कहीं न कहीं अपने अस्तित्व को ‘‘जस्टीफाई’’ करने का प्रयास करता है। इसके लिए जनजातीय जनसरोकारों की आड़ ली जाती है और स्थानीय लोगों को ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। लोगों के बीच अपनी प्रासंगिकता को स्थापित करने के लिए नक्सलवाद कथित भ्रष्ट लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बन्दूक के दम पर चुनौती देने की बात करता है और बन्दूक की नोक पर सत्ता एवं व्यवस्था को परिवर्तित करने की बात की जाती है। क्या यह भारत के संविधान और लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चुनौती नहीं है? संवैधानिक नजरिये से यह निश्चित तौर पर एक चुनौती है और सशस्त्र आन्दोलन की इजाजत हमारा संविधान नहीं देता। नक्सलवादी अपनी लड़ाई गुरिल्ला युद्ध के रूप में लड़ रहे हैं। गुरिल्ला युद्ध के तहत स्थानीय लोगों को ढाल बनाया जाना कोई नई बात नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब लोकतान्त्रिक व्यवस्था को चुनौती मिलती है, तो उस चुनौती के खि़लाफ सैन्य कार्रवाई करना राजसत्ता की बाध्यता हो जाती है। इस तरह से एक अन्तहीन टकराव एवं हिंसा का जन्म होता है, जिसके बीच स्थानीय बेगुनाह समुदाय को पिसना पड़ता है। हालाँकि सुनीता नारायण का कहना है कि हमने अभी तक प्राकृतिक संसाधनों के विकास का मॉडल तैयार ही नहीं किया। तो क्या ये टकराव उसी की देन है? जो भी हो, संविधान और लोकतान्त्रिक मूल्य अधिक महत्वपूर्ण हैं। इसलिए नक्सलवाद को तो कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता।

जनजातीय इलाकों में जिस नक्सलवाद को आदिवासियों के अस्तित्व की लड़ाई और अपने वजूद को बनाए रखने के लिए प्रतिरोध की संस्कृति के तौर पर महिमामण्डित किया जा रहा है, उस पर भी सवाल उठाए गए हैं। गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता पी.वी. राजगोपाल के मुताबिक- ‘‘उद्योग समूह अपने बचाव के लिए नक्सलियों को धन दे रहे हैं, जिससे नक्सली असलहा खरीदते हैं। नक्सलियों ने एक भी उद्योगपति को नुकसान नहीं पहुँचाया, जबकि सरकार की मदद से विशाल भू-भागों पर कब्जा करने में यही तबका सबसे आगे है। राजनीतिज्ञों को भी उद्योग जगत से धन मिलता है, इसलिए वे भी चुप हैं।’’ पी.वी. राजगोपाल की बात से तो यही कहा जा सकता है कि उद्योगपतियों के साथ राजनीतिज्ञों और नक्सलियों दोनों का ही स्वार्थपरक मूक समझौता रहता है। एक तरफ तो नक्सलवादी गरीब एवं पिछड़े जनजातीय समुदाय के साथ ऐतिहासिक अन्याय का हवाला देकर औद्योगीकरण एवं विकास परियोजनाओं का विरोध करते हैं, दूसरी ओर वही नक्सली अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए यदि उद्योगपतियों से गुपचुप हाथ मिलाकर कार्य कर रहे हों, तो कोई बड़ी बात नहीं है। राजगोपाल की बात पर गौर करें, तो सवाल यह भी खड़ा होता है कि कहीं औद्योगीकरण का यह छद्म विरोध धन उगाही की रणनीति का हिस्सा तो नहीं है? नक्सल आन्दोलन के लोकतान्त्रिक व्यवस्था के खि़लाफ सशस्त्र संघर्ष को देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए खतरे के रूप में प्रतिस्थापित करने के लिए क्या ये तथ्य पर्याप्त नहीं हैं जिसमें जनजातीय समुदायों को बरगला कर आपस में ही टकराव को जन्म दिया जाता है और फिर बन्दूक के दम पर सत्ता हासिल करने अथवा प्राकृतिक संसाधनों पर वर्चस्व के उद्देश्य को अंजाम दिया जाता है।

 

 

 

 

अनुसूचित जनजातियों पर औद्योगीकरण का प्रभाव और
मीडिया की भूमिका


यह कार्पोरेट साम्राज्यवाद का युग है और कार्पोरेट जगत अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए राजनीतिक और रणनीतिक ‘मोलभाव’ का ‘व्यवस्थित’ उपयोग करना बखूबी जानता है। साम्राज्यवाद की यह अन्धी दौड़ उपनिवेशवाद का एक छद्म रूप भी है, जहाँ वर्चस्व स्थापित करने की परस्पर होड़ कम्पनियों में लगी रहती है। वर्तमान वैश्विक युग में कार्पोरेट जगत दुनिया के हर उस पहलू पर अपना आधिपत्य जमा लेना चाहता है, जो उसके व्यावसायिक हितों को पूरा करता हो। भूलना न होगा कि किसी भी कार्य को अंजाम देने में जनस्वीकृति की आवश्यकता होती है। मीडिया उस जनस्वीकृति को हासिल करने का वाहक बनता है। अपने काम को ‘जस्टीफाई’ करने के लिए सरकार, नक्सलवाद और औद्योगिक समूह तीनों ही मीडिया का सहारा लेते हैं। इस तरह तीन ‘प्रेशर ग्रुप’ एक साथ मीडिया में हस्तक्षेप करते हैं, जिससे एक ही मुद्दे के तीन पक्ष मीडिया में देखने को मिलते हैं। इस तरह बहुत ही कम मामलों में मीडिया उदारवादी छवि प्रस्तुत कर पाता है।

औद्योगिक समूहों से विज्ञापन प्राप्त करने की एवज में मीडिया संस्थान औद्योगिक इकाइयों की स्थापना से रोजगार सृजन, समृद्धि और आर्थिक बेहतरी के ‘भ्रमजाल’ के सपनों से भरे विचारों को पेश करते हैं। ऐसी स्थिति में मीडिया संस्थान यह स्थापित करने में जुट जाते हैं कि औद्योगीकरण से ही विकास सम्भव है, इसलिए स्थानीय ग्रामीणों को महत्वाकांक्षी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जमीन देने से नहीं हिचकिचाना चाहिए। सरकार भी औद्योगिक विकास एवं निर्यात से आर्थिक तरक्की का सपना देखती है लेकिन पुनर्वास और भूमि के पर्याप्त मुआवजे के लिए कोई कारगर नीति सरकार के पास नहीं है। जमीन मानवाधिकारों को पुष्ट करने का संसाधन भर नहीं है, बल्कि इससे जुड़े संविधान प्रदत्त अन्य अधिकार मसलन—भोजन, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, शान्तिपूर्ण जीवनयापन भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। यह विडम्बनापूर्ण है कि मीडिया में जनमुद्दों का स्थान अब स्वार्थपरक प्रोपेगेंडा ने ले लिया है।

कभी नक्सलवाद, तो कभी औद्योगिक साम्राज्यवाद से जुड़े निहितार्थ जनसरोकारों पर भारी पड़ने लगे हैं, जिसका सीधा असर मूल निवासियों के जीवनयापन पर पड़ रहा है और उन्हें जल, जंगल, जमीन जैसे बुनियादी संसाधनों से वंचित किया जा रहा है। सरकार की गलत नीतियों के कारण लगभग 8 लाख एकड़ भूमि से आदिवासियों का अधिकार छिन गया। विस्थापन की सबसे बड़ी मार आदिवासियों पर पड़ी है। प्राकृतिक संसाधनों के लिए आज होड़ मची हुई है और उस पर अधिकार के निर्धारण में मीडिया की भूमिका अहम साबित होती है। नीतियों के निर्माण की जमीन तैयार करने से लेकर जनस्वीकार्यता हासिल करने में मीडिया एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करता है। परेशानी तब होती है, जब औद्योगिक साम्राज्यों के प्रतिनिधि अपने प्रभाव और पूँजी की बदौलत प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार कायम कर लेते हैं।

वंचित समुदाय के भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता पी.वी. राजगोपाल कहते हैं कि- ‘‘आज संसद में भी उद्योगपति बैठे हुए हैं, जिनसे गरीबों के हितों की वकालत करने की उम्मीद करना बेमानी लगता है, वे तो सिर्फ अपने औद्योगिक साम्राज्य के विस्तार के लिए जरूरी ‘पॉलिसी सपोर्ट’ पाने के लिए बिसात बिछाने में जुटे रहते हैं। इसके परिणामस्वरूप जल, जंगल और जमीन पर समुदाय के अधिकार छिन जाते हैं। संसद में उद्योगपतियों के पैरोकार हैं, विभिन्न जातियों एवं धर्मों के कथित रहनुमा हैं, लेकिन गरीबों की बात करने वाले सांसद गिने-चुने ही हैं। ऐसे में मीडिया और न्यायपालिका पर ही वंचित समूहों की आस टिकी हुई है। विडम्बना यह है कि ज्यादातर मीडिया संस्थान भी राजनीतिक रसूखदारों के हैं या फिर उनमें उद्योगपतियों का पैसा लगा हुआ है। इस तरह के कॉर्पोरेट मीडिया पर भी पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं।’’

 

 

 

 

निष्कर्ष


बात चाहे जल, जंगल, जमीन और पर्यावरण की सुरक्षा की हो, या फिर मामला पूँजीपतियों एवं प्रभावशाली लोगों द्वारा महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की कवायद से जुड़ा हो, मीडिया दोनों स्थितियों में ‘‘ओपिनियन मेकिंग’’ यानी जनमत निर्माण का काम करता है। लेकिन जब मीडिया भी उन्हीं लोगों के हाथों में हो, जो संसाधनों की होड़ में जुटे हैं, तो मीडिया की निष्पक्षता और वंचितों के अधिकार हाशिए पर चले जाते हैं। बड़े मीडिया घरानों पर दोष मढ़ने से काम नहीं चलेगा कि वे जनसरोकारों से जुड़ी पत्रकारिता से परहेज करते हैं। बल्कि ब्लॉक अथवा ग्राम स्तर पर छोटे-छोटे सामुदायिक ‘क्लस्टर‘ बनाकर जनसहभागिता पर आधारित पत्रकारिता का मॉडल खड़ा करने की जरूरत है, क्योंकि वैकल्पिक मीडिया की ईमानदार एवं प्रतिबद्ध चुनौती ही बाजार में टिके रहने के लिए कॉर्पोरेट मीडिया को भी जनमुद्दों पर आधारित रिपोर्टिंग के लिए अपनी रणनीतियों में बदलाव के लिए प्रेरित कर सकती है।

को-ऑपरेटिव मीडिया के छोटे-छोटे मॉडल भी कारगर हो सकते हैं। इस काम में गैर-सरकारी संगठनों और पत्रकारिता एवं जनसंचार से जुड़े अकादमिक संस्थानों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित होगी। अकादमिक संस्थान इसके लिए पृष्ठभूमि तैयार करने में मदद कर सकते हैं। शोधकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, गैर-सरकारी संगठनों और संवेदनशील पत्रकार भी इस काम में अपना योगदान दे सकते हैं। ताकि लोगों को उनके मूल निवास से न उजाड़ा जाए, उनके सामूहिक व स्वायत्त जीवन को सम्मान दिया जाए और उनके क्षेत्र के नियोजन में उनकी भलाई को ही सबसे ऊपर रखा जा सके लेकिन यह तब तक सम्भव नहीं हो सकता, जब तक कि निर्णय प्रक्रिया में समुदाय की भागीदारी न हो। हालाँकि पंचायती राज व्यवस्था और स्थानीय निकायों में निर्णय प्रक्रिया में जनभागीदारी को विशेष महत्व दिया गया है लेकिन इन अधिकारों के बारे में लोगों को बहुत अधिक जागरुकता नहीं होने से समस्या हो रही है। मीडिया लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर सकता है, जिससे संसाधनों की लूट को रोकने में मदद मिल सकती है और मूल निवासियों को अपने नैसर्गिक आवास से बेदखल भी नहीं होना पड़ेगा।

(उमाशंकर मिश्र पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, वर्धमान महावीर ओपन यूनिवर्सिटी, कोटा, राजस्थान में शोधार्थी हैं एवं लेखक सुबोध कुमार इसी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
ई-मेल: umashankarm2@gmail.com, skumar@vmou.ac.in

 

 

 

 

 

 

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