औषधीय पौधे : एक बहुमूल्य धरोहर

18 Jun 2015
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पेड़-पौधे हमारे शरीर में होने वाली बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए हमें बहुत कुछ दे सकते हैं। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही मनुष्य ने तरह-तरह के पेड़-पौधों का उपयोग किया है अपने-आप को बीमारियों से सुरक्षित रखने के लिए। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही इस विज्ञान ने भी तरक्की किया। यही कारण है कि प्राचीन की जितनी भी विकसित सम्यताएँ थी उन सभी में औषधीय पौधों के उपयोग की सबल परम्परा थी।वर्तमान समय में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने कभी भी एस्पीरीन (aspirin) का सेवन नहीं किया हो और काफी बड़ी संख्या में हमें ऐसे लोग मिल सकते हैं अपने आसपास ही जो एस्पीरीन का उपयोग बराबर करते हैं। एस्पीरीन उनके लिए जीवन का एक अंग है। परन्तु बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि इस दवाई की खोज में बोटैक्स सालाएस नाम के वृक्ष ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लगभग 400 वर्ष ईसा पूर्व में भी रोम तथा ग्रीस (यूनान) के लोगों को इस तथ्य का ज्ञान था कि इस वृक्ष की छाल में ऐसे गुण थे कि वह दर्द को समाप्त करता था, ज्वर को कम करता था। 19वीं शताब्दी में उस रासायनिक पदार्थ की पहचान हो सकी जिस कारण उस वृक्ष के छाल में वह गुण होता था। उस रासायनिक पदार्थ को ‘सेलीसीन’ (salicin) नाम दिया गया। आगे चलकर उसी रासायनिक पदार्थ के कारण एस्पीरीन का आविष्कार सम्भव हो सका। वैसे अब एस्पीरीन का उत्पादन रासायनिक विधि से किया जाता है।

इसी प्रकार ‘मोरफिन’ नामक रसायन का इतिहास भी अत्यन्त रोचक है। 9वीं सदी में भी अफीम का उपयोग दर्द को समाप्त करने तथा बेहोशी पैदा करने के लिए किया जाता था। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में उस रासायनिक पदार्थ की पहचान हो सकी जिसके कारण अफीम के पौधे में वह गुण थें। उस पदार्थ का नाम ‘मोरफिन’ (morphine) है। आज भी मोरफिन का उपयोग चिकित्सा विज्ञान में होता है। दर्द की अधिकता की अवस्था में इसी प्रकार ‘सिनकोना’ (quinine) जिसे वैज्ञानिक भाषा में cynchona cahisaya के नाम से जाना जाता है, उसका इतिहास भी अत्यन्त रोचक है। 17वीं शताब्दी में यह ज्ञात हुआ कि इस वृक्ष की छाल के उपयोग से मलेरिया जैसी खतरनाक बीमारी से छुटकारा मिल सकता है। 19वीं शताब्दी में उस रसायन की पहचान हो सकी जिसकी उपस्थिति के कारण मलेरिया समाप्त होता था। उस रसायन को कुईनीन (Quinine) का नाम मिला। आज भी इसी रसायन का तथा इससे बने दूसरे रसायनों का उपयोग पूरे संसार में होता है मलेरिया के उपचार के लिए।

इसी सम्बन्ध में एक रसायन जिसे ‘टैक्सोल’ का नाम दिया गया है। इसका इतिहास बहुत पुराना नहीं है। 1992 में इस रसायन का उपयोग आरम्भ हो गया था महिलाओं के प्रजनन से सम्बन्धित कैंसर के उपचार के लिए। फिर 1994 में ‘टैक्सोल’ के उपयोग को अनुमति मिली स्तन कैंसर के उपचार के लिए। इस समय टैक्सोल का उत्पादन यूनो या बिरमी (Common Yew), जिसका वैज्ञानिक नाम Taxus baccata है, उसकी पत्तियों में होता है। इन पत्तियों में एक रसायन होता है जिसे रासायनिक विधि से टैक्सोल में बदला जा सकता है। सदाबहार नामक पौधा (Periwinkle) जिसका वैज्ञानिक नाम कैथेरेंथस रोजियस (Catharanthus Roseus) है, हर जगह बहुत आसानी से मिल जाता है। भारत में लगभग सभी उद्यान में तथा घरों में इसे लगाया जाता है। इस पौधे की पत्तियों में विनबलास्टीन (Vinblastine) तथा विनक्रीसटीन (Vincristine) नाम के रसायनिक पदार्थ होते हैं। इन दोनों रसायनों में ऐसे गुण है कि वह कोशिकाओं के विभाजन को रोक देते हैं। इस कारण कैंसर की रोकथाम में इनका तथा इनसे बनाए गए रसायनों का बड़ा योगदान होने की सम्भावना है।

एक और उदाहरण मैं देना चाहूँगा। एक बहुत ही साधारण पौधा है ‘भुई आमला’ जिसका वैज्ञानिक नाम है Phyllanthus Amarus. अमेरिका के एक मशहूर वैज्ञानिक डॉ. वी.एस. ब्लूमबर्ग को इस पौधे के विषय में उनके भारत दौरे के समय जानकारी प्राप्त हुई थी। इस पौधे का उपयोग भारत में सदियों से होता रहा है जिगर (Liver) सम्बन्धी बीमारियों के उपचार के लिए तथा पीलिया में भी। डॉ. ब्लूमबर्ग ने अपने शोध से यह सिद्ध किया कि भुई आमला का उपयोग हेपटाइटिस-बी (Hepatitis B) जैसी अत्यन्त खतरनाक बीमारी के उपचार के लिए सफलतापूर्वक हो सकता था और उन्होंने इस पौधे से सम्बन्धित दो पेटेण्ट भी अपने नाम किया है।

ऊपर के कुछ गिने-चुने उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि पेड़-पौधे हमारे शरीर में होने वाली बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए हमें बहुत कुछ दे सकते हैं। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही मनुष्य ने तरह-तरह के पेड़-पौधों का उपयोग किया है अपने-आप को बीमारियों से सुरक्षित रखने के लिए। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही इस विज्ञान ने भी तरक्की किया। यही कारण है कि प्राचीन जितनी भी विकसित सभ्यताएँ थी उन सभी में औषधीय पौधों के उपयोग की सबल परम्परा थी, चाहे मिस्र हो, यूनान हो, बेबीलोन की सभ्यता हो, चीन हो या सिन्धु घाटी की सभ्यता हो। सभी के साथ कुछ ऐसा अवश्य था कि उन्होंने अपनी अलग परम्परा विकसित कर ली थी। स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से निपटने के लिए उन परम्पराओं में औषधीय पौधों का महत्त्वपूर्ण स्थान था।

भारत विश्व के गिने चुने देश में से है जिन्हें उच्च जैव विविधता वाले देश का दर्जा दिया जाता है। इसका कारण है कि भारत में अनेक प्रकार के जीव पाये जाते हैं जिनमें वनस्पति तथा पशु दोनों ही हैं। इन दोनों में भारत अत्यधिक सम्पन्न है और बहुत सारे पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षी ऐसे हैं जो केवल भारत में ही होते हैं। तरह-तरह के पेड़-पौधों में ऐसे पेड़-पौधे भी हैं जिनमें औषधीय गुण होते हैं। इनका उपयोग भारत में सदियों से होता रहा है।भारत को इस सम्बन्ध में एक खास स्थान प्राप्त है। भारत विश्व के गिने चुने देश में से है जिन्हें उच्च जैव विविधता वाले देश का दर्जा दिया जाता है। इसका कारण है कि भारत में अनेक प्रकार के जीव पाये जाते हैं जिनमें वनस्पति तथा पशु दोनों ही हैं। इन दोनों में भारत अत्यधिक सम्पन्न है और बहुत सारे पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षी ऐसे हैं जो केवल भारत में ही होते हैं। तरह-तरह के पेड़-पौधों में ऐसे पेड़-पौधे भी हैं जिनमें औषधीय गुण होते हैं। इनका उपयोग भारत में सदियों से होता रहा है। आज भी भारत में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो सीधे जड़ी-बूटियों से अपनी बीमारियों का इलाज करते हैं या ऐसी दवाओं का उपयोग करते हैं जिनका आधार जड़ी-बूटियाँ हैं।

इस समय भारत में लोक परम्परा के अतिरिक्त चार ऐसी औषधीय प्रणालियों का चलन है जिनमें औषधीय पौधों का उपयोग आवश्यक है। यह पद्धतियाँ हैं- आयुर्वेद, यूनानी, सिद्धा तथा तिब्बतन। भारत सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण (ऑल इण्डिया को-ऑर्डिनेटेड रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन एथ्नो-बायोलॉजी) से यह तथ्य सामने निकलकर आया था कि लगभग 8000 पेड़-पौधे हैं भारत में जिनका उपयोग औषधीय गुणों के लिए होता है। आयुर्वेद में लगभग 1800, सिद्धा में लगभग 1100, यूनानी में लगभग 750, तिब्बती विधि में 300 के लगभग तथा लोक परम्परा में लगभग 4700 प्रकार के पेड़-पौधों के उपयोग की परम्परा वैज्ञानिक परम्परा पर आधारित रही है। आयुर्वेद, सिद्धा, तिब्बती तथा यूनानी से सम्बन्धित पुस्तकों में लगभग 2000 प्रकार के पेड़-पौधों के गुणों का विस्तार से विवरण है। 50000 से अधिक ऐसे नुस्खों का प्रचलन भारत में है जिनका उपयोग तरह-तरह की बीमारियों के इलाज के लिए होता है।

इन सबके अतिरिक्त औषधीय पौधों से सम्बन्धित उद्योग ने भी भातर में काफी तरक्की की है। इस समय इस उद्योग की वार्षिक बढ़ोत्तरी दर लगभग 420000 लाख रुपए का है और अनुमान है कि वार्षिक बढ़ोत्तरी दर लगभग 20 प्रतिशत है। उद्योग के कुल उत्पादन का बहुत बड़ा भाग निर्यात होता है और इस प्रकार देश को बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। इन सबके पीछे का एक बड़ा कारण है कि लोग अब यह मानते हैं कि जड़ी-बूटियों से तैयार दवाईयों से नुकसान की सम्भावना बहुत कम या नहीं के बराबर है तथा इन दवाओं की आदत नहीं पड़ती। एण्टीबॉयोटिक्स का जब अविष्कार हुआ तो यह माना जाने लगा था कि मनुष्य की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ जल्द ही समाप्त होने वाली है। परन्तु शीघ्र ही यह सपना टूट गया। कारण था कि बीमारी उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं ने एण्टीबॉयोटिक्स के विरुद्ध जीवित रहने का गुण अपने भीतर अर्जित करना शुरू कर दिया। यही कारण है कि अगर हम जल्दी-जल्दी एण्टीबॉयोटिक्स का सेवन करें तो पाते हैं कि अगली बार वह औषधि कारगर नहीं रह जाती। हमें या तो खुराक बढ़ानी पड़ती है या अधिक घातक एण्टीबॉयोटिक्स लेना पड़ता है। इसका प्रतिकूल प्रभाव हमारे शरीर पर होता है। यही कारण है कि पश्चिमी देशों में भी लोग परम्परागत औषधीय प्रणालियों की ओर वापिस आ रहे हैं और भारत, चीन, थाईलैण्ड जैसे देश से औषधीय पेड़-पौधों तथा तैयार औषधियों का निर्यात तेजी से बढ़ रहा है। ऐसा अनुमान है कि वर्तमान में विश्व स्तर पर लगभग 8800 लाख डॉलर का व्यापार इस प्रकार की सामग्री का होता है। इसमें भारत की भागीदारी ज्यादा बड़ी तो नहीं है परन्तु अच्छी-खासी है। इस व्यापार में चीन सबसे आगे है।

औषधीय पेड़-पौधों का बढ़ता उपयोग तथा व्यापार देश की आर्थिक स्थिति के लिए लाभदायक है। परन्तु इस कारण एक समस्या उत्पन्न हुई है। समस्या है कि अनेक प्रकार के औषधीय पेड़-पौधे विलुप्तावस्था में पहुँच गए हैं। कारण है इनकी कटाई बिना इस तथ्य को ध्यान में रख कर हो रही है कि बढ़ते उपभोग का उनके बचे रहने पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इस समय देश में जितने औषधीय पेड़-पौधों का उपयोग होता है उसमें से लगभग 90 से 95 प्रतिशत वनों से प्राप्त होता है। बहुत कम मात्रा है जो खेती से आती है। जहाँ तक वनों का सम्बन्ध है तो स्वयं वनों का क्षेत्रफल समय के साथ देश में कम हुआ है। इस समय देश में लगभग 19 प्रतिशत क्षेत्र में वन हैं और इसमें भी काफी बड़ा भाग है जो अच्छी हालत में नहीं है। ऐसी स्थिति में औषधीय पौधों का बढ़ता दोहन ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है कि शीघ्र ही अनेक प्रकार के औषधीय पौधे पूरी तरह लुप्त हो जाएँ। इनमें जंगली मदन मस्त का फूल (Cycas cireinalis), चम्प (Michelia Champaca), पिपली (Piper Longum), सर्पगन्धा (Rauvotia Serpentina), चन्दन (Santalum Album), अशोक या आमपीच (Saraca Asoca) इत्यादि शामिल हैं। वलाक (Plectranthus Vettiveroides) का उल्लेख इस सम्बन्ध में आवश्यक है। यह पौधा पूरी तरह विलुप्त हो चुका है।

ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि इस धरोहर को बचाने के लिए प्रयास किया जाए। इस क्षेत्र में काफी कुछ हो रहा है। उदाहरण के लिए देश में वनों के बड़े क्षेत्र को सुरक्षित कर दिया गया है ताकि वहाँ उपस्थित पेड़-पौधे तथ पशु-पक्षी को पूरी सुरक्षा मिले। उनत्तीस प्रकार के ऐसे पेड़-पौधे हैं जिनके निर्यात पर खास तरह से प्रतिबन्ध लगाया गया है। अधिक उपयोग में आने वाले औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। वनों के अन्दर ऐसे क्षेत्र जहाँ औषधीय पौधे अधिक हैं उन्हें एक खास दर्जा देकर सुरक्षित किया जा रहा है। इन्हें औषधीय पौधे सुरक्षित क्षेत्र का नाम दिया गया है। इन सबके अतिरिक्त एक अधिनियम भी भारत सरकार ने जारी किया है। इसे “जैवविधिता अधिनियम 2002” का नाम दिया गया है। परन्तु इस सबके बाद भी इस धरोहर को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक है कि अधिक कारगर कदम उठाए जाएँ तथा आम लोगों को इस शुभ कार्य में शामिल किया जाए।

(निदेशक, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, पर्यावरण भवन सी.जी.ओ. काम्पलेक्स, नई दिल्ली)

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