बाढ़ : नदी प्रबंधन ही है एकमात्र हल

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बीते दिनों देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई भीषण बारिश के चलते थम गई। मूसलाधार बरसात से जहाँ शहर और आस-पास के इलाकों में भारी जल भराव हुआ, वहीं सड़क, रेल और वायु परिवहन बुरी तरह प्रभावित हुआ। इसमें मीठी नदी के जलस्तर में हुई बेतहाशा बढ़ोतरी से आई बाढ़ ने स्थिति को और भयावह बनाने में अहम भूमिका निभाई। रही सही कसर अरब सागर में उठे ज्वार ने पूरी कर दी। नतीजतन मुंबई की सड़कें पानी से डूब गईं। रास्ते जलभराव से जाम हो गए। बसें, कारें और दुपहिए वाहन सड़कों पर कई-कई फीट भरे पानी में फँस गए। तकरीब 25 से अधिक रास्तों को यातायात के लिये बंद तक करना पड़ा।

पूर्वी, पश्चिमी एक्सप्रेस वे, सायन-पनवेल राजमार्ग जहाँ सड़कों पर भरे पानी के चलते जाम रहा, वहीं परेल और सायन जैसे इलाके पानी से लवालब हो गये। सभी तीनों रेलवे लाइनों यथा पश्चिम, मध्य एवं हार्बर लाइन पर पानी भर जाने से जहां ट्रेनों का परिचालन बाधित रहा, वहीं छत्रपति शिवाजी अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से विमानों का भी परिचालन बंद करना पड़ा। कुछ उड़ानों को रनवे से ही वापस बुलाना पड़ा जबकि कुछेक का मार्ग बदलना पड़ा। कुछ ट्रेनों को रद्द करना पड़ा। इससे यात्रियों को तो परेशानी उठानी पड़ी ही, मुंबई वासियों का जीना हराम हो गया। सड़कों में भरे पानी में करंट ना दौड़े, इसलिए बिजली बंद करने से स्थिति और बदतर हो गई। अस्पताल तक इससे अछूते नहीं रहे। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि राज्य के मुख्यमंत्री तक को नागरिकों से सुरक्षित स्थानों पर जाने की अपील करनी पड़ी।

दरअसल देश में बाढ़ की समस्या का आजतक समाधान निकाल पाने में हमारी सरकारें नाकाम रही हैं। हर साल आने वाली बाढ़ का सामना कमोबेश देश का अधिकांश हिस्सा करता है। बीते तीस-पैंतीस सालों का जायजा लें तो पता चलता है कि इस दौरान देश में सवा चार अरब के करीब लोग बाढ़ की विभीषिका के शिकार हुए हैं। विडम्बना यह है कि इसको रोकने का ढिंढोरा तो हर साल पीटा जाता है, बाढ़ नियंत्रण विभाग भी अपनी मुस्तैदी का दावा करता है। बाढ़ आने से पहले ही हरेक साल बाढ़ रोकने के नाम पर करोड़ों की राशि खर्च भी की जाती है लेकिन होता कुछ नहीं। बाढ़ आने पर हर साल की तरह नेताओं द्वारा बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का हवाई सर्वेक्षण किया जाता है, केन्द्र से राहत के पैकेज की मांग की जाती है, बाढ़ पीड़ितों को हेलीकॉप्टर द्वारा खाने के पैकेट पहुँचाने का काम होता है, राहत सामग्री का वितरण किया जाता है, वह बात दीगर है कि वह कितनों तक पहुँच पाती है। यह जगजाहिर है लेकिन यह शोध का विषय जरूर है। यह भी सच है कि इसमें हजारों करोड़ों की राशि हर साल खर्च भी की जाती है। यह सिलसिला आजादी के बाद से आजतक बदस्तूर जारी है।

इस साल बाढ़ ने बिहार, असम, पूर्वी उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड और त्रिपुरा में कहर बरपाने में कसर नहीं छोड़ी है। उत्तर प्रदेश और बिहार में बाढ़ से हाहाकार है। यहाँ हालात बेकाबू हैं। एक करोड़ से अधिक आबादी बाढ़ में फँसी है। नेपाल की बारिश ने कोसी-सीमांचल व उत्तर बिहार को तबाह कर दिया है। असम में भी स्थिति भयावह है। बाढ़ ने हजारों जिंदगियाँ दुश्वार कर दी हैं। जन-जीवन बेहाल है। लोग जान जोखिम में डाल कहीं नाव का सहारा ले रहे हैं तो कहीं तार पर लटकी ट्रॉली से रास्ता पार करवाया जा रहा है। हजारों घर तबाह हुए हैं। करोड़ों का नुकसान खेती बर्बाद होने से हो गया है। लोगों को जान बचाने की खातिर घर-सामान-मवेशी सब कुछ छोड़ना पड़ा है।

बाढ़ से हुई मौतों का आंकड़ा भी तकरीबन पाँच सौ के पार पहुँच चुका है। ऐसे हालात में मवेशियों की मौत का आंकड़ा मिलना बहुत मुश्किल है। सच यह है कि इसमें जान के साथ-साथ करोड़ों -अरबों की राशि का हर साल नुकसान होता है। हजारों जीव-जंतुओं की जान जाती है, जैवविविधता और बहुमूल्य वनस्पतियों का विनाश होता है सो अलग। दुख इस बात का है कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं है। जबकि बाढ़ से होने वाली तबाही हर साल बढ़ती ही जा रही है। बीते साल इसके जीते-जागते सबूत हैं।

इसका प्रमुख कारण जंगलों के अंधाधुंध कटान के कारण बारिश के चक्र का बदलना है। इस बारे में इंटरडिसिप्लीनेरी प्रोग्राम इन क्लाइमेट स्टडीज आई आई टी मुंबई के प्रोफेसर सुबिमल घोष की मानें तो देश में कुल होने वाली बारिश में आई कमी का मुख्य कारण जंगलों के बेतहाशा कटान से बारिश के चक्र में आया बदलाव है। यदि आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि 1880 से लेकर 2013 तक देश के वनक्षेत्र में 40 फीसदी से भी अधिक की कमी आई है। इससे देश में कहीं औसत से ज्यादा बारिश हो रही है तो कहीं औसत से भी काफी कम। निष्कर्ष यह कि वनों के क्षेत्रफल में गिरावट ने सीधे-साधे मौसम पर बुरा असर डाला है। विडम्बना देखिए कि हालात की भयावहता के बावजूद हमारे केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू का कहना है कि बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करना समस्या का समाधान नहीं है।

अब जरा ‘एशियाई विकास बैंक और पोस्ट-डैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च’ की रिपोर्ट पर नजर डालें। इसमें कहा गया है कि अगले 30 सालों में दक्षिण एशिया में 20 फीसदी बारिश बढ़ जायेगी। इसकी प्रमुख वजह जलवायु परिवर्तन है। इसके चलते जिस तरह इस साल चीन, भारत और बांग्लादेश में बारिश ने कहर बरपाया है, उसका दुष्परिणाम है कि इन देशों के तकरीब 13.7 करोड़ लोग आज रोजी-रोटी के संकट से जूझ रहे हैं। आने वाले सालों में हालात और भयावह होंगे। रिपोर्ट के अनुसार इस भौगोलिक क्षेत्र की ज्यादातर नदियाँ ग्लेशियरों पर 80 फीसदी तक निर्भर हैं।

जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और नदियों की स्वाभाविक प्रकृति प्रभावित हो रही है। यहाँ पर शहरों की आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण नालों और सीवर प्रणाली विकसित किये जाने की बेहद जरूरत हैं। कचरा प्रबंधन का पर्याप्त उपाय किया जाना भी जरूरी है ताकि बारिश के मौसम में पानी का जमाव ना हो। जाहिर सी बात है कि इनका हमारे देश में अभाव है। इस पर ध्यान देने की बेहद जरूरत है। हर साल आने वाली बाढ़ की प्रकृति में बढ़ोतरी ढाँचागत विकास में जल निकासी की अनदेखी का ही नतीजा है। इसमें परम्परागत जलस्रोतों जो जल संरक्षण में महती भूमिका निबाहते थे, उनकी अनदेखी और नदियों में गाद की समस्या जो बाढ़ का प्रमुख कारण है, का समाधान करने में नाकामी अहम है। जबकि नदियों में गाद की समस्या के निदान हेतु एक कंप्रीहेंसिव सिल्ट पॉलिसी बनाने और नदी प्रबंधन की मांग बरसों से पर्यावरणविद, नदी विशेषज्ञ और नदी जल वैज्ञानिक कर रहे हैं। यही नहीं वनविहीन हो चुके नदियों के जलागम को वनाच्छादित करने में भी सरकार की विफलता जगजाहिर है।

इससे एक ओर जहाँ नदियों के जल बहाव नियंत्रित करने में मदद मिलती, वहीं दूसरी ओर वनाच्छादित तट प्राकृतिक तौर पर बंधों के रूप में अपनी सक्रिय भूमिका भी निबाहते। अब समय की मांग है कि मौसम के बदलाव को मद्देनजर रख नदियों की प्रकृति का सूक्ष्म रूप से विश्लेषण-अध्ययन किया जाये। उसी के तहत नदी प्रबंधन की व्यवस्था की जाये। इसके सिवाय इसका और कोई हल नहीं है। विडंबना यह कि आजतक इस दिशा में कुछ किया ही नहीं गया। इन हालात में तो अब ऐसा लगने लगा है कि बाढ़ देशवासियों की नियति ही बन गयी है। इसमें दो राय नहीं।
 

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