बैक्टीरिया में प्रतिरोधकता के लिये उत्तरदायी उत्परिवर्तनों की पहचान (Identification of the mutations responsible for resistance in Bacteria)


शोध प्रयोगशाला ने विकास की एक प्रयोगात्मक प्रक्रिया का अध्ययन करना आरम्भ किया। इसमें उन्होंने एक विशेष प्रकार के बैक्टीरिया और एक बहुत कम उपयोग में आने वाले एंटिबायोटिक के सम्मिलन का उपयोग किया। उपयोग किये जाने वाले बैक्टीरिया का नाम था एंटेरोकॉकस फीकैलिस जो मनुष्य की आंत्रनलिका में पाया जाने वाला बैक्टीरिया है। इसके साथ उपयोग किये जाने वाले एंटिबायोटिक का नाम था टीजेसाइक्लिन। यह टेट्रासाइक्लिन नामक विख्यात एंटिबायोटिक का व्युत्पन्न है जो बहुत विशेष स्थितियों में कभी-कभी प्रयोग किया जाने वाला एंटिबायोटिक है। विश्व भर के चिकित्सालयों में प्रतिजैविकों अर्थात एंटिबायोटिक के प्रति उत्पन्न होने वाली प्रतिरोधकता के कारण जो संक्रमण अनियंत्रित रूप से फैलते हैं और घातक हो जाते हैं, उनके कारण होने वाली मृत्यु दर चिकित्सकों के समक्ष एक गम्भीर चुनौती के रूप में खड़ी है। यह प्रतिरोधकता आज सभी चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के लिये चिन्ता का कारण बनी हुई है।

प्रथम एंटिबायोटिक की खोज के समय से ही इस दिशा में शोधकर्ता सचेष्ट हैं और निरन्तर नए एंटिबायोटिकों के शोध के लिये प्रयासरत हैं। संक्रमण फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों से संघर्ष के लिये नई-नई औषधियाँ तो ढूँढी जाती रहती हैं किन्तु उसी के साथ यह चिन्ता भी यथावत बनी रहती है कि एक दिन वह औषधि अपना प्रभाव खो देगी या यूँ कहें कि उससे नष्ट होने वाला बैक्टीरिया उन औषधियों से बच निकलने का रास्ता ढूँढ लेगा।

अभी वर्तमान परिदृश्य तो यह है कि एंटिबायोटिक अपनी क्षमता न खोएँ इसके लिये एकमात्र तरीका यही है कि उनका उपयोग ही बहुत सावधानीपूर्वक और केवल आवश्यकतानुसार ही किया जाये। एंटिबायोटिकों के प्रति इस प्रतिरोधकता का विनाश करने कीदृष्टि से वैज्ञानिकों ने उस कारण का ही पता लगाने का प्रयास किया जो इस प्रतिरोधकता को उत्पन्न करने के लिये उत्तरदायी होता है। ह्यूस्टन, टेक्सास स्थित विलियम मार्श राइस यूनिवर्सिटी के जैववैज्ञानिकों का एक दल डॉ. कैथरीन बीबो के नेतृत्व में एंटिबायोटिकों की प्रतिरोधकता के विषय पर गहन शोधकार्य कर रहा है।

इसी दल के जैववैज्ञानिक यूसुफ शामू ने इस दिशा में शेाध कार्य करते हुए बैक्टीरिया की एक ऐसी आनुवंशिक यांत्रिकी की पहचान की जिसके कारण बैक्टीरिया एक ओर तो प्रतिजैविकों के प्रति रोधी बन जाते थे वहीं साथ-साथ इस प्रतिरोधक क्षमता को अन्य बैक्टीरिया में शीघ्रता से स्थानान्तरित भी कर देते थे। यह खोज इस वैज्ञानिक समूह के लिये एक दोहरे आघात के समान था।

शोधकर्मियों का विश्वास है कि यह जो परिवर्तन होता है। इस सूचना को जानने के बाद इस बात का पता लगाना आसान हो जाएगा कि कैसे और कब बैक्टीरिया उपभेदों (स्ट्रेन्स) में प्रतिजैविकों के प्रति यह प्रतिरोधकता की प्रक्रिया आरम्भ होगी। इस ज्ञान से उस प्रक्रिया की गति को बाधित करने या समाप्त करने की विधि खोजनी भी आसान हो जाएगी।

इस शोध की सर्वप्रथम सूचना ‘मॉलिक्यूलर बाइआलजी एंड इवालूशन’ नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बैक्टीरिया प्रतिरोधकता के कारण सारे विश्व में जो मौतें होती हैं उन्हें रोकना ही इन वैज्ञानिकों का निश्चित उद्देश्य है। संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ द्वारा संक्रमण फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों को नियंत्रित करने के हर सम्भव प्रयास किये जा रहे हैं। फिर भी अभी यह चिन्ता सर्वव्यापी है कि इन सूक्ष्मजीवों को नियंत्रित करने वाली औषधियों की आयु सीमित ही है और वह अन्ततः कार्य करना बन्द कर देंगी।

अतः शोधकर्मी अभी तो केवल उपयोग की जा रही एंटिबायोटिक औषधियों के विवेकपूर्ण इस्तेमाल और प्रबन्धन पर ही जोर दे रहे हैं किन्तु उनकी योजना यह है कि कैसे प्रतिरोधकता विकसित होती है वे इस बात की पूर्व घोषणा करने में सक्षम हो सकें और उसे बाधित करने के उपाय कर सकें।

इस कार्य के लिये शोध प्रयोगशाला ने विकास की एक प्रयोगात्मक प्रक्रिया का अध्ययन करना आरम्भ किया। इसमें उन्होंने एक विशेष प्रकार के बैक्टीरिया और एक बहुत कम उपयोग में आने वाले एंटिबायोटिक के सम्मिलन का उपयोग किया। उपयोग किये जाने वाले बैक्टीरिया का नाम था एंटेरोकॉकस फीकैलिस जो मनुष्य की आंत्रनलिका में पाया जाने वाला बैक्टीरिया है। इसके साथ उपयोग किये जाने वाले एंटिबायोटिक का नाम था टीजेसाइक्लिन। यह टेट्रासाइक्लिन नामक विख्यात एंटिबायोटिक का व्युत्पन्न (डेरिवेटिव) है जो बहुत विशेष स्थितियों में कभी-कभी प्रयोग किया जाने वाला एंटिबायोटिक है।

उद्देश्य था यह पता लगाना कि कैसे जीनों का क्षैतिज या समान्तर स्थानान्तरण होता है। इस प्रकार के समान्तर स्थानान्तरण द्वारा ही कोशिकाएँ अनुकूल उत्परिवर्तनों को एक से दूसरी कोशिका में स्थानान्तरित कर देती हैं। इस शोधकार्य का उद्देश्य था यह देखना कि क्या अनुकूल उत्परिवर्तन के स्थानान्तरण की यह प्रक्रिया इस विशेष एंटिबायोटिक की उपस्थिति में भी कार्यशील रहेगी या नहीं।

परिणाम बहुत आशाजनक निकले। यह सम्भव हुआ Tn916 नामक उत्परिवर्तित डीएनए के कारण जो एक ट्रांसपोसॉन है और जो जीनोम के साथ-साथ अपनी स्थिति परिवर्तित कर सकता है, स्वयं की प्रतिकृति बना सकता है और परालैंगिकता (पैरासेक्स्युअलटि) नामक प्रक्रिया द्वारा दूसरी कोशिकाओं में स्थानान्तरित हो सकता है। इसी प्रक्रिया द्वारा कोशिकाओं के मध्य आनुवंशिक पदार्थों का आदान-प्रदान होता है।

Tn916 नामक ट्रांसपोसॉन में ही जमजड नामक टेट्रासाइक्लिन प्रतिरोधी जीन विद्यमान रहता है। यह अनेक रोगाणुओं (पैथोजेन) में पाया जाता है। टीजेसाइक्लिन की अनुपस्थिति में Tn916 बहुत कम गति करता है। उस स्थिति में 1,20,000 बैक्टीरिया में से केवल 1 की गति से ही ये बैक्टीरिया अपनी प्रतिरोधकता को दूसरे रोगाणु में स्थानान्तरित करते हैं। किन्तु इस एंटिबायोटिक की उपस्थिति में यह प्रतिरोधकता स्थानान्तरण की गति बढ़कर 50 बैक्टीरिया में एक तक पहुँच गई। ऐसा एक उत्परिवर्तन के कारण होता है। यही उत्परिवर्तन जमजड (टेट्रासाइक्लिन प्रतिरोधी जीन) के बहुल उत्पादन के लिये भी उत्तरदायी है। प्रतिरोधकता की यांत्रिकी में दो प्रकार के उत्परिवर्तनों की उपस्थिति अनिवार्य होती है।

प्रथम Tn916 और दूसरा एक ऐसा जीन जो राइबोसोमयुक्त 10 प्रोटीन को कोडित करता है। इन दोनों की पहचान बहुत सरलतापूर्वक प्रयोग के पहले और बाद में जीन के अनुक्रमण की पद्धति से की जा सकती है।

राइस यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता दल की एक सदस्य ब्यूबो साई के अनुसार टेट्रासाइक्लिन कोशिकाओं के राइबोसोम के साथ सम्बद्ध हो जाता है और उसे प्रोटीन बनाने से रोकता है। जमजड एक ऐसा प्रोटीन है जो टेट्रासाइक्लिन को दूर हटा कर राइबोसोम को मुक्त कर देता है। किन्तु यह सामान्यतः टीजेसाइक्लिन के विरुद्ध कार्य नहीं करता। शोध के प्रारम्भ में उन्हें भी इस प्रकार के घटनाक्रम की आशा नहीं थी। शोधकर्ताओं ने प्रयोगों के मध्य यह देखा कि उत्परिवर्तन के कारण जमजड प्रोटीन की उत्पत्ति बहुत भारी मात्रा में हो रही है। जमजड प्रोटीन के अतिप्रकटीकरण के परिणामस्वरूप वे टीजेसाइक्लिन के विरुद्ध अपना प्रभाव दिखाने में सफल हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि यह जमजड प्रोटीन Tn916 नामक संयुग्मनात्मक (कांजुगेटिव) ट्रांसपोसॉन के साथ जुड़ा रहता है जो एक डीएनए एलीमेंट है और जो जीनोम के इर्द-गिर्द घूम सकता है तथा एक कोशिका से दूसरी कोशिका में स्थानान्तरित हो सकता है।

इस जमजड के अधिक उत्पादन का एक अतिरिक्त प्रभाव यह है कि Tn916 ट्रांसपोसॉन अधिक गतिशील हो जाते हैं। यह एक कोशिका से दूसरी कोशिका में अधिक शीघ्रता से स्थानान्तरित होने लगते हैं। इस प्रकार हम इसमें प्रतिरोधकता भी देखते हैं और साथ ही यह भी देखते हैं कि इस प्रतिरोधकता के एक कोशिका से दूसरी कोशिका में स्थानान्तरित होने की गति तथा जीनोमों के आस-पास इनकी गतिशीलता में भी तीव्रता आ जाती है। इस प्रकार यह प्रतिरोधक परिदृश्य दोहरे तरीके से हानिप्रद हो जाता है। यह हमारे लिये एक गम्भीर चिन्ता का विषय है। अपने प्रयोगों के क्रम में वैज्ञानिकों ने एंटेरोकॉकस फीकैलिस नामक बैक्टीरिया के पूरे-पूरे समूह को 19 दिन तथा 24 दिन की दो भिन्न-भिन्न अवधियों के लिये अलग-अलग बायोरिएक्टरों में वर्धित होने दिया।

इस प्रयोग के परिणामों से सिद्ध हो गया कि ये बैक्टीरिया प्रतिरोधकता वाली जीन को समाविष्ट करने के सम्बन्ध में बहुत ही कुशल थे। शोध दल के एक सदस्य का कहना है कि प्रारम्भ में सभी कोशिकाओं में उक्त ट्रांसपोसॉन की एक ही प्रतिकृति थी। फिर प्रयोग की अवधि में उनकी अनेक प्रतिकृतियाँ निकलनी प्रारम्भ हो गईं। इन ट्रांसपोसॉनों का प्रतिकृतिकरण बहुत शीघ्रता से हो रहा था।प्रतिरोधकता के सम्बन्ध में इतनी मूलभूत महत्त्वपूर्ण जानकारी पा लेने के बाद अब वैज्ञानिकों को पूर्ण आशा है कि वे ऐसी उचित औषधियों की खोज कर सकेंगे जो इस प्रतिरोधकता की शृंखला को बाधित करके नए-नए एंटिबायोटिकों की प्रभावशीलता कोसुरक्षित रखने में सहायक होंगी। वास्तव में इस शोधकार्य को सम्पन्न करने वाली प्रयोगशाला ने बैक्टीरिया की प्रतिरोधकता का कारण ढूँढ कर क्रान्तिकारी सर्वेक्षण कार्य किया है। अब यह उत्तरदायित्व औषधि निर्माता कम्पनियों तथा अन्य सम्बन्धित कार्य करने वाली प्रयोगशालाओं का है कि वे शीघ्रतापूर्वक इसके लिये उपयुक्त औषधि की खोज करके रोग बनाम उपचार के इस संघर्ष में रोगकारक बैक्टीरिया से चार कदम आगे बने रहें।

मंजुलिका लक्ष्मी एवं प्रेमचन्द्र श्रीवास्तव, ‘अनुकम्पा’, वाई 2-सी, 115/6, त्रिवेणीपुरम, झूंसी, इलाहाबाद- 211019 (उत्तर प्रदेश)

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