बैंक की नौकरी छोड़, आदिवासियों को औषधीय खेती से दे रहे रोजगार

9 Aug 2019
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राजाराम त्रिपाठी ।
राजाराम त्रिपाठी ।

भारत को प्रारंभ से ही कृषि प्रधान देश कहा जाता है और देश की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गांव में निवास करती थी। यहां की प्रकृति, वातावरण और मिट्टी में वो सभी गुण विद्यमान हैं जो एक उन्नत खेती के लिए चाहिए होते हैं। भारत में ऋतुओं की विभिन्नता खेती के लिए कई आयाम लेकर आती है। एक समय पर तो भारत का हर नागरिक अपने आप में उन्नत किसान था, लेकिन समय के साथ-साथ आधुनिकता की हवा भारत के गांवों तक पहुंची। तेजी से पैसा कमाने के लालच में किसानों ने खेती की जमीन बेचकर अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाया। इन जमीनों पर बढ़ती आबादी के लिए आशियाना और लोगों की आरामदायक जीवनशैली की जरूरतों को पूरा करने के लिए उद्योग लगाए गए। जिस कारण धीरे-धीरे खेती की जमीन घटती चली गई और वर्तमान में देश में करीब 60 प्रतिशत ही खेती की जमीन बची है, लेकिन आधुनिकता का दौर अभी निरंतर बढ़ते रहने के कारण ये खेती की जमीन और घटती जा रही है। 

खेती के साथ ही आधुनिकता का असर पर्यावरण पर भी पड़ा, ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन हुआ, जिसकी मार खेती पर पड़ी, लेकिन सरकार ने किसानों के हितों की सुध नहीं ली। फसल का नुकसान होने के कारण किसान बैंक का कर्ज नहीं चुका पाए। नतीजन उन्हें आत्म हत्या करनी पड़ी। कर्ज में डूबते किसानों द्वारा आत्म हत्या करने का दौर इस कदर चला कि अभी तक देश में लाखों किसान आत्म हत्या कर चुके हैं, लेकिन प्रारंभ से लेकर अभी तक सरकारों ने किसानों को केवल चुनावी हथियार के रूप में ही इस्तेमाल किया। राजनैतिक और प्रशासनिक उदासीनता का ही कारण है कि देश में खेती की उन्नत तकनीक अभी तक नहीं आ सकी, जिस कारण भारत से छोटे देश हमसे कई अधिक उन्नत खेती कर विश्वभर में मिसाल पेश कर रहे हैं। घटती खेती का कारण किसानों के प्रति सरकार का रवैया भी है, जिस कारण किसान अब खेती करना पसंद नहीं कर रहे हैं और हजारों परिवार खेती छोड़ चुके हैं तथा कोई अन्य काम कर रहे हैं। इन कारणों से किसानी और खेती वर्ततान में देश मे बड़ा मुद्दा है। लेकिन इन सभी के बीच छत्तीसगढ़ के राजाराम त्रिपाठी भी हैं, जिन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ औषधीय खेती शुरू की और आज वें आदिवासियों को औषधीय खेती से रोजगार दे रहे हैं। 

राजाराम त्रिपाठी ।

प्लांट में प्रबंधक, सुपरवाइजर और कामगार, सभी आदिवासी हैं, जिनमें अधिकतर महिलाएं हैं। साथ ही राजाराम औषधीय उत्पादों को अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में निर्यात भी करते हैं। जैविक खेती के क्षेत्र में मिसाल पेश करते हुए राजाराम ने विश्वभर में खुद की एक नई पहचान बनाने के साथ ही नक्सल प्रभावित इलाके, बस्तर को विश्वपटल पर एक नई पहचान दी है। जैविक खेती में उत्कृष्ट योगदान के लिए वर्ष 2012 में बैंक ऑफ स्काॅटलैंड द्वारा उन्हें ‘अर्थ हीरो’ पुरसकार से भी सम्मानित किया जा चुका है। वहीं भारत सरकार द्वारा भी राजाराम को ‘राष्ट्रीय कृषि रत्न’ पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।  

छत्तीसगढ़ का नाम आते ही लोगों के जेहन में सबसे पहले नक्सलवादियों द्वारा अंजाम दी गई घटनाओं की छवि बनती है और यदि बात छत्तीसगढ़ के ही जिला बस्तर की की जाए, तो ये छवि और भी गहरी हो जाती है, लेकिन वहीं प्राकृतिक सौंदय से सराबोर बस्तर प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है। जो एक समय पर काकतीय वंश के राजा पुरुषोत्तम देव का शासन क्षेत्र हुआ करता था। दरअसल, राजाराम त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के रहने वाले हैं। उनके दादा को बस्तर के राजा ने कृषि नवाचार के लिए बस्तर बुलाया था,  जिसके बाद वह वहीं बस गए। पहली बार मे उनके दादा ने बस्तर में कलमी आम का पौधा लगाया था। जिस कारण राजाराम के दिल में भी खेती के प्रति प्र्रेम और कुछ नया करने का जुनून था और इसमें उनका मन भी लगता था, लेकिन पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने एक काॅलेज में पढ़ाना शुरू किया। कुछ समय बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में प्रोबेशनरी क्लर्क के पद पर चयन हुआ। काफी समय तक नौकरी करने के बाद नौकरी से मन हटने लगा और कुछ नया करने की इच्छा प्रस्फुटित हुई। जिसके बाद राजाराम ने नौकरी छोड़ दी। 

जैसा की आमूमन हर किसी को बचपन से ही एक अच्छी नौकरी पाने का सपना परिजनों द्वारा दिखाया जाता है, लेकिन जब हम परिजनों के उस सपने के विपरीत कुछ करते हैं तो विरोध का सामना करना पड़ता है। ऐसा ही राजाराम के साथ ही हुआ। बैंक की नौकरी छोड़ने के बाद उनके इस निर्णय से परिवार में कोई खुश नहीं था, लेकिन नौकरी छोड़ने के बाद वें खेती और किसानी के नए तरीकों को जानने में जुट गए, जिसके लिए कई देशें में आयोजित गोष्ठियों मं भाग लिया और औषधीय पौधों के बाजार का भी अध्ययन किया। अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ने हुए उन्होंने ‘‘मां दंतेश्वरी हर्बल ग्रुप’’ की स्थापना की। शुरुआती दौर में विदेशी सब्जियां उगाने का विचार आया तो हाॅलैंड से गोभी का बीज लाकर पौध तैयार की। फसल काफी अच्छी हुई, लेकिन बाजार में डेढ़ रुपये किलो के भाव करीब छह क्विंटल गोभी बेची। काफी कम लाभी होने के कारण इसमें निराशा हाथ लगी, तो पारंपरिक खेती छोड़ दी। 

राजाराम त्रिपाठी ।

राजाराम ने ऊसर जमीन, जहां पानी की व्यवस्था नहीं है, वहां औषधीय खेती करने का निर्णय लिया। बड़े स्तर पर काम करने के लिए अधिक मान श्रम (मैन पाॅवर) की आवश्यकता थी, तो स्थानीय आदिवासियांे से सहयोग मांगा। आदिवासियों की मदद से 25 एकड़ भूमि पर सफेद मूसली लगाई। पहली फसल काफी अच्छी हुई और अपेक्षा से अधिक मुनाफ हुआ। इसके बाद मीठी तुलसी यानि स्टीपिया, अश्वगंधा, लेमन ग्रास, कालाहारी और सर्पगंधा सहित 25 वनौषियो को बड़े पैमाने पर लगाया। भूमि की उर्वरा शक्ति का बनाए रखने के लिए राजाराम त्रिपाठी द्वारा किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया जाता, बल्कि उन्होंने एक फार्म बनाकर उसमे कई मवेशी पाल रखे हैं। इन्हीें मवेशियों को गोबर और मूत्र खाद्य के रूप मंे उपयोग किया जाता है और आज उनकी सच्ची लगन, दृढ़ इच्छा शकित और दूरगामी सोच का ही नतीजा है कि जिस काम में उन्हें नौकरी छोड़ने के बाद परेशानी का सामना करना पड़ा था, आज 20 हजार से अधिक किसानों के लिए वें मददगार गए हैं लगभग दो हजार लोग उनसे प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्राप्त करे रहे हैं और 25 एकड़ से शुरू हुआ मुसली की खेती काम आज 11 सौ एकड़ से अधिक भूमि पर पहुंच गया हैं, जहां विभिन्न प्रकार की औषधीयों की खेती की जाती है। जिसमें सात सौ से अधिक किसान जुड़े हुए हैं। 

राजाराम के हर्बल प्लांट की खासियत ये है कि इस प्लांट में प्रबंधक, सुपरवाइजर और कामगार, सभी आदिवासी हैं, जिनमें अधिकतर महिलाएं हैं। साथ ही राजाराम औषधीय उत्पादों को अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में निर्यात भी करते हैं। जैविक खेती के क्षेत्र में मिसाल पेश करते हुए राजाराम ने विश्वभर में खुद की एक नई पहचान बनाने के साथ ही नक्सल प्रभावित इलाके, बस्तर को विश्वपटल पर एक नई पहचान दी है। जैविक खेती में उत्कृष्ट योगदान के लिए वर्ष 2012 में बैंक ऑफ स्काॅटलैंड द्वारा उन्हें ‘अर्थ हीरो’ पुरसकार से भी सम्मानित किया जा चुका है। वहीं भारत सरकार द्वारा भी राजाराम को ‘राष्ट्रीय कृषि रत्न’ पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। दरअसल, राजाराम जैसे लोग देश के हर नागरिक के साथ ही किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं और उनके प्रयासों से सीख लेते हुए सभी को आगे बढ़ना चाहिए। शायद, इससे देश में किसानों की काफी समस्याओं को समाधान हो सके। 

 

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