बाजार से गुजरे, बिना खरीददार हुए

15 Feb 2011
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फसल
फसल


बाजारवाद की गिरफ्त में आकर हम अपना ही सबकुछ किस तरह लुटा रहे हैं इसके उदाहरणों का यूं तो अम्बार है। हज़ारों तरह के नजीर हमारे सामने हैं कि किस तरह हम अपना ही जेब कटाकर, अपने ही घर में सेंध लगा कर न केवल खुद और देश को आर्थिक रूप से खोखला कर रहे हैं अपितु अपने ही स्वास्थ्य के साथ भी खिलवाड कर रहे हैं। आश्चर्य यह कि कहाँ से कौन मीठी छुरी आकर कब हमें हलाल कर जाता है यह पता भी नही चलता। अभी कोला पेय के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सवाल उठाकर एक बार पुनः हमें अपने बारे में सोचने को विवश किया है।

विगत 27 अगस्त 2009 को भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण द्वारा कोला में खतरनाक केमिकल की मिलावट को जांचने के लिए एक पैनल का गठन किया गया था। इस पैनल को शीतल पेय में पाए जाने वाले खतरनाक केमिकल की पहचान कर अपनी रिपोर्ट सौपना था। लेकिन आज तक उस पैनल ने इस संबंध में कोई सिफारिश करना भी मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने कोई रिपोर्ट सबमिट नहीं किया। आश्चर्य की बात यह कि कोला की जांच करने वाले उस पैनल में खुद उस कम्पनी के प्रतिनिधि को ही शामिल कर लिया गया था। कोर्ट ने पैनल की तटस्थता पर सवाल उठाते हुए दो सप्ताह के भीतर नया पैनल बनाने को कहा है।

तो यह बात अब कोई राज़ नहीं रहा है कि शीतल पेयों में ऐसे केमिकल होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। लेकिन बाजार किस तरह आक्रमण करके हमें अपने ही जड़ों से काट रहा है किस तरह शीतल पेय ने ‘पानी’ तक की जगह ले ली है यह जानना अपने-आपमें दिलचस्प है। ज़ाहिर है कोक और पेप्सी की नूराकुश्ती पर हमारी मनोरंजक निगाह रहती आयी है। वो दोनों सांड की तरह लड़कर हमारी ही ‘फसल’ खराब करते आये हैं लेकिन जब भी दोनों के अस्तित्व पर सवाल पैदा होता है तो वो एक हो देश पर पिल पड़ते हैं। कुछ साल पहले जब एक भारतीय महिला ‘पेप्सीको’ की प्रमुख बनी थी तो उनकी शान में जम कर कसीदे पढ़े गए। उन्हें भारत की बढ़ती क्षमता का प्रतीक बताया गया लेकिन वह किस मंशा से उस पद पर आयी थी इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। तब उस सीईओ ने कहा था कि उन्हें ‘कोला’ से कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं है, उनकी लड़ाई तो ‘पानी’ से है। यानी हर पानी पीने वाले के हाथ में वो पेप्सी देखना चाहती हैं। और अंततः वो अपने मकसद में सफल भी हुई थी। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान राजस्थान के सीकर के सुदूर गाँवों में इस लेखक को यह देख कर ताज्जुब हुआ था कि छोटे-छोटे कस्बों में पानी मिलना मुश्किल था लेकिन शीतल पेय वहां भी सहज उपलब्ध था।

तो सवाल यहाँ केवल स्वास्थ्य का ही नहीं है। सवाल तो पूरे ही जीवन पद्धति को बदल कर रख देने का है। मौसम के अनुसार जहां विभिन्न तरह के स्वाद में स्वास्थ्यवर्धक, सस्ते और सहज उपलब्ध पेयों की अपने यहाँ बहुतायत रही है वहाँ किसी विदेशी फार्मूले पर आधारित एक महंगे पेय ने कैसे सबको विस्थापित कर दिया, बाजारू प्रचारों के आक्रमण की चकाचौंध में हम कब अपनी लस्सी, अपना ‘पना’ भूल गए यह पता ही नहीं चला। हमारे ही जल श्रोतों का अधिकतम दोहन कर, उसे लगभग मुफ्त प्राप्त कर, हमारे ही किसानों की ज़मीन पर प्लांट लगा, हमारे ही लोगों द्वारा निर्माण, विज्ञापन और वितरण करवा हमारा स्वास्थ्य और पैसा देखते ही देखते उनका बंधक बन गया। अगर बाबा रामदेव जैसे कुछ लोग इस नव-उपनिवेशवादी आक्रमण का विरोध करने हुंकार भी भरते हैं तो किस तरह उनकी आवाज़ को दबाने, उनके आह्वान को ‘तूती’ बना नक्कारखाने में भेज देने का प्रयास किया जाता है यह भी आपको बार-बार देखने में आया होगा। अफ़सोस यह कि ऐसा विरोध भी वही समूह करते हैं जो घोषित रूप से पश्चिमी बाजारवाद और साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी माने जाते हैं। वामपंथी वृंदा करात द्वारा पिछले दिनों रामदेव के प्रकल्पों पर बेजा आरोप लगाने -हालाकि बाद में मुंह की भी खाने- को इसी सन्दर्भ में देखे जाने की ज़रूरत है।

स्वार्थी बाज़ार एवं विपणन नीति का एक नर याद आ रहा है। एक टूथपेस्ट बनाने वाली कम्पनी ने यह महसूस किया कि उनका मार्केट अब सेचुरेटेड हो गया है। अब ज्यादे खपत होने की कोई संभावना नहीं है। उस कम्पनी ने अपने मार्केटिंग के प्रमुखों की बैठक बुलाई और कुछ नए उपाय सुझाने को कहा। काफी जद्दोजहद के बाद एक भारतीय प्रतिनिधि ने ही सुझाव दिया कि कुछ न करें केवल पेस्ट के ट्यूव का मुंह थोड़ा चौड़ा कर दें। ज़ाहिर है उससे ज्यादा पेस्ट निकलेगा और खपत ज्यादे होगा अतः बिक्री में इजाफा भी हो जाएगा। कम्पनी ने वही किया और वह अपना मार्केट लक्ष्य हासिल करने में सफल रहा। तो ज़रूरत अब इस बात की है कि सबसे पहले तो लोगों में जागरूकता हो। हर विदेशी वस्तु या विचार को शान का प्रतीक समझने, खुद की परंपराओं और ग्रामीण जीवन पद्धति के प्रति हीन भावना से देखने की रस्म से वे मुक्त हो। इसके अलावा अपने ही लोगों द्वारा चुनी गयी सरकारों से भी यह अपेक्षा है कि वह भी अपने नागरिकों का हित ऊपर रखकर उनके स्थायी विकास का रास्ता बनाने की कोशिश करें।

इस मामले में देश का एक छोटा कहे जाने वाला प्रदेश ‘छत्तीसगढ़’ इन कुछेक मामलों में रास्ता दिखाता नज़र आ रहा है। न केवल पानी के मामले में बल्कि हर तरह के खनिज के मामलों में उसका सबसे पहला लाभार्थी वहाँ के ही माटी पुत्र हों ऐसी नीति बनाने और उसे कार्यान्वित करने का प्रयास वहाँ किया जा रहा है। हाल ही में पानी बचाने के मामले में अपनी पहचान बनाने वाले राजेन्द्र सिंह ने मुख्यमंत्री डा। रमन सिंह से मुलाक़ात कर जल-नीति का एक मसौदा शासन को सौपा है जिसपर मुख्यमंत्री ने गंभीरता से विचार करने का आश्वासन दिया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यह वही छत्तीसगढ़ है जहां एकीकृत मध्यप्रदेश की पूर्व सरकार ने एक पूरी नदी को ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ बेच दिया था। या ये वही प्रदेश है जहां केन्द्र सरकार द्वारा जापान से किये गए एक आत्मघाती करार के कारण वहाँ की खनिज संपदा को माटी के मोल विदेश को भेजे जाने को प्रदेश विवश है। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल रही है। हाल ही में मुख्यमंत्री ने एक अखबार में लेख लिख कर खुद ही यह सवाल उठाया है कि ‘कुबेर’ कब तक ‘दरिद्र’ बने रहेंगे? प्रदेश शासन की मंशा ये है कि खनिज का बेतरह दोहन कर उसे बाहर भेजने के बजाय अगर उसमे ‘वेल्यु एडिशन’ हो, वही कारखाने लगे तो स्थानीय लोगों को रोज़गार भी मिलेगा साथ ही अंतिम उत्पादन की अच्छी कीमत लेकर प्रदेशवासी भी समृद्ध हो सकेंगे। बहरहाल।

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण द्वारा कोला की जांच करने को बनाय गया पैनल अगर दो साल में भी कोई रिपोर्ट प्रस्तुत प्रस्तुत नहीं कर पाया। अगर वे कोला कंपनी के प्रतिनिधि से ही सांठ-गांठ कर चुपचाप बैठे रहे तो सोचा जा सकता है उन्हें अपने ‘नकारापन’ की ही कितनी कीमत मिली होगी? आक्रामक विज्ञापनों पर ही अरबों लुटाने वाली कम्पनी ने उन्हें चुप रहने के अहसान के बदले उनका कैसा ‘स्वागत-सत्कार’ किया होगा? अब नए पैनल के लोग भी क्या कर पाते हैं या कुछ कर पाते हैं या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है। लेकिन देश के आम नागरिकों को ही यह तय करना है कि वह झूठी शानों-शौकत या दिखावा के कारण कब तक खुद का और अपने देश का स्वास्थ्य तबाह होते देखना चाहेंगे? ज़रूरत केवल यह है के वे अपनी मौलिकता, अपने देशी खान-पान, रीति-रिवाज़, रहन-सहन को महत्त्व दें। यही एक रास्ता है जिसपर चल कर देश अपने स्वाभाविक विकास और स्थायी समृधि की ओर अग्रसर हो सकेगा।
 

 

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