बांध से पानी छोड़ने का सूचना तंत्र बनाओ

भारत के तराई इलाकों में नेपाल नदियों में अचानक पानी छोड़ कर कभी भी बाढ़ ला देता है। भारत के सरकारी तंत्र की ओर से आश्वासन दिया जाता है कि उससे बात करके समस्या का स्थायी समाधान निकाला जायेगा। ऐसे में नेपाली अधिकारी यह कहकर जले पर नमक छिड़कते हैं कि वे तो पानी छोड़ने से पहले भारत के संबंधित अधिकारियों को सूचित करने का अपना फर्ज निभाते ही हैं। यह हर साल के मानसून का खेल हैं। झूठे आश्वासन देने का यह सरकारी ड्रामा हर साल का है। इस बार बहराइच के बाढ़पीड़ितों के सब्र का बांध टूट गया और वे आरपार के संघर्ष पर उतर आये। पर सरकारें ऐसी समस्याओं पर कोई स्थाई समाधान लाने की बजाय लोगों के दमन पर उतारू हो जाती है बता रहे हैं कृष्ण प्रताप सिंह।

28 अगस्त 2012। यों तो कई अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश भी सूखे का कहर झेल रहा है, लेकिन उसके नेपाल सीमा के आसपास के जिले बाढ़ की विभीषिका से भी दो-चार हैं। बहराइच, श्रवस्ती, बस्ती, बाराबंकी, गोंडा व फैजाबाद वगैरह में घाघरा व राप्ती नदियों में नेपाल से बहकर आये पानी ने लोगों का जीवन नर्क बना रखा है। अगर साफ कहें तो यह बाढ़ ‘आयातित’ है। शायद ही कोई साल ऐसा गुजरता हो जब ऐसा न होता हो। कई बार इसका खामियाजा उत्तर प्रदेश के पड़ोसी बिहार के भी एक बड़े हिस्से को चुकाना पड़ता है और पीड़ितों को संभलने तक का मौका नहीं मिलता। उन्हें पता तो नहीं होता कि कब नेपाल में पानी बरसेगा, उनके सिर पर ‘ओरौनी’ चूने लगेगी और नदियों को काबू करने के लिए बनाये गये तटबंधों को बेकार कर देगी।

लेकिन इस बार इन बांधों से पहले बहराइच के बाढ़पीड़ितों के सब्र का बांध टूट गया और वे आरपार के संघर्ष पर उतर आये। उनका गुस्सा इस बात को लेकर था कि जब भी नेपाल नदियों में अचानक पानी छोड़ कर ऐसी बाढ़ ला देता है, हमारे सरकारी तंत्र की ओर से आश्वासन दिया जाता है कि उससे बात करके समस्या का स्थायी समाधान निकाला जायेगा। मगर बाढ़ का पानी उतरते ही इस दिशा में सोचना बंद कर दिया जाता है। ऐसे में नेपाली अधिकारी यह कहकर जले पर नमक छिड़कते हैं कि वे तो पानी छोड़ने से पहले भारत के संबंधित अधिकारियों को सूचित करने का अपना फर्ज निभाते ही हैं।

अपने क्षेत्र में लोगों को आगाह करना और उनकी जान-माल को बचाना तो भारत के सरकारी तंत्र का काम है। वह समय रहते यह काम क्यों नहीं करता? यही प्रश्न बहराइच के घाघरा में समा गये आधा दर्जन गांवों के दस हजार परिवारों के कोई पचास हजार आंदोलनकारी निवासी भी पूछ रहे थे। क्यों बेघरबार हो जाने के बावजूद न उनको कोई आर्थिक सहायता दी जा रही है और न पुनर्वास के जतन किये जा रहे हैं? ऐसे समयों में उनके बारे में प्रशासन और सरकारें क्यों नहीं सुनतीं?

यह ऐन स्वतंत्रता दिवस की बात थी, लेकिन दूरदराज के इलाके में होने के कारण आजादी के जश्न या फिर बाबा रामदेव के अनशन की खबरें देने में व्यस्त मीडिया को उनकी खबर लेने/देने की फुरसत नहीं थी, न सरकार को उनके प्रश्न से जूझना गवारा था। प्रदेश सरकार ने जश्न बीत जाने के बाद भी उनकी सुधि नहीं ली तो अनरखा गांव के सैकड़ों निराश ग्रामीणों ने उफनायी हुई नदी में सामूहिक जलसमाधि ले लेने का फैसला कर डाला। लेकिन इसकी सूचना स्थानीय प्रशासन को दी गयी तो उसने इसे स्टंट के तौर पर लिया।

नेताओं के रोज-रोज के स्टंटी आंदोलनों से निपटते-निपटते शायद वह सच्चे झूठे आक्रोश में फर्क करना भूल गया था। उसके हाथ पांव तो तब फूले, जब तय तिथि पर इकट्ठे ग्रामीण सचमुच नदी में कूदने लगे। तब पहले तो बल-प्रयोग से दूर खदेड़ कर उनको रोकने की कोशिश की गयी, फिर डूब रहे पचास से ज्यादा लोगों को बचाने के लिए गोताखोरों, पीएसी जवानों और नावों को लगाया गया। फिर भी तीन ग्रामीणों का पता नहीं चल पाया। ग्रामीणों की मानें तो वे डूब मरे, जबकि पुलिस कहती है कि वे पकड़े जाने के डर से भागे हुए हैं।

जो भी हो, इन ग्रामीणों के समक्ष अब कोढ़ में खाज की स्थिति है। पुलिस द्वारा किया जा रहा निर्मम दमन आगे आ गया है और बाढ़ से राहत या पुनर्वास का मुद्दा पीछे छूट गया है। पुलिस ने घटना के दिन भी ग्रामीणों को कुछ कम सबक नहीं सिखाया था। चार दर्जन ग्रामीणों को घायल कर उनकी साइकिलें व मोटरसाइकिलें जब्त कर ली थीं। अब उनको ढूंढ़-ढूंढ़कर संगीन धाराओं में जेल भेज रही है। कहते हैं कि उसने नौ ऐसे ग्रामीणों को जेल की हवा खिला दी है जो उस रोज घटनास्थल पर थे ही नहीं। अब वे अपनी निदरेषिता प्रमाणित करने में हलकान हैं और कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही।

प्रदेश के एक मंत्री अंबिका चौधरी वहां जाकर कह आये हैं कि कानून अपना काम करेगा। लेकिन प्रश्न है कि वह आंखें खोल कर करेगा या बंद करके? जो लोग दिल्ली में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलनों की बाबत सरकारी रवैये को लोकतंत्र के लिए अशुभ मानते हैं और ठीक ही मानते हैं, उनको इस ओर भी देखना चाहिए। सब्र का बांध टूट जाये तो लोग मरने या मारने पर उतारू होते ही हैं और सरकारों को उनके इन दोनों ही कृत्यों से समस्या होती है। जानें क्यों देश की सरकारें फिर भी ऐसे जतन नहीं करतीं कि नदियों पर बने तटबंध टूटें भी, तो लोगों के सब्र के बांध सलामत रहें।

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