बायोगैस: ऊर्जा का उपयोगी स्रोत (Biogas: useful source of energy)


लेखक का कहना है कि बायोगैस ग्रामीण जनता के लिये एक वरदान है, एक आदर्श खाना पकाने के ईंधन के अलावा भूमि को उपजाऊ बनाने और फसलों के उत्पादन में वृद्धि के लिये बायोगैस संयंत्र उत्तम खाद उपलब्ध कराते हैं। लेखक महसूस करता है कि इसके कई आर्थिक-सामाजिक लाभों को देखते हुए सरकार को बायोगैस इकाइयों की स्थापना को प्रोत्साहन देने की अपनी नीति जारी रखनी चाहिए।

1976 में डीजल तेल की आपूर्ति में कमी से उत्पन्न परिस्थिति के कारण हरियाणा राज्य के किसानों ने बायोगैस और तेल के मिश्रण से चलने वाले इंजन के निर्माण का एक विकल्प प्रस्तुत किया।

बायोगैस खत्म न होने वाला ऊर्जा का स्रोत है, क्योंकि इसका उत्पादन व्यापक रूप से उपलब्ध गोबर से होता है, उत्पादन इकाइयों का निर्माण, संचालन और रख-रखाव आसान होता है तथा राष्ट्रीय और उपभोक्ता स्तर पर इससे कई फायदे मिलते हैं कूड़ा-करकट से बायोगैस बनाने का विज्ञान साधारण नहीं है क्योंकि बहुत छोटे जीव एक-साथ मिलकर मीथेन गैस का उत्पादन करते हैं जो बायोगैस का ज्वलनशील तत्व है। मीथेन का उत्पादन करने वाले जीवाणु अपनी ही किस्म के जीवाणु हैं, जिन्हें आर्केबैक्टीरिया के नाम से जाना जाता है और अब इन्हें जीव जगत के वर्गीकरण में अलग वर्ग में रखा गया है। इस विज्ञान में अभी कई ऐसी अनजानी बातें हैं जिन पर विकसित और विकासशील देशों में वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ कार्य कर रहे हैं। लेकिन मनुष्य ने दलदली भूमि में बायोगैस के उत्पादन की प्राकृतिक विधि की नकल करना सीख लिया है और इस विज्ञान की पूरी जानकारी मिलने से बहुत पहले बायोगैस उत्पादन इकाइयों का विकास करना शुरू कर दिया।

हमारे वैज्ञानिकों के प्रयासों से 1953-55 में ग्रामलक्ष्मी नामक बायोगैस इकाई का व्यवहारिक नमूना विकसित किया गया जो बनाने में सरल और चलाने में आसान था, यह डिजाइन विश्व भर में बायोगैस संयंत्र के भारतीय मॉडल के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1962 में खादी एवं ग्राम उद्योग आयोग में इसके विस्तार के लिये कार्य करना प्रारम्भ किया। इसमें मुख्य रूप से रोजाना गोबर और पानी को बराबर मात्रा में मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है। इस मिश्रण को बंद गड्ढे में 30 से 55 दिन तक रखा जाता है जिससे इससे समुचित ईंधन प्राप्त हो सके। अपचयित घोल का उपयोग उत्तम खाद के रूप में किया जाता है और यह संयंत्र से हर दिन उपलब्ध होता है। इसका उपयोग कृषि, मत्स्य पालन और खुंभी के उत्पादन आदि में किया जाता है। इन दो आर्थिक फायदों के अलावा बायोगैस संयंत्र के कई सामाजिक फायदे होते हैं।

महिलाओं के लिये वरदान


बायोगैस संयंत्र महिलाओं और बच्चों द्वारा ईंधन-सामग्री को इकट्ठा करने और उन्हें सिर पर लाद कर लाने, धुएँ भरे रसोई घर में काम करने, खाना बनाने में बहुत ज्यादा समय बर्बाद होने और धुएँ से काले हुए बर्तनों को मांजने तथा धुएँ के कारण आँख और फेफड़ों की बीमारी जैसी परेशानियों को दूर करने या पूरी तरह समाप्त करने में सहायक होते हैं। इसकी पुष्टि गुजरात में सुरेन्द्र नगर के बामेनबोर गाँव की लाधुबेन के इस कथन से होती है कि ‘‘बायोगैस की कीमत आंकी नहीं जा सकती। इसने मेरी जिन्दगी बीस साल और बढ़ा दी है।”

इसका उपयोग करने वाली महिलाओं के विभिन्न अनुभव इस प्रकार हैंः

- धुएँ और बिच्छू से डंकों से छुटकारा क्योंकि जलाने की लकड़ी या ढेर में से उपले निकालने में हमेशा बिच्छू के काटने का भय होता है।
- कंटीले पेड़ों की टहनियों को काटते समय हाथों के छिल जाने से निकलने वाले खून से छुटकारा।
- घर में विशेष रूप से बरसात के मौसम में जलाने की लकड़ी का या उपलों को जमा करने की जरूरत न होने के कारण काफी जगह की बचत।
- बच्चों को अधिक समय दे सकते हैं।
- आग जलाने की लकड़ी इकट्ठा करने या माँ के लड़की लेने के लिये बाहर जाने पर छोटे भाई-बहनों की देखभाल की आवश्यकता न होने के कारण स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या में वृद्धि।

सम्भावनाएँ और उपलब्धियाँ


आंकलनों से संकेत मिलता है कि कम-से-कम चार फालतू जानवरों के स्वामित्व के आधार पर देश भर में पारिवारिक किस्म के लगभग चार करोड़ बायोगैस संयंत्र स्थापित करने की क्षमता है। हालाँकि अगले 10-15 वर्षों में लगभग एक करोड़ बीस लाख इकाइयों की स्थापना की सम्भावना व्यक्त की गई। पत्तों, फसलों के अवशेष, कूड़ा-करकट, खर-पतवार आदि का उपयोग करने वाले नए साधारण डिजाइनों के सम्भावित विकास के बाद यह क्षमता और बढ़ जाएगी। अभी तक देश में केवल सोलह लाख चालीस हजार से अधिक बायोगैस इकाइयाँ स्थापित की गई हैं, जो कुल क्षमता का 13 प्रतिशत है। हालाँकि बायोगैस इकाइयों के निर्माण की वार्षिक दर में बहुत ज्यादा वृद्धि हुई जो 1980 में 10,000 संयंत्रों से बढ़कर इस समय लगभग 1,80,000 संयंत्र हो गई है। यह अपने-आप में कोई छोटी उपलब्धि नहीं है फिर भी पूरी क्षमता का उपयोग करने के लिये अभी काफी काम करना बाकी है। सारणी-1 में दिए गए राज्यवार आँकड़ों से पता चलता है कि यह वृद्धि असमान है क्योंकि केवल गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र, मिजोरम और तमिलनाडु राज्यों में ही कुल क्षमता का बीस प्रतिशत उपयोग हुआ है तथा बाकी राज्य काफी पीछे है।

राष्ट्रीय परियोजना


गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान राष्ट्रीय बायोगैस विकास परियोजना के क्रियान्वयन को जारी रख रही है यह परियोजना केन्द्र द्वारा प्रायोजित योजना के रूप में 1981-82 में शुरू की गई थी। आठवीं योजना के दौरान साढ़े सात लाख इकाइयों की स्थापना का लक्ष्य है। इसके लिये तीन अरब दस करोड़ रुपये का प्रावधान है। 1992-93 के लिये परियोजना के तहत एक लाख पैंतीस हजार संयंत्र लगाने का लक्ष्य है और इसके लिये 56 करोड़ 87 लाख रुपये का बजट निर्धारित किया गया है।

परियोजना के तहत निम्नलिखित प्रोत्साहन दिए जाते हैंः

- लाभान्वित व्यक्तियों के लिये केन्द्रीय सब्सिडी केवल कम क्षमता वाले संयंत्रों के लिये छोटे और सीमांत किसानों तथा अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये सब्सिडी की ऊँची दर असम के मैदानी इलाके, उत्तर प्रदेश का तराई क्षेत्र, पश्चिमी धार और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में और अधिक दर तथा पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पहाड़ी जिलों में सब्सिडी की सबसे ज्यादा दर।

- स्वरोजगार में लगे प्रशिक्षित लोगों, स्वयंसेवी संगठनों, राज्य निगमित निकायों आदि को कार्य पूरा करके और संयंत्रों को चालू करने के लिये प्रति संयंत्र चार सौ रुपये की दर से शुल्क, इसमें लाभान्वित लोगों को मुफ्त रख-रखाव के लिये कम-से-कम दो साल की गारण्टी का प्रावधान।

- स्कूलों के अध्यापकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, गाँव स्तर पर सरकारी कर्मचारियों आदि जैसे अधिसूचित प्रोत्साहकों को प्रति संयंत्र पचास रुपये की दर से नकद प्रोत्साहन।

- विकास खंड, जिला और राज्य स्तर पर बायोगैस केन्द्र प्रकोष्ठों की स्थापना के लिये परियोजना क्रियान्वयन विभागों और एजेंसियों को सेवा शुल्क।

- वारण्टी अवधि के समाप्त होने के बाद एक बार प्रति संयंत्र 750 रुपये की दर से मरम्मत शुल्क अलग-अलग मामले के आधार पर सब्सिडी के बराबर ज्यादा मरम्मत शुल्क।

- किसानों के कम-से-कम आधा एकड़ क्षेत्रफल वाले खेतों में खाद के इस्तेमाल का प्रदर्शन रुपये 1000/- प्रति प्रदर्शन की दर से।

- सर्वश्रेष्ठ काम करने वाले राज्यों, जिलों और पंचायतों को नकद पुरस्कार, वाणिज्य और सहकारी बैंक कृषि सम्बंधी प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के तहत मध्यम अवधि के ऋण देकर बायोगैस कार्यक्रम की सहायता कर रहे हैं। इस ऋण को जमीन को गिरवी रखे बिना पाँच से सात वर्ष में वापस करने का प्रावधान है।

प्रौद्योगिकी


गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय ने बायोगैस संयंत्रों के सात नमूनों के विस्तार को मंजूरी दी है, जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय और नए डिजाइन हैं।

- तैरता गैस धारक खादी और ग्रामोद्योग आयोग किस्म
- स्थिर गुम्बद वाला दीनबंधु मॉडल
- प्रगति माॅडल।
- पहाड़ी क्षेत्र के लिये रबर युक्त नाइलोन फाइबर का आसानी से उठाए जा सकने वाला माॅडल।

दीनबंधु माॅडल की स्थापना और रख-रखाव में सबसे कम लागत आती है। यह ईंट, सीमेंट और बालू का बना होता है तथा गैस को संग्रह करने वाले गुम्बद में रिसाव न हो, इसके लिये उच्च निर्माण कौशल की आवश्यकता होती है। इसका उपयोग अधिकतर उचित कुशलता प्राप्त करने के लिये व्यावसायिक मिस्त्रियों, राजगीरों के प्रशिक्षण, उत्तम किस्म के सीमेंट और ईंटों के उपयोग और स्वीकृति मानदंडों के अनुसार कड़े निरीक्षण के तहत इकाई के निर्माण के लिये किया जाता है जबकि खादी और ग्रामोद्योग आयोग किस्म का संयंत्र हालाँकि खर्चीला है फिर भी इसका निर्माण संचालन, रख-रखाव और मरम्मत आसान है।

सफाई


मानव अपशिष्ट को खाद के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर फ्लश शौचालयों को बायोगैस इकाइयों से जोड़ दिया जाए इससे सेप्टिक टेंक या लीच पिटों (गढ्ढ़ों) के निर्माण की जरूरत नहीं पड़ेगी और पैसों की बचत में सहायता मिलेगी। गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय शौचालयों के निर्माण और उसे बायोगैस इकाई से जोड़ने के लिये अतिरिक्त केन्द्रीय सब्सिडी या काम पूरा करने का शुल्क देता है। देश में लगभग पिचानवे हजार शौचालयों को बायोगैस इकाइयों से जोड़ दिया गया है। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और गुजरात में ये काफी लोकप्रिय हैं। सामुदायिक, संस्थागत और मल पर आधारित बायोगैस संयंत्र कार्यक्रम के तहत सामुदायिक शौचालयों से जुड़े साठ संयंत्रों की स्थापना की जा चुकी है। विशेष रूप से कस्बों में उनकी मांग बढ़ती जा रही है।

डीजल-तेल की बचत


1976 में डीजल तेल की आपूर्ति में कमी से उत्पन्न परिस्थिति के कारण हरियाणा राज्य के किसानों ने बायोगैस और तेल के मिश्रण से चलने वाले इंजन के निर्माण का एक विकल्प प्रस्तुत किया। दोहरे ईंधन वाले इंजन अब बाजार में उपलब्ध हैं। इनमें 80 प्रतिशत तक बायोगैस का इस्तेमाल किया जाता है। बायोगैस का उपयोग कर डीजल बचाने को प्रोत्साहन देने के विचार से गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय ने हाल ही में एक प्रदर्शनी योजना शुरू की है। इसके अंतर्गत डीजल इंजन के रूपांतरण और गैस को लाने-ले जाने के वास्ते प्लास्टिक या रबड़ के बने दो या तीन गुब्बारों के लिये ढाई हजार रुपयेे तथा हर रोज आठ से पन्द्रह क्यूबिक मीटर गैस उत्पादन की क्षमता वाले प्रति संयंत्र पाँच हजार रुपये की वित्तीय सहायता दी जाती है। आठवीं योजना के दौरान एक साल में ऐसे पाँच सौ प्रदर्शनी की योजना बनाई गई है। बायोगैस के ऐसे उपयोगों के आर्थिक विश्लेषण से पता चलता है कि केन्द्रीय सहायता को छोड़कर लगाई गई कुल पूँजी की कीमत दो साल से कम की अवधि में वापस मिल जाती है।

प्रशिक्षण सहायता


राष्ट्रीय बायोगैस विकास परियोजना के प्रभावी और त्वरित क्रियान्वयन के वास्ते राज्यों के सम्बद्ध विभागों और क्रियान्वयन एजेंसियों को तकनीकी और प्रशिक्षण सहायता देने के लिये विकेन्द्रीकरण का दृष्टिकोण अपनाया गया है। चौदह क्षेत्रीय बायोगैस विकास और प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किए गए हैं। इनमें से प्रत्येक निम्नलिखित स्थानों पर हैः

- आंध्र प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय-हैदराबाद
- असम कृषि विश्वविद्यालय-जोरहाट
- गाँवों के लिये विज्ञान केन्द्र-वर्धा
- (सेण्टर ऑफ सांइस फार विलेजेज)
- गुजरात कृषि विश्वविद्यालय, आणव
- हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर
- भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर
- गैर-परम्परागत ऊर्जा संस्थान, नासिक (इंस्टीयट्यूट ऑफ रिन्यूएबल एनर्जी)
- कस्तूरबा ग्राम कृषि क्षेत्र, इंदौर
- उड़ीसा कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर
- राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, उदयपुर
- राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा-समस्तीपुर
- ग्रामीण विकास क्षेत्रीय संस्थान
- तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर और
- कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, बंगलोर।

ये केन्द्र बायोगैस के बारे में क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी साहित्य और प्रशिक्षण सामग्री भी उपलब्ध कराते हैं। कोयम्बटूर, इन्दौर और खड़गपुर केन्द्रों ने क्रमशः ग्रामीण मिस्त्रियों, लाभान्वित महिलाओं और निरीक्षकों के लिये संचार किट तैयार किए हैं। उदयपुर केन्द्र ने बायोगैस संयंत्र की मरम्मत और रख-रखाव के बारे में हिन्दी में एक पुस्तिका निकाली है। इन किटों का उपयोग प्रशिक्षण कार्य और कार्यक्रम की गुणवत्ता में सुधार के लिये क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं को आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराने के लिये किया जाता है।

कार्य विधि


निगरानी और मूल्यांकन की तीन स्तरीय प्रणाली चलन में है। पहला स्तर हर तीन महीने बाद परियोजना क्रियान्वयन विभाग और एजेंसियों की निरीक्षण रिपोर्टों के आधार पर स्वयं निगरानी रखना है। दूसरा स्तर अपने आठ क्षेत्रीय कार्यालयों के माध्यम से गैर-परम्परागत ऊर्जा स्रोत मंत्रालय द्वारा सीधी निगरानी है। अंतिम स्तर स्वतंत्र अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद नई दिल्ली द्वारा किए गए तीसरे दौर के नमूना सर्वेक्षण अध्ययन के परिणामों से पता चलता है सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान स्थापित संयंत्रों में से 77.1 प्रतिशत चालू संयंत्र संतोषजनक ढंग से काम कर रहे हैं। कार्यरत संयंत्रों की राज्यवार स्थिति सारणी-2 में दी गई है। इस अध्ययन में बीस राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों के 251 जिलों में स्थापित लगभग 27,000 संयंत्रों के कुल नमूने शामिल हैं।

जागरूकता अभियान


राष्ट्रीय अनुप्रयुक्त आर्थिक अनुसंधान परिषद के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि दो तिहाई बायोगैस संयंत्र अनुसूचित जाति और जनजाति तथा छोटे और सीमान्त किसानों के पास हैं। हालाँकि केवल 15 प्रतिशत परिवार अपनी संयंत्रों की पूरी क्षमता का उपयोग कर रहे थे जबकि 27 प्रतिशत परिवारों के पास इस काम के लिये समुचित मात्रा में गोबर उपलब्ध है। इसलिए कम-से-कम ऐसे गाँवों में जहाँ काफी संयंत्र हैं, शैक्षिक जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। गुजरात, महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, तथा खादी और ग्रामोद्योग आयोग को भी स्थानीय मुहावरों और लोककलाओं के आधार पर विकसित क्षेत्रीय कार्यक्रमों के आधार पर अभियान शुरू करने के लिये चुना गया है। इसका उद्देश्य बायोगैस संयंत्र वाले लगभग हर परिवार को तीन साल की अवधि में एक बार सम्पर्क करना है। दूसरे चरण में आंध्र प्रदेश, असम, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल राज्यों को शामिल करने का प्रस्ताव है।

अनुसंधान और विकास


बायोगैस अनुसंधान और विकास कार्यक्रम का उद्देश्य (1) गोबर और अन्य कार्बनिक अपशिष्टों द्वारा बायोगैस उत्पादन की अवधि को 5 से 8 प्रतिशत तक बढ़ाना (2) गैस उत्पादन दर को दुगुना करना और (3) उर्वरक गुणवत्ता को बढ़ाना है। अन्नामलाई विश्वविद्यालय, अन्नामलाई नगर हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार; भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली, भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर, महाराष्ट्र, एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंसेज, पूणे राष्ट्रीय डेरी अनुसंधान संस्थान, करनाल, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर तथा टाटा ऊर्जा अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली नामक आठ संस्थानों में सूक्ष्म जैविकी और मीथेन उत्पादन की जैविक प्रक्रिया अभियांत्रिकी के बारे में एक समन्वित परियोजना चल रही है। इन संस्थानों ने सैलुलोज और वसा अम्लों के अपव्यय तथा मीथेन के उत्पादन के लिये प्रयोगशाला में संवर्द्धन द्वारा वाल निरपेक्षी जीवाणुओं को अलग किया है। आनुवंशिक अभियांत्रिकी (जैनेटिक इंजीनियरिंग) तकनीकी द्वारा बेहतर किस्मों के उत्पादन और उनके व्यवहारिक उपयोग के प्रयास किए जा रहे हैं। भारतीय विज्ञान संस्थान और तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय पत्ती वाले जैविक पदार्थों के संसाधन के लिये बायोगैस संयंत्र के व्यावहारिक कार्यकुशल डिजाइन के विकास की संयुक्त परियोजना चला रहे हैं।

अन्नामलाई विश्वविद्यालय भारतीय कृषि उद्योग प्रतिष्ठान, पूणे केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिक अनुसंधान संस्थान, मैसूर केन्द्रीय निर्मल जल मत्स्य पालन संस्थान (सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वाटर एक्वाकल्चर), भुवनेश्वर और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना विविध कार्यों में खाद्य का बहुमूल्य उपयोग कर रहे हैं अन्नामलाई विश्वविद्यालय के तत्वावधान में राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में बायोगैस संयंत्र से प्राप्त घोल की परत वाले विभिन्न फसलों के बीजों का खेतों में परीक्षण किया जा रहा है। भारतीय कृषि उद्योग प्रतिष्ठान घोल का उपयोग कम्पोस्ट खाद बनाने में कर रहा है और केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिक अनुसंधान संस्थान प्रयोगशाला में ऊतकों से प्राप्त पौधों की जड़ों को जमाने के लिये इसका माध्यम के रूप में उपयोग करने का प्रयास कर रहा है। इसी तरह केन्द्रीय निर्मल जल मत्स्य पालन संस्थान और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय क्रमशः मत्स्य पालन मशरुम उत्पादन घोल के उपयोग के लिये इस्तेमाल के तरीकों का विकास कर रहे हैं।

हाल ही में उर्वरकों का मूल्य निर्धारण करने वाली संसदीय समिति ने कृषि के लिये इसकी प्रासंगिकता की फिर से पुष्टि की है, समिति ने सन 2000 तक एक करोड़ बीस लाख संयंत्रों की स्थापना के लक्ष्य को पूरा करने के लिये लम्बी अवधि के बायोगैस विकास कार्यक्रम को सरकारी सहायता देने का सुझाव दिया है। इसी तरह नई दिल्ली में हाल में ग्रामीण सफाई पर आयोजित राष्ट्रीय विचार गोष्ठी में सुझाव दिया गया कि शौचालयों से जुड़े बायोगैस संयंत्रों को अपनाने में जो सामाजिक अड़चनें हैं उन्हें दूर करने के लिये महिलाओं के वास्ते व्यापक स्तर पर शिक्षा कार्यक्रम चलाए जाएँ। हालाँकि बायोगैस के विकास का नया चरण तो शुरू हो चुका है। उसकी सफलता गैस उत्पादन की दर को बढ़ाने और इस तरह संयंत्रों की लागत में कमी आने के लिये वैज्ञानिक पहल, संयंत्रों के निर्माण और स्थापना के बाद उनकी देखरेख के लिये स्वरोजगार पर लगे युवकों और स्वयंसेवी संगठनों के व्यापक स्तर पर भाग लेने संयंत्रों के काम न करने या उन्हें नुकसान पहुँचाने पर बैंकों से बीमा योजना सहित वित्तीय सहायता पर निर्भर करेगी।

सारणी - 2
घरेलू बायोगैस संयंत्रों का मूल्यांकन सर्वेक्षण अध्ययन-नमूना माप और कार्यरत चालू संयंत्रों का प्रतिशत।

राज्य/केन्द्र शासित प्रदेश

नमूना माप (संयंत्रों की संख्या)

काम कर रहे संयंत्रों का प्रतिशत

आंध्र प्रदेश

1989

74.6

असम

705

90.4

बिहार

1797

58.9

गुजरात

2009

88.5

हरियाणा

785

82.8

हिमाचल प्रदेश

699

80.2

कर्नाटक

1505

95.0

केरल

1109

85.5

मध्य प्रदेश

1410

79.7

महाराष्ट्र

4410

80.7

मिजोरम

205

50.0

उड़ीसा

1510

76.8

पंजाब

403

99.7

राजस्थान

1208

44.8

तमिलनाडु

2700

80.5

उत्तर प्रदेश

2990

48.6

पश्चिम बंगाल

1310

90.8

दिल्ली

98

25.4

मणिपुर

55

83.3

सिक्किम

55

86.5

समस्त भारत

26952

77.1

 



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