बड़ी सिंचाई परियोजनाओं के कार्य प्रदर्शन की चौकाने वाली कहानी

15 सालों से नहरों द्वारा सिंचित इलाकों में कोई बढ़ोतरी नहीं

 

सन 1991-92 से सन 2006-07 (नवीनतम वर्ष जब तक के आंकड़े उपलब्ध हैं) तक के 15 सालों में, राज्यों से प्राप्त वास्तविक जमीनी आंकड़ों पर आधारित केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के अधिकृत आंकड़ो के अनुसार बड़ी और मध्यम स्तर (मझोले) की सिंचाई परियोजनाओं से शुद्ध सिंचित इलाकों (Net Irrigated Area) में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। अप्रैल 1991 से मार्च 2007 तक, देश ने नहरों द्वारा सिंचित इलाकों में बढ़ोतरी के लक्ष्य से बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर 130,000 करोड़ रुपये खर्च किया है।

 

दो साल पहले (डैम्स, रिवर्स एंड पिपुल के सितंबर-अक्तूबर 2007 के अंक में कवर पेज का लेख देखें http://www.sandrp.in/drp/Sept_Oct2007.pdf) हमने दिखाया था कि यही कहानी मार्च 2004 तक समाप्त होने वाले 12 वर्षों के लिए थी। उसके बाद हमने केन्द्रीय कृषि मंत्रालय से जानकारी (सूचना के अधिकार के तहत, जो कि विभाग के अधिकारिक वेबसाइट http://www.dacnet.nic.in/eands/LUS_1999_2004.htm पर भी उपलब्ध है) हासिल की है, जो बताती है कि प्रवृत्ति लगातार एक जैसी रही है, जिसे संलग्न ग्राफ-1 में देखा जा सकता है। अधिकारिक आंकड़े दिखाते हैं कि रुपये 130,000 करोड़ खर्च करने के बावजूद देश में पिछले 15 सालों में नहरों द्वारा शुद्ध सिंचित इलाकों में एक भी हेक्टेअर की बढ़ोतरी नहीं हुई है। जबकि वास्तव में, इस अवधि में इन परियोजनाओं से सिंचित इलाकों में 24.40 लाख हेक्टेअर की जबरदस्त कमी आयी है।

 

यह बहुत गंभीर चिंता की वजह होनी चाहिए और जल संसाधन मंत्रालय, विभिन्न राज्यों एवं योजना आयोग को कुछ कड़े सवालों का जवाब देना होगा। लेकिन जल संसाधन मंत्रालय, योजना आयोग एवं अन्य सभी अधिकृत एजेंसियों को हमारे जल संसाधन निवेश का ज्यादातर हिस्सा लगातार बड़ी सिचाई परियोजनाओं में खर्च करने की मूर्खता का एहसास नहीं है। मौजूदा जारी 11वी पंचवर्षीय योजना सहित हमारी सभी पंचवर्षीय योजनाओं में जल संसाधन विकास के पूरे बजट का करीब दो तिहाई बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए उपयोग किया गया है।

 

इस अवधि में, जल संसाधन मंत्रालय दावा करती रही है (उदाहरण के तौर पर 11वीं योजना के लिए जल संसाधन के कार्यसमूह की रिपोर्ट और बाद अतिरिक्त जानकारी में) कि उसने देश ने 1.05 करोड़ हेक्टेअर की अतिरिक्त सिंचाई क्षमता तैयार कर ली है और 78.2 लाख हेक्टेअर अतिरिक्त उपयोग क्षमता तैयार कर ली है। लेकिन अधिकारिक आंकड़े इस जमीनी सच्चाई को साबित कर रहे हैं कि दावे कितने खोखले रहे हैं। जल संसाधन मंत्रालय ऐसे दावे बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के निवेश में और ज्यादा आबंटन की मांग के लिए करती रही है। उदाहरण के तौर पर, जल संसाधन मंत्रालय ने प्रस्ताव किया है कि निर्माणाधीन बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए 11वीं योजना में रुपये 165900 करोड़ आबंटित किया जाना चाहिए। मौजूदा तथ्य साबित करते हैं कि इस तरह सार्वजनिक धन की पूरी तरह बरबादी की संभावना है।


पूरे देश में नहरों द्वारा शुद्ध सिंचित इलाके 1991-92 में 1.779 करोड़ हेक्टेअर थे। इतने सालों के बाद, सन 2006-07 तक (नवीनतम वर्ष जब तक लिए आंकड़े मौजूद हैं), नहरों द्वारा शुद्ध सिंचित इलाके न सिर्फ 1.779 करोड़ हेक्टेअर से कम हुए हैं बल्कि यह लगातार गिर रहा है, यह प्रवृत्ति संलग्न ग्राफ-1 में देखा जा सकता है। सन 1990-91 से 2006-07 तक की अवधि के लिए समस्त स्रोतों से शुद्ध सिंचित इलाकों के आंकड़े उपरोक्त सारिणी में दिए गए हैं। संलग्न सारिणी-1 से स्पष्ट है कि 1990-91 में समस्त स्रोतों से शुद्ध सिंचित इलाका 4.802 करोड़ हेक्टेअर था जो कि 2006-07 में बढ़कर 6.086 हेक्टेअर हो गया, जो कि संलग्न ग्राफ-2 से स्पष्ट है।

 

इसी तरह इस अवधि में समस्त स्रोतों से सकल सिंचित इलाके (Gross Irrigated Area - यदि किसी इलाके में साल में दो फसल लिए जाते हैं तो सकल सिंचित इलाके में इसे दो बार गिना जाएगा, जबकि शुद्ध सिंचित इलाके में इसे एक बार गिना जाएगा) बढ़ रहें हैं, जैसा कि संलग्न ग्राफ-2 में देखा जा सकता है। सम्पूर्ण भारत के शुद्ध और सकल सिचिंत इलाके में यह बढ़ोतरी भूजल द्वारा सिंचित इलाके में बढ़ोतरी के कारण संभव हुआ है, जो सन 1990-91 में 2.469 करोड़ हेक्टेअर से बढ़कर सन 2006-07 में 3.591 करोड़ हेक्टेअर हो गया। वास्तव में भूजल से सिंचित इलाकों में बढ़ोतरी ने जल संसाधन मंत्रालय को बड़े बांधों के अक्षम कार्य प्रदर्शन की सच्चाई को छिपाने में मदद की है।

 

इस अवधि में नहरों से चार प्रमुख राज्यों (आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और जम्मू एवं कश्मीर) के सकल (एवं शुद्ध) सिंचित इलाकों के लिए उपलब्ध आवश्यक आकड़े इसी प्रवृत्ति को दर्शाते हैं जिन्हें संलग्न ग्राफ-5,6,7,8 में देखा जा सकता है। ये ग्राफ दर्शाते हैं कि यहां तक कि नहरों से होने वाले सकल सिंचित इलाकों में भी गिरावट आ रही है, जबकि हमारे पास इन सालों में पूरे देश के सकल सिंचित इलाकों के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

 

सन 1991 से 2007 की अवधि में (2002 एवं 2004 के संभावित अपवाद को छोड़कर) ज्यादातर सालों में बारिश की स्थिति सामान्य से बेहतर रही है। इसलिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह प्रवृत्ति कम वर्षा की वजह से है।

 

वजह इस परिस्थिति के लिए कुछ वजहों में शामिल हैं: जलाशयों एवं नहरों में गाद जमा होना, सिंचाई अधोसंरचना के रखरखाव का अभाव, नहरों के शुरूआती इलाकों में ज्यादा पानी खपत वाले फसले लेना और नहरों का न बनना और एक नदीघाटी में जरूरत से ज्यादा (वहन क्षमता से ज्यादा) परियोजनाएं बनना, जल जमाव व क्षारीयकरण, पानी को गैर सिंचाई कार्यो के लिए मोड़ना, भूजल दोहन का बढ़ना। कुछ लोगों द्वारा एक वजह बतायी जाती है: बढ़ी हुई वर्षा जल संचयन। कुछ मामलों में, नये परियोजनाओं से बढ़ने वाले इलाके आंकड़ों में परिलक्षित नहीं होते हैं क्योंकि पुरानी परियोजनाओं से सिंचित इलाके (उपरोक्त कारणों से) कम हो रहे हैं। वास्तव में विश्व बैंक की 2005 की रिपोर्ट ‘‘इंडियाज वाटर इकॉनामीः ब्रैसिंग फॉर ए टर्बुलेंट फ्यूचर’’ ने स्पष्ट किया है कि भारत के सिंचाई अधोसंरचनाओं (जो कि दुनिया में सबसे बड़ी है) के रखरखाव के लिए सलाना वित्तीय आवश्यकता रुपये 17,000 करोड़ है, लेकिन इसके लिए इस रकम का 10 प्रतिशत से भी कम उपलब्ध है और उनमें से ज्यादातर का अधोसंरचनाओं के भौतिक रखरखाव के लिए उपयोग नहीं होता है। कुछ अति-विकसित नदीघाटियों में, नई परियोजनाएं कुछ भी बढ़ोतरी नहीं करती, क्योंकि वे कुछ डाउनस्ट्रीम इलाकों (बांध के नीचे के इलाके) के पानी को छीन रही होती हैं। जल विज्ञान के आशावादी आंकड़े, जो बड़ी सिंचाई परियोजनाओं में लगभग सर्वव्यापी हैं, का मतलब है कि परियोजनाओं में प्रस्तावित लाभों को प्रदान करने के लिए पर्याप्त पानी नहीं होता है। जलवायु परिवर्तन इस परिस्थिति को और बदतर बना सकते हैं।

 

परिणाम इन निष्कर्षों के गंभीर निहितार्थ हैं। पहली बात, ये बहुत स्पष्ट तौर पर साबित करते हैं कि देश में हर साल बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर खर्च होने वाले हजारो करोड़ से शुद्ध सिंचित इलाकों में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है। दूसरी बात, यह कि सिंचित इलाकों में वास्तविक बढ़ोतरी भूजल से होने वाली सिंचाई से हो रही है और भूजल सिंचित खेती की जीवनरेखा है। अंततः, इससे बहुत सारे जावबदेही के सवाल उठते हैं: इन गलत प्राथमिकताओं को तय करने के लिए कौन जिम्मेदार है और इनके परिणाम क्या होंगे? यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि नये बड़ी व मध्यम सिंचाई परियोजनाओं के लिए पैसे खर्च करने के बजाय, यदि हम मौजूदा अधोसंरचनाओं के मरम्मत एवं उपयुक्त रखरखाव में, जलाशयों में गाद को कम करने के उपाय में, साथ ही वर्षा जल संचयन, भूजल रिचार्ज एवं वर्षा आधारित क्षेत्रों में ध्यान देने में रकम खर्च करते हैं तो देश को ज्यादा फायदा होगा। भूजल के मामले में, हमें मौजूदा भूजल को सुरक्षित रखने और उसके संवर्धन को उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है।

 

अब जबकि योजना आयोग 11वीं पंचवर्षीय योजना की मध्यावधि समीक्षा शुरू होनी है तो, हमारे जल संसाधन योजनाओं में मूलभूत बदलाव करने का स्वर्णिम अवसर है। विश्व बैंक की रिपोर्ट का कहना है कि यदि हम इस अवसर को चूक जाते हैं तो, वर्तमान में जारी हमारी गलत प्राथमिकताओं और ग्लोबल वार्मिंग दोनों के संयुक्त परिणामस्वरूप न तो हमारे लोगों के लिए और न ही अर्थव्यवस्था के लिए पानी बचेगा, और न मौजूदा लाभों को कायम रखने के लिए धन मौजूद होगा।

 

Tags: Irrigation, Planning Commission, decreasing, performance, canal, groundwater, recharge, priority, rainwater harvesting, 11th plan

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