कोहराम मचाता बादल आखिर फट ही गया 

19 Mar 2022
0 mins read
बादल फटना, फोटो: needpix.com
बादल फटना, फोटो: needpix.com

आसमान में अठखेलियां करते बादल तपती गर्मी के बाद धरती की चाहत होते हैं कि बरसो बदरा बरसो! मगर कहीं ये बादल बिन बरसे सलामी लिए गुजर जाते हैं और सूखे जैसी आपदा पैदा करते हैं, तो कहीं पर वे इस कदर बरसते हैं कि बाढ़ जैसी आपदा लपलपाती है। मगर कहीं दशा उससे भी ज्यादा भयावह होती है क्योंकि पानी ढोते ये बादल फट पड़ते हैं और कहर ढाते हैं। 6 अगस्त 2010 को ऐसा ही कहर लद्दाख क्षेत्र में बरपा, जो देखते-देखते कितनों को लील गया, तबाह कर गया, क्षेत्रों को जलमग्न कर गया। प्रस्तुत है बादल फटने की घटना का वैज्ञानिक विश्लेषण।

देश की छत कहा जाने वाला लेह-लद्दाख क्षेत्र, एक शुष्क क्षेत्र है जिसकी तुलना कोल्ड डेजर्ट यानी शीततटीय मरूस्थल से की जाती है। लोग यहां गर्मी से राहत पाने के लिए बादल की चाहत करते हैं, मगर वर्षा सामान्य नहीं हो पाती। 6 अगस्त 2010 को शाम ढलते ही जब धुंध सी छाई तो लोग घरों में रात के स्वागत में जुट गए, रसोई पकी, प्लेटें सजीं, खाना खाया गया। रात को कहवा पी लोग, बिस्तरों में जा पसरे। मगर रात का पहला पहर विदा होते-होते, आसमां में बादल मडराए और अचानक क्षेत्र विशेष में ढेरों पानी पूरे जोर के साथ बरस गया। यह बादल का फटना था।

एक के बाद एक दो जगह बादल फटे और पूरा क्षेत्र दहल गया। एक बादल लेह क्षेत्र में फट गया, दूसरा नीमू में अपना कहर ढा गया। लेह क्षेत्र के लोग अभी आंख खोल भी नहीं पाए थे कि वे हमेशा-हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गए। मिट्टी के घरों पर बरसा यह कहर घरों और घरवालों को मटियामेट कर गया। पांग गांव से रोतोंग हाइवे और नीमू तक कोई डेढ़ सौ किलोमीटर के क्षेत्र में बादल फटने के कारण पहले बाढ़ और फिर भूस्खलन की चपेट में आ गए। फ्यांग, कोग्लूसार, शॉप्पू आदि कई गांवों में जान-माल का भारी नुकसान हुआ। दुखद घटना पर कलम चलाने तक मरने वालों की संख्या सैकड़ों पार कर चुकी थी। यही नहीं दूरदर्शन केन्द्र, आकाशवाणी केन्द्र तथा कई अन्य सरकारी कार्यालय तो क्षतिग्रस्त हुए ही, साथ ही आईटीबीपी और सीआरपीएफ के कैम्प भी बह गए।

प्रकृति का रौद्र रूप

भारत ही नहीं, इस समय प्रकृति का रौद्र रूप एशिया के अन्य देशों में भी देखने को मिल रहा है। चीन, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश जैसे देश, इसके उल्लेखनीय उदाहरण हैं। पाकिस्तान के सिंध प्रांत में इसी दौरान आई भयंकर बाढ़ के कारण 1600 लोग अपनी जान गंवा बैठे। मानसूनी बारिश के कारण सिंध के 11 जिले बाढ़ की चपेट में हैं। इसी प्रकार चीन के पश्चिमोत्तर मानसून प्रांत के झोडकू शहर में सात अगस्त की रात से तेज बारिश का सिलसिला प्रारंभ हुआ, जो सप्ताह भर चला। इससे न केवल बाढ़ की स्थिति पैदा हुई बल्कि भूस्खलल की कई घटनाएं भी घटित हुईं। इस गंभीर प्राकृतिक दुर्घटना ने लगभग 50 लोगों की जान ले ली और दो हजार से ज्यादा लोगों के गुमशुदा होने की रिपोर्ट दर्ज हुई।

आसमां से बरसता ऐसा ही कहर अगस्त माह में जर्मनी में भी देखा गया। यहां लगातार भारी बारिश हुई, जिसका प्रभाव बड़े क्षेत्र में बाढ़ विभीषिका के रूप में देखा गया। इसका असर कुछ बांधों पर भी पड़ा। यहां के शहर रेडोमेडरजाइस में एक बांध में भारी दरार देखी गई। लिखे जाने तक वहां बांध का एक भाग टूट जाने की आशंका बनी हुई थी। वर्षा का प्रभाव जर्मनी की नीस नदी पर भी देखा गया, जो उफान पर थी और आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ ले आई। अब इस नदी के किनारे स्थित गोएहिड्ज शहर सहित कई अन्य शहरों में बाढ़ ने पांव पसार लिये थे। असल में यह विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन का प्रचंड प्रभाव है जो धीरे-धीरे रौद्ररस-पगी प्रकृति का बदलता स्वरूप दिखा रहा है। बादलों का फटना इसी रूप का एक दहलाता उदाहरण है। ज्ञात हो कि बादलों का फटना कोई आम प्राकृतिक प्रकोप नहीं है। फिर लद्दाख में तो लोगों को याद भी नहीं कि कब बादल फटा था। वैज्ञानिक सर्वेक्षण बताते हैं कि हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने की प्राकृतिक आपदा मानसून के दौरान ही घटती है, जैसा कि अभी हाल ही में हुआ। पाया गया कि जुलाई और अगस्त ऐसे दो महीने हैं जब हिमालय के 1600 से 3500 मीटर की ऊंचाई के क्षेत्र, इस घटना के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में अठखेलियां करते बादल भले ही सौंदर्यपूर्ण दृश्य प्रकट करें मगर अचानक फट भी पड़ते हैं। 

असल में ऊष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र में जो वायु गतिशील होती है, उसमें नमी की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है, यही कारण है इसके दायरे में आने वाले क्षेत्रों में डिजलिंग यानी बूंदा-बांदी प्रारंभ हो जाती है। पाया गया है कि यहां संवहन-धारा अन्य दशाओं की तुलना में अधिक शक्तिमान होती है। इस दशा में कपासी मेघों का तैरना सामान्य सी बात हो जाती है। जब कोई लबालब पानी भरा कपासी मेघ नीचे आकर बरसने की दशा में हो जाता है तो अचानक फट पड़ता है। इस तरह से बादल फटता है और बेहद कम अवधि में भारी मात्रा में पानी पहाड़ पर चोट करता है।

फटते बादलों से दहलते पहाड़

लेह क्षेत्र चारों ओर से बड़े पहाड़ों से घिरा हुआ है। वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार जब मानसूनी बादल दक्षिण से उत्तर की ओर चलायमान होते हुए तीन ओर से घिरे घाटी में जा फैलते हैं तो वह मुहानों से टकराते रहते हैं और पिंजरें में बंद जीव की तरह बाहर नहीं निकल पाते हैं। ऐसी दशा में उन्हें हवा की सहायता नहीं मिल पाती कि वे ऊपर उठें। वे आगे बढ़ नहीं पाते और ठहर जाते हैं। सनद हो कि यह बादल अकेला नहीं होता है बल्कि बाकी अन्य बादलों का जमघट होता है। 

परिकल्पना यह है कि जब एक बादल ठहरता है तो दूसरा भी उसी में अटक जाता है और अपनी गति खो देता है। इस तरह से एक के ऊपर एक बादल एकत्रित होते चले जाते हैं। मानवीय स्वरूप से सोचिए तो बेचारे बादल पिंजरे में फंसे आत्महत्या की दशा में आ जाते हैं। वैज्ञानिकों की नजर में यह एक ऐसी स्थिति है जब बादलों में समाई आर्द्रता के भार में बढ़ोत्तरी होती चली जाती है। एकत्रित हुए बादल इस भार को सह नहीं पाते हैं और फट पड़ते हैं। इसमें वेग और जल की मात्रा इतनी अधिक होती है कि मानव रूपी जीव की तो बिसात क्‍या, पहाड़ तक में दरार पड़ जाती है। लेह और नीमू क्षेत्र की घटनाओं में भी ऐसा ही हुआ। कड़क से तीव्र गति लिए पानी ने धरती पर चोट की और आनन-फानन में मकान मलवे में बदल गए।

सर्वेक्षण बताते हैं कि बादल फटने की घटनाएं रात्रि में होती हैं। दिन में बादल फटना यहां यदा-कदा होता है। अध्ययन के बाद इसके पीछे का तथ्य स्पष्ट हुआ कि दिन में संकरी घाटियों में आर्द्रता से परिपूर्ण मेघों का जमाव लगातार होता रहता है तो वहीं रात के समय पर्वतीय संचरण के कारण मेघों का नीचे की ओर आना स्थानीय तथा चक्रवाती हवाएं पैदा कर देता है। इसी कारण बादल फटने की घटनाएं जन्म लेती हैं।

देखा जाए तो बादल फटने की घटना भी असल में भीषण, लगातार मूसलाधार वर्षा का ही रूप है। प्रकाशित रिपोर्ट यह बताती हैं कि जब बादल फटता है तो तीव्र आवाज के बाद पानी इस प्रकार से गिरता है, मानो एक पानी भरा हुआ बहुत बड़ा गुब्बारा फटा हो। इसके साथ ही कुछ घंटों में भारी वर्षा होती है। लेह क्षेत्र में भी 6 अगस्त को ऐसी ही स्थिति बनी। यहां मात्र एक मिनट की अवधि में 48.26 मिमी. वर्षा रिकार्ड की गई। ज्ञात हो कि इससे पहले हिमाचल प्रदेश के बरोत क्षेत्र में 26 नवंबर 1970 को जब बादल फटा था, तब एक मिनट में 38.10 मिमी. की वर्षा दर्ज हुई थी। लेह में हुई तीव्र वर्षा के कारण 150 किलोमीटर का क्षेत्र देखते-देखते जलमग्न हो गया। अब चूंकि इस तरह से भारी मात्रा में पानी जमीन पर चोट करता है तो एक तो उसका बल भूमि को हिला देता है। दूसरा, क्षेत्र विशेष की मिट्टी में कटाव पैदा हो जाता है जो स्पष्ट तौर पर मृदा क्षरण की स्थिति है। इस गंभीर दशा के कारण क्षेत्र विशेष के ढलान, शैल, मृदा आदि संपूर्ण जल संतृप्ता की स्थिति में आ जाते हैं यानि भरपूर पानी लिए प्रलय की दशा आ जाती है। इस तरह से क्षेत्र के प्राकृतिक नाले पूरी तरह भर कर तीव्र जल बहाव ले आते हैं और उनमें गति इतनी अधिक हो जाती है कि राह में आती हर वस्तु, जीव, वनस्पति को वह समूल नष्ट कर बहाते हुए ले जाते हैं। लेह की घटना में भी ऐसा ही हुआ। पूरा क्षेत्र बाढ़ की चपेट में आ गया। रोहतांग हाइवे और नीमू क्षेत्र में बाढ़ का विकराल रूप देखा गया। 

कल चमन था, आज इक सहरा हुआ 

लेह-लद्दाख का क्षेत्र अपने सौंदर्य के लिए जाना जाता है क्योंकि यहां पर्यटकों का तांता लगा रहता है। हालांकि यह क्षेत्र दुर्गम है और सड़कें भी सही दशा में नहीं हैं मगर यहां भी पर्यटक एक चुनौती के रूप में आते हैं। घटना के दौरान पर्यटकों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देना संभव हुआ। 

बादल फटने की घटना अकेली आपदा नहीं होती है। इससे जुड़कर अन्य प्राकृतिक आपदाएं भी पांव पसारती हैं। इसमें बाढ़ के अलावा भूस्खलन, मृदा अपरदन, जैवविविधता का छिन्न-भिन्‍न हो जाना आदि प्रमुख हैं। असल में जो प्राकृतिक संपदाएं नष्ट हो जाती हैं, वह वापस नहीं आती हैं। यहां तक कि क्षेत्र विशेष की मिट्टी भी बरबाद हो जाती है। पाया गया है कि विभिन्‍न प्राकृतिक संसाधनों के साथ वन संपदा भी तार-तार हो जाती है। जिन क्षेत्रों में वेदिकाएं बना कर खेती की जाती है या जहां भूस्खलन के अवशेष रह जाते हैं, वहां अपेक्षाकृत भारी क्षति होती है। यही नहीं, आकस्मिक बाढ़ के कारण तलछटी तथा निचले भागों में भारी तबाही होती है। यह वह तबाही होती है जिसकी भरपाई सालों-साल नहीं हो पाती है। जो काल-कलवित हो गया, वह वापस नहीं आता है तथा जो बच गया वह दहशत में रहता है।

जो तूफानों से टक्कर ले उसे इंसान कहते हैं

चूंकि बादल फटने की घटना औचक और प्राकृतिक है, अतः इसे रोक पाना या इससे बच पाना तो कदापि संभव नहीं है लेकिन फिर भी मानव की फितरत है कि वह बड़े से बड़े तूफान से भी टक्कर ले जाता है तो यह तय है कि इस आपदा से कुछ हद तक तो बचाव किया ही जा सकता है, दूसरे राहत कार्यों की रणनीति तैयार की जा सकती है। और मोटी बात तो यही है कि देश के वे क्षेत्र इंगित किए जाएं जहां इस प्रकार की घटनाएं आम हैं। मसलन हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर आदि में इन घटनाओं के रिकॉर्ड बनें, उन्हें मानचित्र पर उतारा जाए, घटना से हुए नुकसान का आंकलन किया जाए, इसका प्रचार समय-समय पर क्षेत्र विशेष में किया जाए। इस बात की भी जानकारी दी जाए कि बादल फटने के बाद बाढ़, भूस्खलन, भूमि कटाव, मृदा क्षरण जैसी आपदाएं भी साथ आएं तो इनसे कैसे बचा जाए, इसमें आम जनता की भागीदारी क्या हो। यही नहीं, प्रभावित क्षेत्र में राहत कार्यों की भी विस्तार से समीक्षा की जाए। पूर्व घटना से प्रभावित स्थान विशेष की वनस्पति, जीव आदि की समीक्षा कर उसे पुनः पनपाने की दिशा में तीव्रता से कार्य किए जाएं वर्ना वहां पर्यावरण असंतुलन पनपते देर नहीं लगेगी जो अन्य प्राकृतिक आपदाओं को न्यौता देंगे। जानें तो वापस नहीं लाई जा सकतीं मगर हिम्मत कर क्षेत्र विशेष के विकास कार्य को तीव्रता से किया जा सकता है, यही जिंदगी है। बीती ताहि बिसार के, आगे की सुधि लेय, प्रकृति के कहर पर विधि का कोई जोर नहीं, हां इससे छेड़छाड़ की तो कहर बरपेगा ही।

जहां बादल फटे

बादल फटने की घटनाएं केवल पहाड़ी क्षेत्रों में ही नहीं होती हैं, इनका फटना यदा-कदा मैदानी क्षेत्रों में भी होता है। मगर प्रमुख घटनाएं पहाड़ों में ही होती हैं। देश में हिमाचल प्रदेश और उत्तरांखड इन घटनाओं के लिए विशेष तौर पर उल्लेखनीय हैं। वर्ष 2004 के अगस्त माह की ही घटना है जब हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जनपद में बादल फटा, ढेरों पानी पलक झपकते ही तेवला पहाड़ी में बिखर गया। देखते-देखते बरसात होने लगी। हालत यह थी कि तेज बहाव से पानी बहुत सी मिट्टी व पत्थर समेट लाया और भारी गाद के कारण 1200 मीटर लंबी सुरंग का मुख्य द्वार ही विलोप हो गया। इसी प्रकार वर्ष 1999 में भी अगस्त माह में ही कुल्लू घाटी के गोजरा गांव में बादल फटने से बाढ़ की स्थिति पैदा हो गई। इससे पूर्व 1993-94 में भी पुकार घाटी में बादल फटा जिसने दर्जन भर गांवों में तबाही मचाई। इसी प्रकार उत्तराखंड में भी बादल फटने की घटनाएं होती हैं जहां एक ओर चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी-गढ़वाल, रुद्र प्रयाग, पौढ़ी गढ़वाल आदि में बादल फटने की घटनाएं होती हैं, वहीं दूसरी ओर कुमायूं मंडल में पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, नैनीताल आदि क्षेत्र भी इसकी चपेट में आ चुके हैं। यही नहीं, देहरादून जनपद, मंसूरी की पहाड़ियां, शिवालिक पहाड़ियां आदि में भी बादल फटने की घटनाएँ देखी गई हैं। 20 जुलाई 1970 को गढ़वाल के बेलाकूची क्षेत्र में बादल फटा जिसने भीषण वर्षा कर गंभीर तबाही मचाई। 

वर्ष 2005 में मुंबई में बादल फटने की घटना हुई। यह बड़ी घटना नहीं थी मगर इससे भी लोगों में दहशत फैल गई।

(डा. कुलदीप शर्मा, 333, ग्रेड इंडिया अपार्टमेंट, प्लाट 15, सेक्टर-6, द्वारिका, नई दिल्‍ली - 110015 ई-मेल : kuldeep328@gmail.com)

 

बादल कैसे-कैसे

आसमान में अठखेलियां करता हर बादल एक-सा नहीं होता है। बादलों के रंग-रूप और कार्य है अलग-अलग होते हैं। इसलिए यह कतई आवश्यक नहीं है कि हर बादल बरसे या हर बादल फट पढ़े। कुछ बादल जलकण लिए होते हैं तो कुछ हिमकण है समाए रहते हैं, कुछ कारे-कजरारे होते हैं तो भूरे, तो कुछ रूई के फाहे-से सफेद भी होते हैं।

बादलों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा चुका है, जो बादल पानी का बोझ उठाए चलते हैं, वह कुछ अलग ही कहानी कहते हैं। गहन अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि बादल में निहित जलकण सेंटीमीटर के हजारवें हिस्से के व्यास वाले होते हैं। यानी एक हजार जलकण एक सेंटीमीटर के क्षेत्र में समायेंगे। इस तरह किए गए आकलन से ज्ञात होता है कि बत्तीस घन किलोमीटर बादलों में 1,50,000 टन जल भरा होता है। खैर गुजरती है, जो धीरे-धीरे बरसता है, एक साथ एक जगह फट पड़े तो है क़यामत ला दे। मगर ऐसा होता नहीं है। असल में इन जलकणों को एक किलोमीटर ऊपर से धरती की ओर आने में दस घंटे का समय लग जाता है। बादल से निकले दस लाख बिंदु बरसात की बड़ी बूंद बनाते हैं।

मोटे तौर पर बादलों को चार नामों से जाना जाता है। पक्षाभ मेघ यानी सिरस क्लाउड, दूसरा वर्षा मेघ यानी निंबस क्लाउड, तीसरा कपासी मेघ यानी क्यूम्यूलस क्लाउड और चौथा स्तरी मेघ यानी स्ट्रेसस क्लाउड। जो बादल बीस से तीस हजार फुट की ऊंचाई पर तैरते हैं, जिनका प्रभाव पक्षियों के फूले हुए पंख अथवा घुंघराले बालों की तरह होता है पक्षाभ मेघ कहलाते हैं। जैसे कि इनकी अधिकतम ऊंचाई से आभास होता है, यह वायुमंडल में अधिक क्षेत्र के बीच होते हैं, अतः इनमें पानी जमा हुआ (यानी बूंद न होकर बर्फ कण के रूप में) होता है। इन बादलों की विशेषता ये है कि यह पानी की बूंदों की बजाय बर्फ या फिर ओलों की बरसात करते हैं।

मगर जिन बादलों में बरसात की बूंदें भरी पड़ी होती हैं वे जब बरसते हैं तो जमकर बरसते हैं। इसलिए इन्हें वर्षा मेघ कहा जाता है। आम तौर पर आकाश में कोई साढ़े तीन हजार फुट की ऊंचाई पर शोर मचाते, गड़गड़ाहट करते, यहां तक कि दामिनी यानी बिजली चमकाते ये बादल इस हद तक काले-कजरारे हो जाते हैं कि सूरज को ढांप लेते हैं और भरी दोपहरी में रात का-सा समां बांध देते हैं। इस घटाटोप श्याम मेघों को कई बार देखना रोचक नहीं भय-युक्त कौतूहल भी लगता है।

अक्सर कहा जाता है कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं। कपासी मेघ इन्हीं बादलों का नाम है। कोई साढ़े चार हजार फुट की ऊंचाई पर हिलोरें लेते ये बादल रूई के फाहे-से नजर आते हैं। इनका ऊपरी भाग समतल होता है। यह बादल कम बरसते हैं मगर गड़गड़ाहट बहुत करते हैं।

आकाश में छितरे इधर-उधर तैरते ये बादल स्तरी मेघ कहलाते हैं। हालांकि ये भी वर्षा मेघ का ही स्वरूप हैं। मगर सहज नहीं बरसते हैं। जब यह आपस में आ जुड़ते हैं तो ही बरसते हैं। कोई साढ़े तीन हजार फुट की ऊंचाई पर डेरा डाले ये बादल पर्वतों के काफी नजदीक होते हैं। इसलिए जब ये पर्वतों से टकराते हैं तो ठण्डक पाकर बरस जाते हैं।

बादल कोई भी हो धरतीवासियों के मन में उमंग पैदा करता है। विशेषतः जब धरती गरमाती है। हैरान करती बात है कि देश में साल भर में जितनी बरसात होती है उसका 75 प्रतिशत भाग जून से सितंबर के दौरान बरस लेता है। बादलों की लुकाछिपी बरसात को टालती नजर आती है। मगर जब बादल गरजकर बरसते हैं और सावन-भादों एक करते हैं तो धरती नहाती है, नदी डूबती भी है। यही से जन्म होता है प्राकृतिक आपदा का। इसलिए कहा गया है कि अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading