बदली प्राथमिकता

विश्व बैंक के अधिकारी वाशिंगटन के अपने अनजान प्रशंसकों के लिए अपने बारे में चाहे जो प्रचार करते रहें, लेकिन यहां कम से कम इस मामले में उनकी साख गिरी है। ये अधिकारी निजी बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उन्हें काफी सबक मिल गया है, इसलिए सामाजिक वानिकी के एक प्रमुख अंग के रूप में वे उजड़ चुके वन लगाने पर जोर देने लगे हैं ताकि ईंधन की पूर्ति हो सके। वे जोर देकर बताते हैं कि विश्व बैंक आजकल बंजर वन भूमि में पेड़ लगाने के लिए काम को वैयक्तिक बनाने पर ज्यादा महत्व दे रहा है। उन पेड़ों का सारा लाभ उन्हीं गरीबों को दिया जाएगा जो वनों के आसपास रहते हैं।

मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में सरकारी बंजर जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े पर पेंड़ उगाने के लिए भूमिहीन परिवारों को दिए जा रहे हैं। उस जमीन का पट्टा उन भूमिहीनों के नाम नहीं किया जाएगा, लेकिन उन्हें वहां उगाए गए पेड़ों का सारा लाभ पाने का हक है। लगाते समय पौधे और मजदूरी की मदद बाहर से दी जाती है। गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने भी पेड़ लगाने के काम में बेजमीन लोगों को लेकर कई योजनाएं बनाई हैं, लेकिन उनके बारे में कुछ कहना अभी मुश्किल है। कुछ रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि इन योजनाओं में वन विभाग की दिलचस्पी कम है और वनवासी परिवार उन सुविधाओं को लेने के लिए मन से तैयार नहीं है। उन्हें डर है कि आगे चलकर वे न जाने किस मुसीबत में फंस जांए।

ऐसी योजनाओं में उन्हीं बेजमीन लोगों को शामिल किया जाना चाहिए जो उनका एक बुनियादी कारण यह है कि उसमें उन उजड़ चुके जंगलों के पास बसे हुए हैं। बेजमीन लोगों को बसाने की कोई पक्की योजना बनती है तो लकड़ी आधारित उद्योगों की ओर से उसका जोरदार विरोध हो सकता है, क्योंकि वे उस जमीन को ही अपने नाम कराने की कोशिश में हैं। ताकि अपनी जरूरत के पेड़ लगा सकें।

सबसे अधिक गरजमंदों की मदद करने की सामाजिक वानिकी की विफलता का एक बुनियादी कारण है कि उसमें जंगलों का उपयोग करने वाले ग्रामवासियों और उन पर निगरानी करने वाले विभाग के कर्मचारियों के बीच पूरे सौहार्द्र की अपेक्षा रखी गई, जो वास्तविक नहीं है। गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा दूसरे भी राज्यों में देखा गया कि गांव वाले यह पसंद नहीं करते कि उनकी जमीन पर वन विभाग वाले पेड़ लगाएं, क्योंकि उन्हें डर है कि आज विभाग पेड़ लगाएगा, और आगे जाकर एक दिन जमीन पर कब्जा जमा लेगा। गांवों के गरीब सामाजिक वानिकी परियोजना के अधीन मुफ्त बांटे जा रहे पौधे लेने तक से कतराते हैं। क्योंकि वे सोचते हैं कि पौधे लेने भर से भी उस जमीन पर वन विभाग का कुछ-न-कुछ हक शायद बन जाता होगा।

वन संवर्धन में हिस्सेदारी के लिए गांव वालों को मनाते फिरने का नया बोझ वन विभाग के लोग पसंद नहीं करते। मध्य प्रदेश के एक चुवावन अधिकारी कहते हैं, “हम तो राजा थे, आज भिखारी बने घूम रहे हैं कि लोग पेड़ लगाने को मान जाएं।” सामाजिक वानिकी कार्यक्रम को अगर सचमुच कुछ कारगार होते देखना चाहते हैं- उसका कारगार होना बिलकुल जरूरी है ही- तो उसके उद्देश्यों और तरीकों में बुनियादी फर्क लाए बिना कुछ होगा नहीं।

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