बढ़ता बंजर, घटती जमीन

degradation of soil
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हमारे देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि ऐसी है, जो कृषि योग्य समतल है। अनुमान है कि प्रति हेक्टेयर 2500 रुपए खर्च कर इस जमीन पर सोना उगाया जा सकता है। यानी यदि 9250 करोड़ रुपए खर्च किए जाएं तो यह जमीन खेती लायक की जा सकती है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का 26 प्रतिशत है। सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी के मद्देनजर जाहिर है कि इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुस्त मुहैया हो पानी नामुमकिन है।

हमारे देश के लगभग एक-तिहाई इलाके में चल रहे जन-आंदोलनों या सशस्त्र संघर्षों के मूल में जमीन का ही पेच है। कारखानों में भले ही सुख-सुविधाओं की चीजें बन जाएं लेकिन अभी तक कोई ऐसा तरीका ईजाद नहीं हुआ है जो जमीन का उत्पादन कर दे। एक तरफ आबादी बढ़ रही है; दूसरी तरफ गैर-कृषि कार्यों में धरती का इस्तेमाल बढ़ रहा है। देश में स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाए जा रहे हैं। विकास के लिए सड़के, हवाई अड्डे बन रहे हैं, महानगरों की बढ़ती संख्या और उसमें रहने वालों की जरूरतों से अधिक निवेश के नाम पर बनाई जा रही बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी वह उर्वर जमीन ही है जो कभी देश की अर्थनीति का आधार हुआ करती थी। विकास के लिए जमीन तो चाहिए ही! तो क्या हमारे यहां जमीन का इतना अकाल है? यदि नक्शे और आंकड़ों को सामने रखें तो तस्वीर तो कुछ और ही कहती है। देश में लाखोलाख हेक्टेयर ऐसी जमीन है जिसे विकास का इंतजार है। सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मानव सभ्यता के लिए यह संकट स्वयं मानव समाज द्वारा कथित प्रगति की दौड़ में बनाया जा रहा है।

जिस देश के अर्थतंत्र का मूल आधार कृषि हो, वहां एक-तिहाई भूमि बंजर होना एक विचारणीय प्रश्न है। विदित हो देश में कुल 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर बंजर है। हाल ही में केंद्र सरकार ने उपग्रह से मिले चित्रों के मुताबिक पहली बार बंजर और परती जमीन का तुलनात्मक अध्ययन करवाया। 2005-06 और 2008-09 के आंकड़ों को गौर से देखें तो सरकार दावा करती है कि इस अवधि में कुल 32 लाख हेक्टेयर बंजर जमीन को काम के लायक बनाया गया। लेकिन यह रिपोर्ट कहती है कि इस अवधि में दीगर 27 लाख हेक्टेयर जमीन बंजर हो गई, जबकि साढ़े बारह लाख हेक्टेयर जमीन गायब हो गई। हां! गायब हो गई यानी या तो उसे नदी-समुद्र खा गए या फिर वहां बीहड़ बन गए। समूचा परिदृश्य बानगी है कि जमीन बचाने की सरकारी कवायद बेमानी ही है। भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अभी तक कोई विस्तृत सर्वेक्षण तो हुआ नहीं है, फिर भी केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का अनुमान है कि देश सर्वाधिक बंजर जमीन मध्य प्रदेश में है, जो दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टेयर है।

पंजाब सरीखें कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टेयर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नगालैंड में क्रमशः 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। सर्वाधिक बंजर भूमि वाले मध्य प्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खत्म होने में 200 वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढाई गुना अधिक हो चुके होंगे। बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा, खनन-उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना बढ़ा लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं। फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आस-पास की हरियाली होम होती है। तदुपरांत खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती हैं, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है। वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिश्रण दूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाती हैं।

बंजर जमीन को दिखाता किसानबंजर जमीन को दिखाता किसानखदानों के गैर नियोजित अंधाधुंध उपयोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन ही होता है। हरित क्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाड़ने के जिम्मेदार रहे हैं। रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर उसके बाद भूमि बंजर हो रही है। यही नहीं, जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं। सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद बचे रहे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं। आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन इस कार्य में निजी छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है।

हमारे देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि ऐसी है, जो कृषि योग्य समतल है। अनुमान है कि प्रति हेक्टेयर 2500 रुपए खर्च कर इस जमीन पर सोना उगाया जा सकता है। यानी यदि 9250 करोड़ रुपए खर्च किए जाएं तो यह जमीन खेती लायक की जा सकती है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का 26 प्रतिशत है। सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी के मद्देनजर जाहिर है कि इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुस्त मुहैया हो पानी नामुमकिन है। ऐसे में भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक दे कर उस जमीन को कृषि योग्य बनाना, देश के लिए क्रांतिकारी कदम होगा। इससे कृषि उत्पाद बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण रक्षा भी होगी। यदि यह भी नहीं कर सकते तो खुले बाजार के स्पेशल इकोनॉमी जोन बनाने के लिए यदि ऐसी ही अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीनों को लिया जाए। इसके बहुआयामी लाभ होंगे- जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छटेंगे। चूंकि जहां बेकार बंजर भूमि अधिक है वहां गरीबी, बेरोजगारी भी है, नए कारखाने वगैरह लगने से उन इलाकों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। बस करना यह होगा कि जो पैसा जमीन का मुआवजा बांटने में खर्च करने की योजना है, उसे समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़क, बिजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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