बढ़ता दुरुपयोग

नलकूपों की संख्या बढ़ने का अर्थ है भूमिगत पानी का ज्यादा उपयोग। जो हाल दूसरे सभी संसाधनों के शोषण का है, वही पानी का भी है। उसका बेहिसाब दुरुपयोग होता है। इस कारण से भी पानी की सतह नीची होती जा रही है। कुदरती तौर पर जितना पानी भूमिगत भंडार में भरता है, उससे ज्यादा पानी नलकूप बाहर खींच लाते हैं। इसका मतलब यह कि यह कीमती भंडार हमेशा से घटता जा रहा है। इस घटे की मात्रा के बारे में कोई अधिकृत तथ्य प्राप्त नहीं हैं। एक कारण तो यह है कि भूमिगत जल संबंधी बोर्ड हाल में बना है और उसने अभी-अभी काम शुरू किया है। पर श्री धवन इसका दूसरा ही कारण बताते हैं, “इसका एक कारण राजनैतिक भी है, जिन क्षेत्रों में पानी की सतह नीची हो जीती है वहां और ज्यादा नलकूप खोदने के लिए राज्यों को आर्थिक सहायता नहीं मिलती।” ऐसे में भला कौन राज्य अपने यहां के ठीक आंकड़े देगा?

श्री धवन ने पश्चिमी सिंधु गांगेय मैदानों के छह जिलों के नाम गिनाए हैं जहां भराव की तुलना में ज्यादा पानी खींचा जा रहा है। ये जिले हैं : पंजाब के कपूरथला और मलेरकोटला; हरियाणा में महेंद्रगढ़; पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत, अलीपुर और सहारनपुर। पंजाब और हरियाणा में नलकूपों का दौर सत्तर के दशक के मध्य में बहुत तेज था, पर बाद में मंदी आ गई, क्योंकि पर्याप्त पानी था नहीं। इन राज्यों में निजी नलकूपों की अधिकतम सीमा 8,50,000 पर तय की गई है। श्री धवन का अनुमान है कि यह सीमारेखा अब छुई ही जाने वाली है।

पानी की सतह के घटने से साधारण किसान बड़ी परेशानी में पड़ जाते हैं। पैसे वाले किसान तो अपने कुएं गहरे करवा कर कुछ समय के लिए खतरे से बच जाएंगे, पर जो लोग खुले कुएं काम में लाते हैं और परंपरागत पद्धति से पानी खींचकर अपना और मवेशियों का गुजारा करते हैं, उन पर कहर टूट पड़ता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने साफ कहा है कि मलेरकोटला जिले में सालाना 58,000 हेक्टेयर-मीटर पानी भूमिगत भंडार से खींचा जाता है जिसके बदले में वहां केवल 49,000 हेक्टेयर-मीटर पानी भर पाता है। पहले पानी की सतह 12 से 15 फुट नीचे थी। अब यह 30 फुट से ज्यादा नीची हो गई है। इस कारण क्षेत्र के सारे रहट बेकार हो गए हैं।

योजना आयोग के एक सलाहकार श्री नलिनी धर जयाल कहते हैं, “सिंचाई के लिए भूमिगत पानी का अति उपयोग एक अभिशाप है।” ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलों के भूमिगत पानी के अति-शोषण का परिणाम महाराष्ट्र में दिखाई देने लगा है। वहां पीने के पानी की और खाद्यान्न की कमी पड़ी क्योंकि ज्यादातर पानी तो गन्ने की नकदी फसल पी बैठी है। 1960-61 तथा 1980 के बीच नलकूपों की संख्या में 51 प्रतिशत वृद्धि हुई, लेकिन उनसे सिंचित क्षेत्र दुगुना हुआ। इसका मुख्य कारण यांत्रिक पंपसेटों का फैलाव था। भूमिगत पानी बताते हैं कि ऐसे गांव 1980 में 17,000 थे, जो बढ़कर 1983 में 23,000 हो गए।

महाराष्ट्र में पहले बारिश के पानी से जहां मोटा अनाज पैदा किया जाता था, वहां ज्यादा पानी मांगने वानी गन्ने जैसी फसलों का चलन बढ़ने से भूमिगत पानी का घोर संकट बढ़ा। तासगांव तालुके के मनेराजुई गांव में गन्ने के फसल के वास्ते पानी की आपूर्ति करने की 6,93,000 रुपयों का एक योजना 1981 के नवंबर में मंजूर की गई। एस साल पूरा होते-होते पानी को स्रोत सूख गया। 1982 में तीन नए नलकूप खोदे गए जिनकी पानी खींचने की क्षमता 50,000 लीटर रोजाना थी, पर वे भी नवंबर 1983 तक सूख गए। 1984 में वहां 200 मीटर गहरे कई बोरवैल खोदे गए, वे भी सूख गए।

अब लगभग 15 किलोमीटर दूर से टैंकरों द्वारा पानी लाया जा रहा है। जो हाल हरीत क्रांति के इलाकों का हुआ है, वही हाल इस ‘क्रांति’ से पनपे शहरों का भी हो चला है। अहमदाबाद महानगर पालिका ने भूमिगत जल खींचने की अपनी क्षमता 1951-52 में एक करोड़ सत्तर लाख गैलन से बढ़ाकर 1971-72 में 18 करोड़ 35 लाख गैलन कर दी। शहर पर बड़ी बारीक निगरानी रखने वाली एक पत्रिका ‘अहमदाबाद मां’ के अनुसार “1980 में घरेलू और औद्योगिक जरूरतें पूरी करने के लिए 450 नलकूपों से 34 करोड़ गैलन पानी निकाला गया। हाल के वर्षों में पानी का स्तर 1.5 से 1.9 मीटर की प्रति वर्ष की दर से नीचे जा रहा है। गोमतीपुर जैसे कुछ इलाकों में कुछ खास मौसम में यह 6 मीटर तक नीचे चला जाता है।” जो लोग ज्यादा गहरे से पानी खींच सकने वाले पंप नहीं खरीद नहीं सकते, उनकी तकलीफ बढ़ रही है। साबरमती नदी का पानी साल में ज्यादा समय तक सूखा रहता है। इसका एक कारण यह है कि भूमिगत जल के रिसाव से नदी को पानी मिलना कम हो गया।

भूजल और ऊपरी पानी के भद्दे प्रबंध का ही यह नतीजा है कि आज गांवों की तो बात छोड़िए, छोटे-बड़े शहरों में व राजधानियों तक में पीने के पानी का संकट बढ़ता ही जा रहा है। हैदराबाद के लिए रेलगाड़ी से पानी पहुंचाया जा चुका है। मद्रास, बंगलूर भी छटपटा रहे हैं। जिस शहर के पास जितनी राजनैतिक ताकत है, वह उतनी ही दूरी से किसी और का घूट छीन कर अपने यहां पानी खींच लाता है। दिल्ली यमुना का पानी पी लेती है। इसलिए अब गंगा का पानी लाया गया है। इंदौर ने अपने दो विशाल तालाब पी डाले, इसलिए, वहां नर्मादा का पानी आया। वह भी कम पड़ने लगा तो वहां नर्मादा चरण-2, चरण-3 की भी तैयारी हो गई है।

भूमि के संबंध में जो ‘अति चराई’ जैसे शब्द निकल सकते हैं, उन्हें शहरों के इस ‘अति पिवाई’ के बारे में भी सोचना होगा।

भूमिगत पानी के अति उपयोग का नतीजा यह भी हो सकता है कि उसमें खासकर समुद्र तट के इलाकों में, खारा पानी मिल जाए। इससे फिर रहा-सहा पानी भी पीने या सिंचाई के लायक नहीं रह पाएगा। 50 के दशक में गुजरात के सौराष्ट्र के दक्षिणी तटवर्ती हिस्सों के किसानों ने भूमिगत पानी से साग-सब्जी और मीठे नींबू की सघन खेती करना शुरू किया था। 1970 तक समुद्र का खारा पानी भूमिगत स्रोतों में घुस आया और खेती की पैदावार एकदम घटने लगी। इस तरह प्रभावित क्षेत्र 1971 से 1977 के बीच 35,000 हेक्टेयर से एक लाख हेक्टेयर हो गया। एक विशेषज्ञ समिति के अनुसार इस जमीन की सुधारने की लागत 64 करोड़ होगी। भूजल के मीठे स्रोतों में खारे पन की यह समस्या सूरत में भी आने लगी है।

देश के पूर्वी तट पर गोदावरी, कृष्णा और कावेरी के मुहाने भूमिगत पानी के भंडार से समृद्ध रहे हैं। पहले साधारण कुओं से पानी खींचा जाता था। उनमें भीतर के स्रोतों से पूरा पानी वापस भर जाता था। लेकिन पिछले दो दशकों में अधिक उपज वाली किस्मों के आने से कई-कई फसलें लेने से उन स्रोतों का शोषण बेहद बढ़ गया है। तमिलनाडु में इस दशक की शुरुआत से जो सूखे का सिलसिला शुरू हुआ, उसकी वजह से समुद्रतटीय इलाकों में खूब गहरे बोरवैल बड़ी संख्या में खोदने पड़े। इसके कारण खारे पानी के घुस आने का अंदेशा खासकर मद्रास शहर के आसपास के छोटे-छोटे तटीय-जल भंडारों में बढ़ गया है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading