बढ़ती आबादी का यथार्थ और मौजूदा चुनौतियाँ

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विश्व जनसंख्या दिवस पर विशेष


दुनिया की शहरी आबादी का 86 फीसद हिस्सा इन क्षेत्रों में निवास करेगा। शहरी जनसंख्या में इस तरह की अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी से शहरों में नौकरी, घर और बिजली प्रदान करने की नई चुनौतियाँ पैदा होंगी। यही नहीं शहरी गरीबी को कम करने के लिये बुनियादी ढाँचे का विकास, मलिन बस्तियों का विस्तार, पीने के पानी की समस्या और पर्यावरण में गिरावट आदि अन्य बहुतेरी चुनौतियों का सामना भी सरकारों को करना पड़ेगा जो आसान नहीं होगा। आज दुनिया की आबादी सात अरब को पार कर चुकी है और सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इसमें बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो रही है। ग़ौरतलब है कि साठ के दशक के आखिरी वर्षों में सालाना वैश्विक जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 फीसदी थी जो 2011 में 1.2 फीसदी को पार कर गई है। अभी वैश्विक आबादी में हर साल 8 से 9 करोड़ की वृद्धि हो रही है। इस बारे में संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि भविष्य में कुछ बड़े अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देश ही वैश्विक आबादी को तेजी से बढ़ाएँगे। इसमें खासतौर से भारत भी शामिल है जो दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला दूसरा देश है।

आने वाले 10-12 वर्षों में भारत चीन से भी आगे निकल जाएगा। जल क्षेत्र में प्रमुख परामर्श कम्पनी इए वॉटर की मानें तो वर्ष 2025 में भारत को भीषण जल संकट का सामना करना पड़ेगा। इस संकट के पीछे पानी की माँग एवं आपूर्ति में भीषण अन्तर की अहम भूमिका होगी। इसका प्रमुख कारण परिवार की आय बढ़ने तथा सेवा एवं उद्योग क्षेत्र से योगदान बढ़ने के कारण घरेलू और औद्योगिक क्षेत्रों में पानी की माँग में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी होगा। ऐसी आशंका है वर्ष 2060 में भारत की आबादी 1.7 अरब तक पहुँच जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अगले चार दशक के दौरान भारत और चीन की शहरी आबादी में सबसे बड़ी बढ़ोत्तरी दर्ज की जाएगी। खासकर भारत के शहर बेतहाशा बढ़ती आबादी से बर्बाद हो जाएँगे। इससे इनके सामने अपने लोगों को नौकरी, घर, बिजली और बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने की चुनौती होगी। वर्ष 2010 से लेकर 2050 तक भारत में 49.7 करोड़ और अधिक शहरी आबादी जुड़ जाएगी। जबकि चीन 2025 में ही 1.4 अरब आबादी के साथ अपने चरम पर होगा। वहीं आने वाले 35 सालों में यानी 2050 तक की समयावधि के बीच चीन की आबादी में 34.1 करोड़ और लोग शहरों में रहने लगेंगे।

देखा जाए तो अफ्रीका और एशिया इसी समयावधि के दौरान वैश्विक शहरीकरण के मामले में जनसंख्या वृद्धि में सबसे आगे होंगे। इनमें भारत के साथ चीन, अमेरिका, नाइजीरिया और इंडोनेशिया प्रमुख होंगे जहाँ जनसंख्या वृद्धि में भारी बढ़ोत्तरी दर्ज की जाएगी। संयुक्त राष्ट्र के तहत इस बीच नाइजीरिया में 20 करोड़, अमेरिका में 10.3 करोड़ और इंडोनेशिया में 9.2 करोड़ और लोग शहरों में रहने लगेंगे। यही नहीं भारत और इंडोनेशिया में शहरी आबादी में वृद्धि का अनुमान पिछले 40 सालों की तुलना में अधिक होगा।

यह प्रवृत्ति विशेषकर नाइजीरिया की दृष्टि से काफी मायने रखती है, जहाँ पर शहरी जनसंख्या वर्ष 1970 और 2010 के बीच केवल 6.5 करोड़ ही बढ़ी। लेकिन 2050 तक इसमें 20 करोड़ लोगों की वृद्धि की सम्भावना है। इसके तहत दुनिया के सभी देशों में वृद्धि के मामले में नाइजीरिया का तीसरा स्थान होगा। इस बीच अफ्रीका की शहरी आबादी 2050 तक 41.4 करोड़ से बढ़कर 1.2 अरब से अधिक हो जाएगी जबकि एशिया की शहरी आबादी 1.9 अरब से बढ़कर 3.3 अरब हो जाएगी।

असलियत यह है कि इन दोनों क्षेत्रों को मिलाकर दुनिया की शहरी आबादी का 86 फीसद हिस्सा इन क्षेत्रों में निवास करेगा। शहरी जनसंख्या में इस तरह की अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी से शहरों में नौकरी, घर और बिजली प्रदान करने की नई चुनौतियाँ पैदा होंगी। यही नहीं शहरी गरीबी को कम करने के लिये बुनियादी ढाँचे का विकास, मलिन बस्तियों का विस्तार, पीने के पानी की समस्या और पर्यावरण में गिरावट आदि अन्य बहुतेरी चुनौतियों का सामना भी सरकारों को करना पड़ेगा जो आसान नहीं होगा।

भारत में वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2011 में आबादी में 18 करोड़ की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। इसमें ग्रामीण आबादी के मुकाबले शहरी आबादी में अपेक्षाकृत बढ़ोत्तरी अधिक हुई। इसका एक कारण यह भी रहा कि वर्ष 2001 में 2500 के करीब मलिन बस्तियाँ जो ग्रामीण क्षेत्र में आती थीं, को 2011 में शहरी क्षेत्र में शामिल कर लिया गया। उनमें पेयजल की समस्या तो पहले से ही थी, शहरी क्षेत्र में शामिल होने के बाद उसने और विकराल रूप धारण कर लिया।

यही नहीं शहरी आबादी में खासकर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या वृद्धि दर में तेजी से गिरावट दर्ज की गई। वर्ष 2011 की जनगणना से साफ है कि 27 भारतीय राज्यों में मौजूदा दशक में ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट की आशंका व्यक्त की जा रही है। इसे जनसांख्यिकीय बदलाव की संज्ञा दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

देखा जाए तो वर्ष 2001 से ही गोवा, केरल, नागालैण्ड और सिक्किम में ग्रामीण आबादी में गिरावट आने के संकेत मिलने शुरू हो गए थे। आन्ध्र प्रदेश एक ऐसा राज्य था जहाँ ग्रामीण आबादी स्थिर है। जबकि पंजाब और पश्चिम बंगाल में ग्रामीण आबादी में तेजी से गिरावट आई। इस दौरान जहाँ पंजाब में ग्रामीण आबादी में 12 लाख की बढ़ोत्तरी हुई, वहीं शहरी क्षेत्रों में 21 लाख की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जबकि पश्चिम बंगाल में जहाँ ग्रामीण आबादी में 44 लाख की बढ़ोत्तरी हुई, वहीं शहरी आबादी तकरीब 67 लाख के पार जा पहुँची। तटीय राज्य भी इस संक्रमण से अछूते नहीं रहे। असलियत में अब शहरी क्षेत्र आबादी विकास के मामले में ग्रामीण क्षेत्र से आगे निकल रहे हैं।

भारत मौजूदा दौर में मध्य आय वर्ग की स्थिति में है जबकि उसकी औसत आबादी युवा है। देखा जाए तो तकरीब 70 फीसदी भारतीय 35 साल से कम आयु के हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या विभाग के अनुसार वर्ष 2050 में भारत की औसत आयु 37 वर्ष, चीन की 49 वर्ष, अमरीका की 40 वर्ष, जर्मनी की 49 वर्ष और जापान की 52 वर्ष होगी जबकि 2010 में भारत की औसत उम्र 25, चीन की 35, अमरीका की 37, जर्मनी की 44 और जापान की 45 वर्ष थी।

इन हालात में इस सदी के मध्य तक भारत का विश्व की आर्थिक शक्ति बनने का सपना पूरा हो सकता है। ग़ौरतलब है कि देश की आबादी में युवाओं की अधिक संख्या का उस देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। क्योंकि अकसर 15 से 55 साल की कामकाजी उम्र को फायदेमन्द माना जाता है। वर्तमान में भारत में कुल कामकाजी आबादी में अधिकांशतः 15 से 34 साल के युवा हैं।

बीते बरसों पर नजर दौड़ाएँ तो पता चलता है कि 1970 में देश की कामकाजी आबादी 29 करोड़ 60 लाख थी। वर्ष 2010 में यह 75 करोड़ 70 लाख पहुँच गई जो 2050 में बढ़कर एक अरब चार करोड़ 80 लाख हो जाएगी। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि भारत अपनी पूरी युवा शक्ति से श्रम की अधिकतम क्षमता विकसित कर सकता है। इससे साबित होता है कि भारत के पास अर्थव्यवस्था के मामले में अन्य देशों के मुकाबले तीव्र गति से विकास करने की क्षमता है। जबकि उसके पास युवाओं में उद्यमशीलता है और वैश्विक अर्थनीति से सीधा जुड़ाव है। इसका लाभ उठा पाने में हम कहाँ तक सफल हो पाते हैं। यह विचार का विषय है।

यह तभी सम्भव है जब हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर पाने में सक्षम हों। इसके अभाव में भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश को भुनाने में नाकाम रहा है। जहाँ तक चुनौतियों का सवाल है, इनमें जनसंख्या नियोजन की नीतियों का कारगर न होना, अनियोजित गर्भधारण और अवांछित प्रजनन प्रमुख हैं। इससे सामाजिक-आर्थिक विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध होती है। इसका परिणाम होता है उनका कमजोर शारीरिक विकास।

दैनंदिन कार्यों के प्रति लापरवाही से कार्यक्षमता व कार्य उत्पादकता पर असर पड़ता है। नतीजतन इस वर्ग की आमदनी की क्षमता भी प्रभावित होती है। इसके लक्षण गरीबी, कुपोषण, भुखमरी और बेरोजगारी के साथ-साथ भोजन, पानी, पर्यावरण में बिगाड़ और जगह की कमी के रूप में साफ दिखाई देते हैं। देश में स्कूली शिक्षा की हालत बेहद दयनीय है। उच्च शिक्षा का स्तर भी सन्तोषजनक नहीं जा सकता। क्योंकि जहाँ पैसे के बलबूते डिग्रियाँ मिलती हों, वहाँ शिक्षा के स्तर की सहज कल्पना की जा सकती है।

फिर आज देश के अधिकांश विश्वविद्यालय संसाधनों की जबरदस्त कमी से जूझ रहे हैं। नतीजतन उनकी गुणवत्ता प्रभावित हुई है, वहीं उनके सामने छात्रों को रोजगार लायक बनाने की समस्या अलग से मुँह बाए खड़ी है। इसके बावजूद देश में नए विश्वविद्यालयों की बाढ़ आ गई है। उस दशा में इनकी कामयाबी पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है। दरअसल दुनिया जहान के स्तर पर देखें तो उनके ज्यादातर विकासवादी मॉडल यह दर्शाते हैं कि देश को गरीबी से छुटकारा शहरीकरण के माध्यम से ही मिल सकता है।

जरूरत है देश की ग्रामीण जनता को कृषि से उद्योगों की ओर मोड़ने हेतु प्रेरित किया जाए, अपनी प्राथमिकताओं का फिर से निर्धारण किया जाए, परिवार नियोजन कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाए, शिक्षा की गुणवत्ता पर लगातार ध्यान दिया जाए और उन सरकारी स्कूलों और कालेजों में जहाँ गरीब व ग्रामीण छात्र पढ़ते हैं, में निवेश बढ़ाया जाए। यदि इस बाबत कदम उठाए जाते हैं तो निश्चित तौर पर देश की दशा-दिशा में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है अन्यथा नहीं।

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