बढ़ती आलोचना

इतना सब होने के बावजूद अनेक शंकाएं और आपत्तियां खड़ी हुई हैं और लगता है कि सफलता का यह दावा बिलकुल ही खोखला है। सबसे पहले कर्नाटक के कोलार जिले के एक अध्ययन से यह रहस्य खुला कि यह सामाजिक वानिकी मात्र एक दिखावा है। असल में यह रेयान मिल्स और प्लाइवुड के कारखानों को लुगदी और कच्चा माल मुहैया करने के लिए उनके लायक पेड़ लगाने का काम था। इस योजना के कारण देखते-ही-देखते दूर-दूर तक की अनाज पैदा करने वाली जमीन सफेदे के बागों में बदल दी गई।

सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के मुख्य तीन अंग रहे हैं – खेतों में वन लगाना यानी निःशुल्क या सस्ते दामों पर पौधे देकर किसानों को उन्हें अपने खेतों में लगाने के लिए प्रोत्साहित करना, लोगों की जरूरतों के लिए वन विभाग द्वारा खासकर सड़कों, नहरों के किनारे और ऐसी सभी सार्वजनिक जगहों पर जंगल लगाना; और सामुदायिक भूमि पर समुदाय द्वारा सामुदायिक वन खड़ा करना जिसका लाभ समुदाय के सब लोगों को समान रूप से मिल सके।

विश्व बैंक ने उत्तर प्रदेश और गुजरात की सामाजिक वानिकी परियोजना का मूल्यांकन किया और पाया है कि इसका मुख्य लाभ बड़े किसानों को ही मिल रहा है। उत्तर प्रदेश में विश्व बैंक की सहायता से जो सामाजिक वानिकी कार्यक्रम चलाया गया था, उसमें लक्ष्यांक से 3,430 प्रतिशत सफलता हासिल हुई जो सरकारी कार्यक्रमों के लिए एक अभूतपूर्व और असाधारण बात थी। लेकिन इसमें समाज द्वारा अपने बलबूते पर पेड़ लगाने के प्रयास केवल मूल लक्ष्य के 11 प्रतिशत थे जबकि परियोजना के इस अंग से अपेक्षा यह रखी गई थी कि गांव के बेहद गरजमंद लोगों, भूमिहीनों और सीमांत किसानों को उनकी आवश्यकता की चीजें मिलेंगी। गुजरात में लक्ष्यांक से 200 प्रतिशत ज्यादा काम हुआ, लेकिन समाज के अपने प्रयत्नों में लगे वन लक्ष्यांक के 43 प्रतिशत ही थे।

साम्यवादी सरकार वाले पश्चिम बंगाल में वन विभाग द्वारा देहातों के लिए लकड़ी के उत्पादन का काम बहुत अच्छा हुआ है- मूल लक्ष्य से 109 प्रतिशत ज्यादा। लेकिन यह भी लोगों के अपने प्रयत्न से नहीं हुआ है। भूमिहीन परिवारों को सरकार ने पड़े लगाने के लिए सरकारी परती जमीन दी। मार्क्सवादी नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार ने इस कार्यक्रम में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भारी संख्या में लगाया। इससे इसे देहात के स्तर पर अपनी पार्टी को मजबूत बनाने का अच्छा अवसर मिला। फिर भी, पश्चिम बंगाल की सामाजिक वानिकी अच्छी रही है, लक्ष्यांक से 200 प्रतिशत ज्यादा काम हुआ है।

कृषि मंत्रालय ने ही स्वीकार किया है जिन किसानों को पौधे दिए गए हैं उनमें हरियाणा में 61.5 प्रतिशत और गुजरात में 57.6 प्रतिशत किसान 2 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन के मालिक हैं। यह प्रतिशत जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल में अधिक अच्छा है जहां क्रमशः 35.3 और 19.5 प्रतिशत ही इस दर्जे में आते हैं।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में खेतों में वन लगाने के इस कार्यक्रम की सफलता के बारे में बताया गया है कि इसका मुख्य कारण यह है कि छोटे किसानों को अधिक काम पाने की उम्मीद बंधी और किसानों ने देखा कि ये पेड़ बहुत जल्दी बढ़ते हैं और बार-बार लगाए जा सकते हैं, फिर परंपरागत किसी भी नकदी फसल से ज्यादा पैसा इन पेड़ों से मिल जाता हैं। इसलिए अच्छी उपजाऊ जमीन के बड़े-बड़े भागों में पेड़ों की फसल ली जाने लगी। उत्तर प्रदेश में 1979 और 1983 के 4 साल की अवधि में लक्ष्यांक 28,000 हेक्टेयर में वन खेती करने का थे लेकिन असल में 98,000 हेक्टेयर में पेड़ लगाए गए। सामाजिक वानिकी विभाग द्वारा जितने भी पौधे बांटे गए सबके चार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन वाले किसानों को गए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां किसानों के पास जमीन कम है, छोटे-छोटे टुकड़े भर हैं, किसान ज्यादा गरीब भी हैं और ऊर्जा संकट बेहद है, वहां सामाजिक वानिकी सफल नहीं रही। यह भी इस बात का सूचक है कि सामाजिक वानिकी का लाभ बड़े किसानों को ही मिला है।

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