बेहतर जल पाने की उम्मीद मूर्खता

पानी के वेग कम करते ही क्या असर पड़ता है, इसे साफ-साफ कई रूपों में देख सकते हैं। तीन दशक पहले तक गंगा किनारे बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डीमाण्ड (बीओडी) दो से तीन पार्ट प्रति मिलियन हुआ करता था। अब 10 से 12 पार्ट प्रति मिलियन तक है। तीन दशक पहले बनारस के अस्सी घाट पर नदी की चौड़ाई 360 मीटर थी, जो अब यह 260 मीटर में सिमट गयी है। घाट पर नदी की गहराई 9.6 मीटर थी लेकिन अब यह गहराई 3.4 मीटर तक है। आप देखते रहिए, यह खबर भी अब मिलनी शुरू होगी कि बनारस के घाट गंगा में समा गये और राजा का किला किसी रोज गंगा में भरभराकर समा जाएगा।

गंगा के सामने आज जितनी समस्याएँ या चुनौतियाँ हैं, उसके मूल में इसके जल की मात्रा का कम होना ही प्रमुख है। इस साधारण से विज्ञान को कोई सामान्य आदमी भी समझ सकता है। मात्रा और गुण का सीधा रिश्ता होता है। हिमालय में करीब 7010 फीट की ऊँचाई से नीचे गिरने की वजह से गंगा के प्रवाह में स्थितिक उर्जा का निर्माण ज्यादा होता है। ज्यादा वेग होने की वजह से गहराई भी ज्यादा होती है। इससे नदी का पेट भी बड़ा होता है और आखिर में इन सबका फायदा सीधे तौर पर भूगर्भीय जल को होता है। वेग ज्यादा होने से ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता भी ज्यादा बढ़ती है।

हिमालय के जिस इलाके से गंगा निकलती है, वहाँ मेटामार्फक और सिगमेंटरी पत्थर ज्यादा हैं। दोनों ही किस्म के चट्टान मुलायम माने जाते हैं। इस वजह से गंगा अपने प्रवाह के साथ तरह-तरह के खनिज और रेडियोएक्टिव तत्व लेकर आती है। लेकिन पानी के वेग को कम करते ही इन सब पर क्या असर पड़ता है, इसे साफ-साफ कई रूपों में देख सकते हैं। तीन दशक पहले तक गंगा किनारे बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डीमाण्ड (बीओडी) दो से तीन पार्ट प्रति मिलियन हुआ करता था। अब 10 से 12 पार्ट प्रति मिलियन तक है। इसे शून्य होना चाहिए। गंगा का पेट किस कदर भरता जा रहा है, इसका एक नमूना बनारस के अस्सी घाट पर लिये गये नमूने से समझ सकते हैं। तीन दशक पहले घाट किनारे पानी का वेग 2 से 3 सेंटीमीटर प्रति सेकेंड था, जो अब डेढ़ सेंटीमीटर प्रति सेकेंड पर सिमट गया है। गंगा जितना सिमटेगी गंगा बेसिन में भूगर्भ जल का तल उतना ही नीचे जायेगा। आर्सेनिक क्षेत्र बढ़ता ही जाएगा।

न आज तक टिहरी का मूल्यांकन हुआ, न फरक्का का। भारत में गंगा या दूसरी नदियों पर निर्माण के लिए विशेषज्ञों को रखने का चलन है। दुनिया में इन्जीनियरों की सेवा ली जाती है। यहाँ उम्मीद की जा रही है कि बीमार गंगा का सम्पूर्ण इलाज पैथोलॉजिस्ट ही कर देंगे, कभी डॉक्टरों से भी तो राय शुमारी करते कि मर्ज दूर होगा!कछुआ अभ्यारण्य घोषित कर 1988 से ही बालू (रेत) का खनन बंद कर दिया गया है। बालू का ढेर जितना बड़ा होगा, दूसरे छोर पर मिट्टी का कटाव उतनी ही तेजी से होगा। एक और बात पर गौर कीजिए कि जो लोग सिर्फ गंगा की सफाई पर जोर दे रहे हैं, उन्हें यह समझना होगा कि गंगा में यदि प्रवाह रहे और बालू आदि की मात्रा सही रहे तो गंगा खुद ही गन्दगी को साफ करने में सक्षम है। आप खुद ही सोचें कि कुम्भ या माघ मेले में कितने लोग गंगा के संगम पर आते हैं। करीब करोड़ लोग, आधे से अधिक रेत पर ही डेरा जमाये रहते हैं। शौच करते हैं। सोचिए कि इतने लोगों के शौच से गंगा के पानी में सिर्फ वही दिखना चाहिए था। लेकिन क्या कुम्भ अथवा माघ मेले के दौरान या बाद में ऐसा दिखता है, नहीं। जाहिर सी बात है कि बालू में शोधक क्षमता बहुत होती है और वह ऐसी गन्दगियों को खुद में मिला लेता है। इसलिए गंगा में प्रवाह रहे तो ऐसी गन्दगी बहुत हद तक खुद-ब-खुद साफ होती रहेगी।

दूसरी बातों पर गौर कीजिए। गंगा के इस प्रवाह को भीमगोड़ा, नरौरा के बाद टिहरी के नाम पर रोका गया। भीमगोड़ा से टिहरी का हाल यह है कि यह बिजली उत्पादन में कभी भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका। 260.5 मीटर की ऊँचाई वाले इस बांध के लिए 44 किलोमीटर लम्बाई का जलाशय रखा गया। नतीजा देखने को मिल रहा है। टिहरी से अब भी लगभग 300 से 400 मेगावाट बिजली का ही उत्पादन सम्भव हो सका है, जबकि लक्ष्य 1000 मेगावाट का निर्धारित किया गया था। दूसरी ओर लगभग उसी दौर चीन में शुरू हुए ‘थ्री गाड प्रोजेक्ट’ का हाल देखा जा सकता है।

वह मात्र 170 मीटर ऊँचा बांध है लेकिन उसका जलाशय 660 किलोमीटर लम्बाई वाला है और आज वह 18 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन कर रहा है। टिहरी में तो बांध बनाकर गंगा के सिर पर चोट मारी गयी है। नीचे वाले हिस्से में फरक्का के नाम पर बेवकूफाना अन्दाज में एक ऐसा बांध बना दिया है, जो सिर्फ और सिर्फ तबाही और विनाश का ही कारण बनता जा रहा है। फरक्का के आस-पास सालों भर बाढ़ का खतरा बना रहता है। वहाँ 110 फीट से ऊँचाई तक बालू जमा हो गया है। 100 से अधिक गाँव गंगा में समाने की राह पर हैं। अपने देश में तो बस सारा जोर किसी तरह निर्माण करने पर ही रहता है। बाद में तो कोई मूल्यांकन होता ही नहीं।

लेखक नदी वैज्ञानिक हैं और काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में गंगा रिसर्च सेंटर के संस्थापक तथा टिहरी बाँध की तकनीकी समिति के सदस्य रहे हैं।

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